फिल्मी दुनिया में काम करने वाले हर शख्स का यही सपना होता है कि वह सिल्वर स्क्रीन पर बतौरअभिनेता अपने फिल्मी सफर की शुरुआत करे, लेकिन कुछ विरले ही ऐसे हैं जो सोचते हैं कि सिनेमा में उन की पहचान एक खलनायक के रूप में हो. 30 से अधिक धारावाहिक और कई रिएलिटी शोज में काम कर चुके चेतन हंसराज ऐसे ही चंद लोगों में शुमार हैं, जिन्होंने फिल्मों में हमेशा ग्रे शेड को चुना, चेतन एक ऐसे खलनायक के रूप में अपनी पहचान बनाना चाहते हैं कि लोग उन के ग्रे किरदार से हमेशा उन्हें याद रखें. फिल्म ‘हीरो’ और ‘बौडीगार्ड’ में उन के द्वारा निभाए गए नैगेटिव रोल को दर्शक आज भी याद करते हैं. जी टीवी के शो ‘एक था राजा एक थी रानी’ में हंसराज एक नई भूमिका में नजर आ रहे हैं. पेश हैं, इसी शो के इवैंट पर उन से हुई बातचीत के मुख्य अंश :

फिल्म या टीवी शो में विलेन की क्या अहमियत होती है?

मेरा मानना है कि यदि फिल्म की कहानी में कोई नैगेटिव कैरेक्टर नहीं होगा तो वह फिल्म या शो बन ही नहीं सकता, क्योंकि फिल्म में हीरोहीरोइन के नाचगाने के बाद कहानी को आगे बढ़ाने के लिए ट्विस्ट की जरूरत पड़ती है. अगर कहानी में कोई विलेन नहीं है तो कहानी आगे बढ़ेगी ही नहीं और आप को भी मजा नहीं आएगा, क्योंकि सीधीसपाट कहानी एक डौक्यूमैंट्री फिल्म की तरह लगती है. फिल्म में जितना महत्त्वपूर्ण अभिनेता होता है उतना ही महत्त्वपूर्ण खलनायक भी होता है.

इस क्षेत्र में आने का सपना कब देखा?

मैं 5 साल की उम्र से ही ऐक्टिंग कर रहा हूं. एक बाल कलाकार के रूप में मैं ने 75 से ज्यादा कमर्शियल ऐड फिल्मों में काम किया है. बी आर चोपड़ा की ‘महाभारत’ में बलराम का रोल कर के मैं ने ऐक्टिंग की शुरुआत की. इस के बाद कई सारे सीरियल्स और फिल्मों में भी काम किया. मतलब बचपन से ही मेरा बौलीवुड जाना तय था. मैं जैसेजैसे जवान हुआ, मुझे काम मिलता गया और अब तक मैं ने यह पूरी तरह निश्चय कर लिया था कि मुझे ऐक्टिंग में ही कैरियर बनाना है.

‘एक था राजा एक थी रानी’ शो की कहानी आजादी के समय की है. उस दौर के किरदार को जीवंत करने में परेशानी नहीं हुई?

इस शो में मेरे कैरेक्टर का नाम काल है जो बहुत खूंख्वार आदिवासी है और महल की राजनीति का शिकार हो जाता है. अभी तक शो की जो कहानी चल रही थी उस में अब जबरदस्त बदलाव देखने को मिलेगा. यह कहानी 1947 के दौर की है. मैं ने अपनी ऐक्टिंग में सब से ज्यादा हावभाव और लुक पर फोकस किया ताकि चलनेबोलने में कहीं आज के दौर की झलक न दिखे. पुराने दौर के शो में एक दायरा होता है, जिसे पार नहीं करना होता है. यही ध्यान में रखना होता है. इस शो में मुझे इसलिए ज्यादा परेशानी नहीं हुई, क्योंकि इस से पहले मैं मुगलकालीन शो ‘जोधा अकबर’ कर चुका था.

पहले और आज के विलेन के रोल में क्या अंतर महसूस करते हैं?

