सड़क पर भीख मांगने और कुछ गलत करने से अच्छा है कि औरतें स्टेज पर डांस कर के रोजीरोटी कमाएं, जिंदगी बिताएं. आप यह नहीं कह सकते कि डांस नहीं हो सकता. यह तल्ख टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार द्वारा डांस बार के लाइसैंस के लिए कुछ नई शर्तें बढ़ाए जाने के मामले की सुनवाई करते समय की थी. बड़ी अदालत ने महाराष्ट्र सरकार से साफसाफ कहा है कि नियमन और प्रतिबंध में फर्क होता है. सरकार एक तरफ नियमन की बात कर रही है, जबकि उस की नीयत डांस बार को प्रतिबंधित करने की है.

ऐसा लगता है कि महाराष्ट्र सरकार ने डांस बार मामले को नाक का सवाल बना लिया है. शायद यही वजह है कि वह अदालत के आदेशों की लगातार अनदेखी कर रही है. गौरतलब है कि 18 अप्रैल, 2016 को सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार से पूछा था कि उस के आदेश के बावजूद मुंबई में डांस बार के लाइसैंस क्यों नहीं जारी किए गए? बड़ी अदालत ने एक हफ्ते के भीतर इस सवाल का जवाब मांगते हुए मुंबई के डीसीपी, लाइसैंसिंग को भी पेश होने का आदेश दिया था. डांस बार के नए कानून के बाबत अदालत ने कहा कि वह पहले ही कह चुकी है कि वहां बेहूदा डांस नहीं होगा और यह कानून में भी प्रतिबंधित है, लेकिन सरकार उस नए कानून को आधार बनाते हुए अदालत के आदेश का पालन नहीं कर रही है, जो अभी तक नोटिफाई नहीं हुआ.

सुनवाई के दौरान याची डांस बार ओनर्स ने अदालत को बताया था कि उस के आदेश के बाद 15 मार्च, 2016 को 2 लाइसैंस जारी किए गए थे, लेकिन वे 18 मार्च को वापस ले लिए गए और संबंधित अफसर को भी पद से हटा दिया गया. 25 अप्रैल, 2016 को मामले की दोबारा सुनवाई करते हुए जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली बड़ी अदालत की खंडपीठ ने कहा था कि महाराष्ट्र सरकार उस के आदेश का पालन क्यों नहीं कर रही है? आखिर वह चाहती क्या है? राज्य सरकार की ओर से पेश हुई सौलिसिटर जनरल पिंकी आनंद ने अदालत से कहा कि सरकार चाहती है कि डांस बार में कोई बेहूदगी न हो.

इस पर रजामंदी जताते हुए अदालत ने कहा कि सरकार काम करने वाली जगहों पर औरतों की इज्जत बनाए रखे. बेइज्जती को किसी भी कीमत पर सहन नहीं किया जाएगा, लेकिन डांस पर बैन नहीं लगाया जा सकता. सरकार की नई शर्तों पर टिप्पणी करते हुए बड़ी अदालत ने कहा कि डांस बार के लाइसैंस के लिए बंबई म्यूनिसिपल कारपोरेशन के स्वास्थ्य विभाग की मंजूरी लेना जरूरी नहीं है, क्योंकि होटल व रैस्टोरैंट का लाइसैंस लेते समय उन के मालिक स्वास्थ्य विभाग से पहले ही प्रमाणपत्र ले लेते हैं. अदालत का कहना था कि डांस बार का लाइसैंस लेते समय आवेदक की आपराधिक बैकग्राउंड की जांच जरूरी है. इस के अलावा डांस बार के स्टेज की ऊंचाई 3 फुट और दर्शकों की बार बालाओं से दूरी 5 फुट तय की जाए.

अदालतने राज्य सरकार की उस शर्त को सिरे से खारिज कर दिया, जिस में कहा गया था कि डांस बार के वीडियो फुटेज इलाकाई थाने को मुहैया कराए जाएं. अदालत ने कहा कि अगर इतनी ही निगरानी करनी है, तो आप निरीक्षण कर सकते हैं, पुलिस भेज सकते हैं, प्रवेश और निकासी के रास्तों पर सीसीटीवी कैमरे लगा सकते हैं. इस से पहले 29 फरवरी, 2016 को महाराष्ट्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल किया था, जिस में कहा गया था कि डांस बार का सीसीटीवी कैमरे के जरीए इलाकाई पुलिस थाने में लाइव फीड देने से संचालकों के राइट टू प्राइवेसी का उल्लंघन नहीं होगा. इस से वहां काम कर रही औरतों की सिक्योरिटी तय होगी, जो दर्शकों के बरताव को ले कर अकसर परेशान रहती हैं. दरअसल, राज्य सरकार की इस शर्त का कोई मतलब समझ में नहीं आता किडांस के लाइव वीडियो फुटेज इलाकाई पुलिस को दिए जाएं. आखिर इस बात की क्या गारंटी है कि पुलिस डांस बार में कोई गलत हरकत देख कर मौके पर पहुंचेगी ही?

यह भी तो हो सकता है कि संबंधित थाने की पुलिस वीडियो फुटेज का इस्तेमाल अपने मनोरंजन के लिए कर ले? सवाल है कि डांस बार में किसी तरह की गलत हरकत न हो, यह तय करने की जिम्मेदारी किस की है? कानून व्यवस्था को नुकसान न पहुंचे, डांस बार बालाओं की इज्जत पर कोई आंच न आए, यह देखना राज्य सरकार और मुंबई प्रशासन की जिम्मेदारी है. यह सब करने के बजाय महाराष्ट्र सरकार ऐसे 18 नए नियमकानून ले आई है, जिन में से ज्यादातर अव्यावहारिक हैं. कहा गया है कि स्कूलकालेज या मंदिर के एक किलोमीटर के दायरे में डांस बार नहीं खुलेंगे. यहां सवाल उठता है कि रिहायशी इलाकों में शराब ठेके खोलने के लिए सरकार ने क्या मानक तय कर रखे हैं? कितने शराब ठेके स्कूलकालेज या मंदिर से तय दूरी से दूर हैं?

