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भारतीय लोक सेवा आयोग की परीक्षा का परिणाम आ गया था. चुने हुए कुल 790 उम्मीदवारों में इंदु का स्थान 140वां था. यह कहना सर्वथा अनुचित नहीं था कि उस की स्वयं की लगन, परिश्रम तथा संघर्ष ने उसे आज का दिन दिखाया था. घर में उत्सव जैसा माहौल था. बधाई देने के लिए मिलने आने वालों का सिलसिला लगा हुआ था. उस का 7 सालों का लंबा मानसिक कारावास आज समाप्त हुआ था. आखिर उस का गुनाह क्या था? कुछ भी नहीं. बिना किसी गलती के दंड भोगा था उस ने. उस की व्यथाकथा की शुरुआत उसी दिन हो गई थी जिस दिन वह विवाहबंधन में बंधी थी.

इंदु के पिता एक सरकारी संस्थान में कार्यरत थे और मां पढ़ीलिखी गृहिणी थीं. उस की एक छोटी बहन थी. दोनों बहनें पटना के एक कौन्वैंट स्कूल में पढ़ती थीं. इंदु शुरू से ही एक विशिष्ट विद्यार्थी थी और मांबाप उसे पढ़ने के लिए सदा प्रोत्साहित करते रहते थे. 10वीं व 12वीं दोनों बोर्ड परीक्षाओं में इंदु मैरिट लिस्ट में आई थी. इस के बाद उसे दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रख्यात कालेज में दाखिला मिल गया था. इधर इंदु अपनी पढ़ाई में व्यस्त थी, उधर उस के घर में एक अनहोनी हो गई. उस के चाचाजी की 20 साल की बेटी घर छोड़ कर एक पेंटर के साथ भाग गई. उस ने अपना भविष्य तो खराब किया ही, इंदु के जीवन को भी वह स्याह कर गई. सभी रिश्तेदारों के दबाव में आ कर, उस के पिता इंदु के लिए रिश्ते तलाशने लगे. सब को समझाने की सारी कोशिशें व्यर्थ चली गई थीं इंदु की. गलती किसी और की, सजा किसी और को. कितना रोई थी छोटी के गले लग कर इंदु जिस दिन उस की शादी तय हुई थी.

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उस के चाचा एक पंडे को बुला लाए जिस ने अनापशनाप गणना कर शादी को आवश्यक बता डाला. चाचा ने अपना दोष छिपाने के लिए उस के घर में जबरन यज्ञहवन करा डाला. एक असाध्य वास्तु के अनुसार सोफे इधर से उधर कर पड़ा दानदक्षिणा बटोर कर चलता बना. आनंद आईआईटी से इंजीनियरिंग कर के एक प्रख्यात कंपनी में काफी ऊंचे पद पर था. उस का परिवार भी उस के समुदाय में काफी समृद्ध तथा प्रतिष्ठित माना जाता था. उस पर भी उन लोगों की तरफ से एक रुपए की भी मांग नहीं रखी गई थी. देखने में तो आनंद साधारण ही था, परंतु वैसे भी हमारे समाज में लड़के की सूरत से ज्यादा उस का बैंक बैलेंस तथा परिवार देखा जाता है. हां, बात अगर लड़की की हो तो, नाक का जरा सा मोटा होना ही शादी टूटने का कारण बन जाता है. आनंद को उस के आगे पढ़ने से कोई एतराज नहीं था. वैसे भी शादी के बाद उन दोनों को दिल्ली में रहना था. उन की सिर्फ एक ही शर्त थी, इंदु नौकरी कभी नहीं करेगी. आनंद और उस के परिवार को एक घरेलू लड़की चाहिए थी.

