देश में हर साल अक्टूबर-नवंबर महीने में पर्यावरण प्रदूषण खासकर वायु प्रदूषण का जिक्र होने लगता है. सरकार में बैठे सियासतदान प्रेस कौन्फ्रेंस कर लोगों से कई तरह की अपीलें करने लगते हैं. इस बार तो संयोग तो देखिए कि सितंबर आखिरी में प्रदूषण का आंकड़ा कुछ कम आया. नेताओं ने इस मुद्दे को भुनाने की पूरी कोशिश की. दिल्ली के सीएम से लगाकर केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावेड़कर तक सभी ने क्रेडिट लेने के लिए मीडिया का सहारा लिया और ढिंढोरा पी पीटा गया. इसके कुछ ही दिनों बाद सबकी पोल खुलकर सामने आ गई. वायु प्रदूषण की गुणवत्ता ने एकदम से गोता लगा दिया. सबके चेहरे सन्न पड़ गए और फिर एक रटा रटाया बयान सामने आया कि हरियाणा पंजाब में पराली जलाने के कारण प्रदूषण बढ़ गया. सारा का सारा ठीकरा जाकर किसान के माथे पर जड़ दिया जाता है जबकि आजतक उन किसानों को ये नहीं बताया गया अगर वो इस पराली को जलाएं नहीं तो क्या करें. मशीनों का सहारा भी अगर लें तो ईंधन इतना मंहगा है कि किसान क्या खाएगा और क्या बचाएगा. लेकिन हुकूमत को इससे कोई वास्ता ही नहीं है. हम आपको बताते हैं प्रदूषण की असल कहानी…
धान की फसल की कटाई के साथ ही उत्तर भारत विशेषकर पंजाब और हरियाणा में धान की फसल के अवशेष (पराली) जलाने से इस पूरे इलाके में वायु प्रदूषण का स्तर बढ़ जाता है. इससे अक्टूबर-नवंबर में दिल्ली एनसीआर की हवा भी बहुत खराब हो जाती है लेकिन इस समय बढ़ने वाले वायु प्रदूषण के स्तर के लिए केवल आसपास के राज्यों में किसानों द्वारा पराली जलाना ही जिम्मेदार नहीं है. आइआइटी कानपुर के एक अध्ययन के अनुसार इन महीनों में दिल्ली के प्रदूषण में केवल 25 प्रतिशत हिस्सा ही पराली जलाने के कारण होता है. बाकी का 75 फीसदी प्रदूषण कहां से आता है और इसका जिम्मेदार कौन हैं इस बारे में बात नहीं की जाती. किसानों पर आरोप मढ दिए जाते हैं लेकिन उनको इस दुविधा से कैसे निकाला जाए इस बारे में बात नहीं की जाती.
ये भी पढ़ें- दीवाली स्पेशल 2019 : कानून के दायरे में पटाखे
अक्सर सितंबर बाद से ही वायु गुणवत्ता सूचकांक गिर जाता है. ऐसा होने की कई वजह हैं. सबसे पहला कारण है मौसम. ये वक्त ऐसा होता है जबकि बरसात खत्म हो जाती है और सुबह शाम थोड़ी-थोड़ी ठंडक महसूस होती है. हवाओं की रफ्तार भी कम हो जाती है और हवा का दिशाओं में भी फेरबदल होता है. अक्टूबर और नवंबर महीने में हवाओं का जैसे ही रूख बदलता है वैसे ही मौसम करवट ले लेता है. एक मौसम वैज्ञानिक ने बताया कि हिमालय से उठने वाली हवाओं को नीचे की ओर बहना चाहिए यानी कि अगर भारत के नक्शे के आधार पर शीर्ष से नीचे की ओर लेकिन कभी-कभी हवा उल्टी बहने लगती हैं. आमतौर पर हवा के चलने की रफ्तार 15 से 20 किमी. प्रति घंटे होती है लेकिन जब से घटकर 5-10 किमी. प्रति घंटे आ जाती है तो वायुमंडल में जितने भी कण होते हैं वो वहीं मंडराते रहते हैं. जिसके कारण वायु प्रदूषण में इजाफा होता है.
पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने द्वारा नियुक्त पर्यावरण प्रदूषण (रोकथाम और नियंत्रण) प्राधिकरण (ईपीसीए) के अध्यक्ष भूरे लाल ने निजी वाहनों के उपयोग पर रोक लगाने जैसे कदम उठाने की बात कही थी. जब यह बात कही तो दिल्ली-एनसीआर की जनता के माथे पर शिकन आ गई. इससे पहले सोमवार को सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली सरकार के परिवहन विभाग को आदेश दिए थे कि वह 10 साल पुराने डीज़ल और 15 साल पुराने पेट्रोल वाहनों की पहचान करके उनके परिचालन पर रोक लगाए. इसके साथ ही जस्टिस एम.बी. लोकुर की अध्यक्षता वाली पीठ ने विभाग को निर्देश दिए कि वह ऐसे वाहनों की सूची बनाकर केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) और परिवहन विभाग की वेबसाइट पर प्रकाशित करे.