डांस बार में किस आमदनी वाले लोग जाते हैं? आप डांस बार में नियमकानून तोड़ने वाले दर्शकों व बार मालिकों के खिलाफ सख्त कार्यवाही कर सकते हैं, बड़ा जुर्माना लगा सकते हैं और डांस बार जाने के लिए उम्र की सीमा को तय कर सकते हैं. डांस बार बालाओं के काम के घंटे और कम से कम तनख्वाह तय करने जैसी सरकार की बातें तो समझ में आती हैं, साथ ही उन्हें घर से लाने व ले जाने की जिम्मेदारी डांस बार संचालक उठाएं, यह भी जायज शर्त है, लेकिन हर विभाग से अतिरिक्त एनओसी लेने जैसी बातें समझ से परे हैं, क्योंकि ऐसी इजाजत होटलरैस्टारैंट संचालक पहले ही हासिल कर चुके होते हैं. होटल ऐंड बार एसोसिएशन के अध्यक्ष प्रवीण अग्रवाल के मुताबिक, बार मालिक अपने यहां काम करने वाली औरतों व लड़कियों की सिक्योरिटी का खयाल हमेशा रखते रहे हैं.

वैसे भी नए नियमों के तहत राज्य सरकार डांस बार बालाओं को छूने या उन पर पैसे लुटाने वालों को 6 महीने की कैद और 50 हजार रुपए जुर्माने का प्रावधान पहले ही कर चुकी है. प्रवीण अग्रवाल महाराष्ट्र के गृह राज्यमंत्री रंजीत पाटिल के उस तर्क को सिरे से नकारते हैं, जिस के तहत उन्होंने कहा था कि यह कदम बार बालाओं का शोषण रोकने के लिए उठाया गया है. बकौल प्रवीण अग्रवाल, ‘‘नए नियमकानून बनाने से पहले राज्य सरकार को बार मालिकों से बात कर के उन के सुझाव लेने चाहिए थे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ.’’ सब जानते हैं कि साल 2005 में महाराष्ट्र की विलासराव देशमुख सरकार द्वारा डांस बार पर बैन लगाने के बाद तकरीबन 70 हजार बार बालाएं बेरोजगार हो गई थीं. इस का नतीजा यह हुआ कि ज्यादातर बार बालाएं देश के विभिन्न राज्यों में जा कर देह धंधे में उतर गईं. डांस बार बंद होने से तकरीबन डेढ़ लाख लोग प्रभावित हुए थे. 12 अप्रैल, 2006 को जब बांबे हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस अल्तमस कबीर व एसएस निज्जर की खंडपीठ ने राज्य सरकार द्वारा डांस बार पर बैन लगाने के फैसले को खारिज किया, तो उस ने साफ कहा था कि यह संविधान के अनुच्छेद 19-1-जी यानी कोई भी कारोबार, नौकरी या व्यापार करना के खिलाफ है.

बांबे हाईकोर्ट के इसी आदेश पर सुप्रीम कोर्ट ने 16 जुलाई, 2013 को अपनी मुहर लगाते हुए कहा था कि डांस बार पर बैन लगाने से जिंदगी गुजारने के संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन हुआ है. तब से राज्य सरकार किसी न किसी बहाने से नए लाइसैंस जारी करने में अड़ंगे लगा रही है. उसे तत्काल डांस बार के नए लाइसैंस जारी करने चाहिए. मजे की बात यह है कि राज्य सरकार की कोई भी दलील अदालत में टिक नहीं सकी. उस की ओर से कहा गया कि डांस बार की आड़ में जिस्मफरोशी का धंधा परवान चढ़ रहा था. वहीं आरआर पाटिल फाउंडेशन के अध्यक्ष विनोद पाटिल का कहना था कि डांस बार दोबारा खोलने से अपराध बढ़ेंगे. सवाल यह है कि क्या मौजूदा समय में मुंबई या महाराष्ट्र के दीगर इलाके अपराधमुक्त हैं? क्या वहां जिस्मफरोशी नहीं होती? दरअसल, महाराष्ट्र सरकार का रवैया यह बताता है कि हमारी राज्य सरकारें अपनी कमी को स्वीकारने से किस कदर गुरेज करती हैं, अपनी बातों को सही साबित करने के लिए किस हद तक मनमानी पर उतर आती हैं और इस दौरान उन्हें न तो संविधान का खयाल रहता है और न ही न्यायपालिका की इज्जत का. वे अपना सियासी नफानुकसान देखते हुए ही कोई फैसला लेती हैं, भले ही उस से जनता के हितों पर गलत असर पड़ता हो.

महाराष्ट्र सरकार के खिलाफ सब से बड़ी अदालत का रवैया उचित है. अदालत किसी भी राज्य सरकार या केंद्र सरकार की मनमानी सहने के लिए मजबूर नहीं है. अदालत चुनाव में नहीं उतरती, वह सिर्फ सुबूतों के आधार पर ही सच और गलत का फर्क करते हुए अपना फैसला देती है, जिस के पीछे किसी नफानुकसान का गणित नहीं होता.

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