शादी तय होने से ले कर शादी होने तक इंदु के अश्रु नहीं थमे. अपनी विदाई में तो वह इतना रोई थी कि बरात में मौजूद अजनबी लोगों की भी आंखें भर आईं. सब को लग रहा था, मातापिता से जुदाई का दुख उसे दर्द दे रहा है परंतु सिर्फ इंदु ही जानती थी कि वह रो रही थी अपने सपनों, अपनी उम्मीदों और अपने लक्ष्य की मृत्यु पर. विवाह कर के इंदु भौतिक सुखसुविधाओं से भरे हुए ससुराल में आ गई थी. संसार की नजरों में उस के जैसा सुखी कोई नहीं था. उस ने दोबारा कालेज जाना भी शुरू कर दिया था. परंतु तब की इंदु और अब की इंदु में एक बहुत बड़ा अंतर आ गया था और वह अंतर था लक्ष्य का. लक्ष्यविहीन शिक्षा का कोई औचित्य नहीं होता, लक्ष्य कुछ भी हो सकता है, परंतु उस का होना आवश्यक है.

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उस का वैवाहिक जीवन बाह्यरूप में तो सुखद ही लगता था परंतु शयनकक्ष के अंदर अगर कुछ था तो वह था बलात्कार, अतृप्ति तथा अपमान. हर रात आनंद स्वयं से लड़ते हुए उस के साथ जो कुछ करने की कोशिश करता, उस में कभीकभी ही सफल हो पाता. परंतु हर रात की इस प्रताड़ना से इंदु को गुजरना पड़ता था. कभीकभी तो कुछ न कर पाने का क्षोभ वह इंदु पर हाथ उठा कर निकालता था. इंदु की इच्छाओं, उस के सुख, उस की मरजी से आनंद को कभी कोई मतलब नहीं रहा. साल में कईकई महीने आनंद घर से बाहर रहता. इंदु के पूछने पर उसे झिड़क देता था.

इस बारे में इंदु ने पहले अपनी सास तथा बाद में अपनी मां से भी बात की. परंतु दोनों ने ही आनंद का पक्ष लिया. उन का कहना था आनंद काम से ही तो बाहर जाता है, फिर इस में क्या परेशानी? दोनों की सलाह थी कि अब उन दोनों को अपना परिवार आगे बढ़ाने के बारे में सोचना चाहिए. एक शिशु मातापिता की बीच की कड़ी को और मजबूत करता है. बच्चे के बाद आनंद का बाहर जाना भी कम हो जाएगा. कैसे बताती इंदु उन्हें कि एक बच्चे के जन्म के लिए पतिपत्नी के बीच सैक्स होना भी जरूरी होता है. परंतु आनंद और इंदु के बीच जो होता था, वह सैक्स तो कदापि नहीं था. पूरी रात उस के शयनकक्ष का एसी चलता, परंतु अपमान, क्षोभ तथा अतृप्ति की आग को तो वह ठंडा नहीं कर पाता था. मुख पर मर्यादा के ताले को लगा कर, जीवन के 3 साल निकाल दिए थे इंदु ने. कुछ नहीं बदला था सिवा इस के कि उस की पढ़ाई पूरी हो गई थी. और फिर वह दिन आया जब आनंद का एक सच उस के सामने आया था.

उन दोनों की शादी की चौथी वर्षगांठ थी. आनंद औफिस के काम से पुणे गया था. इंदु की एक कालेज मित्र ने उस के साथ शौपिंग का प्लान बनाया था. इंदु ने भी सोचा वह आनंद के लिए कुछ खरीद लेगी. सहेली के घर जाते समय इंदु की नजर एक बड़े अपार्टमैंट के बाहर फोन पर बात करते हुए एक आदमी पर पड़ी. वह चौंक गई, क्योंकि वह आदमी और कोई नहीं, आनंद था. आनंद वहां क्या कर रहा था? इंदु समझ नहीं पा रही थी. गाड़ी लालबत्ती पर रुकी हुई थी. इंदु ने ड्राइवर को गाड़ी आगे लगाने का निर्देश दिया और स्वयं आनंद के पीछे भागी. आनंद तब तक बिल्ंिडग के अंदर जा चुका था.

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