जिस तरह गुलाल और रंगों के बगैर होली का त्योहार मनाने की कल्पना नहीं की जा सकती ठीक वैसे ही बिना आतिशबाजी के दीवाली का त्योहार मनाने की सोचना अटपटी सी बात लगती है. लेकिन पिछले कुछ सालों से दीवाली की आतिशबाजी पर्यावरण के लिए खतरनाक साबित होने लगी है. इस की वजहें हैं अनापशनाप पटाखे चलाना, पटाखों में नुकसानदेह रसायनों का इस्तेमाल और देररात तक पटाखे फोड़ना. इस सब से आम लोगों का चैन से सोना भी दूभर हो जाता है.

लेकिन सुप्रीम कोर्ट के पिछले 2 सालों में आए अलगअलग एक दर्जन से भी ज्यादा फैसलों ने उद्दंडतापूर्वक पटाखे फोड़ने वालों पर लगाम कसने की जो कोशिश की है वह पूरी तरह नाकाम नहीं कही जा सकती. अब वाकई ज्यादातर लोग सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों के मुताबिक पटाखे फोड़ने लगे हैं. हालांकि कुछ शरारती लोग आदतन कानून तोड़ने से बाज नहीं आते लेकिन राहत देने वाली बात यह है कि दीवाली की आतिशबाजी को ले कर लोगों में जागरूकता आ रही है.

दीवाली पर आतिशबाजी के चलन का कोई ज्ञात प्रामाणिक इतिहास उपलब्ध नहीं है. लेकिन यह भी सच है कि पटाखे और दीवाली एकदूसरे का पर्याय हैं. पटाखे और आतिशबाजी खुशी और उल्लास का प्रतीक हैं खासतौर से बच्चों की दीवाली तो बिना पटाखों के दीवाली जैसी लगती ही नहीं. ऐसे में पटाखों पर पूर्ण प्रतिबंध की बात सहज गले नहीं उतरती, जिस की मांग राजधानी दिल्ली से साल 2017 में उठी थी.

इस में कोई शक नहीं कि दिल्ली न केवल देश बल्कि दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में से एक है जहां प्रदूषण तमाम हदें पार कर चुका है. दिल्ली की जहरीली होती हवा की पूरी वजह हालांकि पटाखे नहीं हैं लेकिन यह भी सच है कि दीवाली के पटाखों का धुआं पर्यावरण के मानक स्तरों को बेहद खतरनाक और नुकसानदेह तरीके से पार कर जाता है. सो, पटाखों पर प्रतिबंध की मांग सब से पहले दिल्ली से ही उठी थी और इस बाबत कई लोगों ने सब से बड़ी अदालत से गुहार लगाई थी.

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