अंतर रोल में नहीं, कलाकारों में आया है, क्योंकि एक बात तो तय है कि विलेन का रोल नैगेटिव ही होगा, पौजिटिव तो हो नहीं सकता. हां, एक फर्क जरूर पड़ा है कि पुरानी और आज की फिल्मों में पहले नैगेटिव रोल के लिए जीवन, रंजीत व अमरीशपुरी जैसे कलाकार थे जो सिर्फ नैगेटिव रोल ही किया करते थे, पर आज की फिल्मों का हीरो सभी किरदार निभा लेता है. वही विलेन बन जाता है, वही कौमेडी कर लेता है, मतलब निर्देशक एक ही व्यक्ति से सारे काम कराना चाहता है. एक बात और आज के नैगेटिव रोल कर रहे कलाकारों में है, वह यह कि वे आज भी टाइपकास्ट नहीं हुए हैं, जो भी रोल औफर होता है वे कर लेते हैं, चाहे उस रोल में उन्हें कौमेडी ही करनी हो. पर मेरी विचारधारा इन सब से अलग है. मैं नैगेटिव रोल करूंगा जो भी अच्छा लगता है.

कभी आप ने हीरो बनने की सोची?

कभी नहीं, एक तो मुझे कभी हीरो के रोल औफर ही नहीं हुए. दूसरा, शायद लोगों को मेरे चेहरे में हीरो वाली बात नजर नहीं आती होगी, इसी कारण हमेशा मुझे विलेन के रोल के लिए ही एप्रोच किया गया और मैं सच बताऊं कि मुझे कभी भी किसी हीरोइन के पीछेपीछे भागना, पेड़ों के पीछे गाने गाना पसंद नहीं रहा. वैसे मैं ने छोटे परदे पर कई पौजिटिव रोल किए हैं.

आप अपने रोल को साइन करने से पहले क्या देखते हैं?

मेरे पास जब भी किसी फिल्म या शो की कहानी आती है तो में सब से पहले उन किरदारों की लिस्ट बनाता हूं, जिन का रोल ग्रे शेड है और उन में से सब को अपने से जोड़ कर देखता हूं कि मैं कहां, किस किरदार में फिट बैठता हूं. जो किरदार मुझे सब से ज्यादा पसंद आता है उसी के लिए हामी भरता हूं.

आज के सिनेमा में क्या बदलाव देख रहे हैं?

सही बताऊं, आज केवल टैक्नोलौजी में बदलाव आया है, स्टोरी और कंटैंट में नहीं. पहले की फिल्मों में मजबूत कंटैंट होता था. कहानी के अनुसार अभिनेता और खलनायकों के लिए अच्छे रोल और डायलौग गढ़े जाते थे. तभी तो उन फिल्मों की कहानी आज भी हमारे दिलोदिमाग में जिंदा है और बारबार उन्हें देखने का भी मन करता है. आज ऐसा कुछ नहीं है, कुछेक फिल्मों को छोड़ दें तो अधिकतर फिल्मों में वही घिसीपिटी स्टोरी है. सिर्फ तकनीकी पक्ष मजबूत हुआ है. स्पैशल इफैक्ट और डिजिटल एडिटिंग ने आज की फिल्मों को हौलीवुड की फिल्मों के बराबर खड़ा कर दिया है.

एक अभिनेता के लिए यह नई तकनीक किस तरह सहायक है?

पहले फिल्म की शूटिंग लंबे समय तक चलती थी, जिस के कारण फिल्म का ऐक्टर दूसरी फिल्म को साइन करने से पहले कई बार सोचता था. आज फिल्में कई छोटेछोटे सैगमैंट में शूट होती हैं, जिन को एडिटिंग कर के जोड़ा जाता है. जिस से एक ऐक्टर कई फिल्मों की शूटिंग आसानी से कर लेता है. आज तकनीक की बदौलत पूरी फिल्म शूट होने के बाद साउंड की रिकौर्डिंग की जाती है. इसी की बदौलत साउंड और पिक्चर क्वालिटी में निखार आया है, जिस से थिएटर जाने वाले दर्शकों की संख्या बढ़ी है.

छोटे परदे से फिल्मों में कैसे आना हुआ?

जिस समय मुझे फिल्म औफर हुई उस समय में छोटे परदे का जानापहचाना चेहरा बन चुका था. 2006 में फिल्म ‘एंथोनी कौन है’ से मैं ने फिल्मों में ऐंट्री की पर 2007 में प्रदर्शित फिल्म ‘डौन’ से मुझे असली पहचान मिली. इस के बाद तो एक के बाद एक करीब 10 फिल्मों में काम किया. अभी भी मेरी 2 फिल्में ‘झोल’ और ‘यह आदमी बहुत कुछ जानता है’ जिस में मैं एक डिटैक्टिव का रोल निभा रहा हूं, आने वाली हैं

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