दिल्ली सरकार के आंकड़ों के अनुसार, 1994 में दिल्ली में रजिस्टर्ड वाहनों की संख्या 22 लाख थी जो अब तकरीबन 76 लाख के करीब पहुंच चुकी है. इसमें हर साल 14 फ़ीसदी की वृद्धि हो रही है. इसके अलावा इन कुल वाहनों में दो-तिहाई दोपहिया वाहन हैं. ईपीसीए की रिपोर्ट के अनुसार, दिल्ली में निजी वाहनों के मुक़ाबले ट्रक और टैक्सी प्रदूषण के प्रमुख कारण हैं. ओला और उबर जैसी ऐप आधारित टैक्सी सेवा एक दिन में 400 किलोमीटर तक चलती हैं जबकि कोई निजी वाहन एक दिन में 55 किलोमीटर चलता है. इस वजह से इन टैक्सियों से अधिक प्रदूषण होता है.
ये भी पढ़ें- अब नहीं मिलेगा खाने पर डिस्काउंट
डेनमार्क में 170 से 200 फ़ीसदी तक टैक्स गाड़ियों पर लगा हुआ है. इसका मक़सद लोगों को गाड़ी ख़रीदने से हतोत्साहित करना है ताकि वह सार्वजनिक वाहनों का अधिक से अधिक इस्तेमाल करें. वहां सरकार ने सार्वजनिक वाहनों पर भी अधिक ध्यान दिया है जो हमारे देश में बहुत धीरे-धीरे हुआ है.” हमारे देश में आटो मोबाइल सेक्टर की हालत वैसे ही खस्ता है ऐसे में सरकार ने बीएस-4 इंजन वाली गाड़ियों को भी परमिट दे दिया है. कारपोरेट टैक्स भी घटा दिया गया है.
वाहनों और पराली के अलावा दिल्ली एनसीआर और देश भर में हो रहे कंस्ट्रक्शन भी इसका बड़ा कारण है. एनजीटी और प्रदूषण नियंत्रण विभाग ने कंस्ट्रक्शन के लिए कई तरह की गाइडलाइंस जारी की है लेकिन इसका पालन नहीं किया जाता. नियम के मुताबिक आप घऱ के बाहर बालू,रेत या फिर किसी भी तरह के निर्माण सामग्री को नहीं डाल सकते लेकिन ऐसा नहीं होता. निर्माणाधीन इमारतों को ढकने का निर्देश दिया जाता है लेकिन ऐसा नहीं किया जाता. जिसके कारण भी हमारा वायुमंडल प्रदूषित होता है.
पराली जलाने वाला किसान क्या करे?
एक किसान ने जब इस बारे में जानकारी ली कि आखिरकार क्यों उनको पराली जलानी पड़ती है तो उनका जवाब था, एक एकड़ से धान की पराली हटाने का खर्चा कम से कम ₹2000 आता है. अबकी बार उन्होंने जिस खेत को तीन लाख रुपये की लीज पर लिया था, उसमें सिर्फ डेढ़ लाख रुपये की धान की फसल काटी गई है. ऐसे में प्रति एकड़ 2000 रुपये और खर्चा करना उसके बस से बाहर है.
पंजाब के किसान और किसान संघ सरकार से पराली के वैज्ञानिक नियंत्रण के लिए ₹2000 से ₹5000 प्रति एकड़ मुआवजे की मांग कर रहे हैं. लेकिन सरकार ने कोई मुआवजा तय करने के बजाए उल्टा उनसे जुर्माना वसूलने का फैसला किया है.
किसानों के सामने ये बड़ी समस्या राज्य सरकार हैप्पी सीडर और स्ट्रॉ रीपर जैसी मशीनों की खरीद पर 50 फ़ीसदी सब्सिडी देने का दावा कर रही है, लेकिन ये महंगी मशीनें आम किसान के बूते से बाहर हैं. किसानों का मानना है कि वह पहले से ही कर्ज के बोझ तले दबे हैं और सरकार उनको महंगी मशीनें खरीदने के लिए और कर्जा लेने पर मजबूर कर ही है.
सरकार को और आम जनता को भी इस बारे में सोचना होगा. दिनों-दिन हमारा पर्यावरण जहरीले धुंए की माफिक होता जा रहा है. इसकी वजह से हम अपने बच्चों को गंभीर बीमारी की जद में ढकेल रहे हैं. भारत में सांस की बीमारी गंभीर से फैलती जा रही है. टीबी, स्टोन जैसी घातक बीमारियों का ग्राफ भी बढञता जा रहा है इन सब की जड़ प्रदूषण है.