हास्य प्रधान रोमांटिक फिल्म ‘‘द लीजेंड ऑफ माइकल मिश्रा’’ देखकर कहीं से भी अहसास नहीं होता कि इस फिल्म के निर्देशक वही मनीष झा हैं, जिन्होंने ‘‘मातृभूमि’’ जैसी फिल्म निर्देशित कर शोहरत बटोरी थी. ‘‘द लीजेंड ऑफ माइकल मिश्रा’’ में लेखक व निर्देशक दोनो ही स्तर पर असफल नजर आते हैं. फिल्म की कहानी का केंद्र यह है कि प्यार किस तरह एक अपराधी को भी सुधरने पर मजबूर कर देता है. पर फिल्म देखते समय दर्शक सोचने लगता है कि यह फिल्म कब खत्म होगी. हास्यप्रद प्रेम कहानी वाली फिल्म में लेखक व निर्देशक स्वयं दुविधा में नजर आते हैं. उनकी समझ में नही आया कि वह इंसान के आडंबर को चित्रित करें या इंसानी की विचित्रता को.

फिल्म की कहानी बिहार में हाईवे पर बने एक ढाबे ‘‘माइकल मिश्रा का ढाबा’’ से शुरू होती है. जहां पर एक बस आकर रूकती है, जिसमें से एक प्रोफेसर के अलावा कुछ कालेज विद्यार्थी उतरते हैं. यह सभी इस ढाबे पर जाते हैं, जहां फुलपैंट (बोमन ईरानी) उनका स्वागत करता है. एक विद्यार्थी के सवाल पर फुलपैंट माइकल मिश्रा की कहानी शुरू करता है. माइकल मिश्रा (मोहित मलचंदानी) जब टीनएजर की उम्र में था, तब वह एक बेहतरीन दर्जी होता है. जो कि आंख पर पट्टी बांधकर सही सिलाई कर लेता है. पर एक घटनाक्रम उसे अपराधी बना देता है.

इसी उम्र में उसकी मुलाकात एक दस साल की लड़की वर्षा शुक्ला (ग्रासवीरा कौर) से होती है, पर पुलिस माइकल को पकड़ती है, तो माइकल उसे अपना एक लॉकेट देकर चला जाता है. उसके बाद माइकल पुलिस के चंगुल से भागकर एक दिन बहुत बड़ा अपराधी माइकल मिश्रा भाई (अरशद वारसी) बन जाता है. अब उसका अपना गिरोह है. पटना के लोग उसके नाम से कांपते हैं. वह अपहरण, फिरौती, चोरी सारे संगीन अपराधों से जुड़ा हुआ है. अपराधी के रूप में स्थापित होने के बाद वह अपने प्यार की तलाश शुरू करता है. जब वह एक डाक्टर का अपहरण करने के लिए उस हाल में पहुंचता है, जहां बिहार टैंलेट प्रतियोगिता हो रही होती है, तो वहां उसे गायक के तौर पर वर्षा शुक्ला (अदिति राव हैदरी) नजर आ जाती है.

अब माइकल डाक्टर के अपहरण की बात भूलकर वर्षा के पीछे लग जाता है, पर उस दिन वह वर्षा के घर तक नहीं पहुंच पाता. मगर एक दिन उसे वर्षा के घर का पता चल जाता है. तब वह उसी इलाके में रहना शुरू करता है, जहां वर्षा अपने चाचा व चाची के साथ रहती है. एक दिन वर्षा के हाथ का लिखा पत्र माइकल मिश्रा को मिलता है, जिसमें उसे सुधरने के लिए लिखा होता है. तब माइकल मिश्रा सारे अपराध बंदकर पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर देता है. इधर चाचा चाची की ही वजह से वर्षा घर से भागकर मुंबई पहुंचती है, धीरे धीरे वह चर्चित अभिनेत्री बन जाती है.

इस बीच माइकल का दाहिना हाथ रहा हाफ पैंट (कायोज ईरानी) रूप बदल कर वर्षा के पीछे लगा रहता है. इधर कालापानी की सजा काट रहा माइकल जेलर की जान बचाता है, जिसके एवज में जेलर उसकी जेल से भागने में मदद करता है. पटना पहुंचकर माइकल फिर से वर्षा की तलाश करता है. वर्षा एक समारोह का हिस्सा बनने पटना पहुंचती है, मगर वह माइकल को पहचानने से इंकार कर देती है. तब हाफ पैंट, वर्षा को सारी कथा बताता है. वर्षा कहती है कि उसने तो वह पत्र माइकल के उपर वाले मकान में रह रहे संगीतज्ञ मिथिलेष माथुर को लिखा था. बहरहाल, वर्षा, माइकल के प्यार को स्वीकार कर लेती है.

मूलतः बिहार निवासी मनीष झा ने अपनी फिल्म में कलाकारों का मूड़ व भाषा में बिहार का पुट जरुर पिरोया है, मगर पटकथा के स्तर पर वह बुरी तरह से मात खा गए हैं. पूरी पटकथा दिशाहीन है. वैसे पटकथा लेखकों की सूची में मनीष झा के साथ चार अन्य नाम भी हैं. कहानी भी कमजोर हैं. कितनी अजीब बात है कि ‘मातृभूमि’ जैसी फिल्म का निर्देशक भी सोचने लगा है कि दर्शक अपने दिमाग को घर रखकर फिल्म देखने आता है.

अरशद वारसी के अभिनय में नयापन नजर नहीं आता. पूरी फिल्म में वह अपनी पिछली फिल्मों में जो अभिनय कर चुके हैं, उसे ही दोहराते हुए नजर आते हैं. बोमन ईरानी के हिस्से करने को कुछ था ही नहीं. बोमन ईरानी के बेटे व अभिनेता कायोज ईरानी ने ठीकठाक अभिनय किया है. अदिति राव हैदरी भी निराश करती हैं. फिल्म का संगीत भी प्रभावित नहीं करता. परिणामतः 125 मिनट की अवधि वाली फिल्म देखते देखते हुए दर्शक का मनोरंजन नहीं होता, मगर थकावट आ जाती है.

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