भारत में व्यक्ति पूजा हमेशा हावी रही है. व्यक्ति पूजा भारतीय राजनीति के साथ साथ भारतीय सिनेमा में भी हावी है. इस व्यक्ति पूजा के चलते रजनीकांत की फिल्म ‘‘कबाली’’ का बाफस आफिस कलेक्शन नजर आएगा, अन्यथा कहानी के स्तर पर बासीपन के अलावा कुछ नहीं है. अतिअनुभवी निर्देशक पा रंजीत भी कई जगह बुरी तरह से चूके हैं.

फिल्म की कहानी का केंद्र मलेशिया है. जहां पर दशकों से भारतीय तमिल वंशज रहते आ रहे हैं. कई दशक पहले कुछ भारतीय तमिल वंशज मलेशिया में गुलाम बनकर गए थे. पर अब उनके बेटे व पोते खुद को गुलाम नहीं समझते, जिसकी वजह से चीनियों के संग उनका टकराव बढ़ता जा रहा है. इस टकराव में कुछ भारतीय भी अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए भारतीयों के खिलाफ चीनियों का साथ दे रहे हैं. भारतीयों का बाहुबल और आर्थिक शक्ति भी बढ़ी है. तो वहीं मलेशिया के कुआलांलपुर में चीनी और तमिल अंडरवर्ल्ड के बीच अपने साम्राज्य को बढ़ाने का संघर्ष चरम सीमा पर है. इसी संघर्ष की दास्तान है फिल्म ‘‘कबाली’’.

फिल्म की शुरूआत 25 साल तक जेल में बंद रहने के बाद जेल से बाहर निकल रहे कबाली (रजनीकांत) से होती है. मलेशिया का पुलिस प्रशासन परेशान है कि कबाली के बाहर आने के बाद मलेशिया में हावी हो चुके अंडरवर्ल्ड गुट ‘43’ के साथ कबाली की मुठभेड़ पता नहीं क्या रंग दिखाए. अंडरवर्ल्ड गुट ‘43’ का सरगना है टोनी ली (विंस्टन चाओ). कबाली को टोनी और उनका साथ दे रहे कुछ भारतीयों से अपने पुराने हिसाब चुकाने हैं. वास्तव में कबाली पढ़ा लिखा है और वह भी ईमानदार नेता राम प्रसाद की तरह काम करना चाहता है.

राम प्रसाद की मौत के बाद राम प्रसाद का स्थान कबाली ले लेता है. टोनी ली अपने साथियों के माध्यम से रामप्रसाद के बेटे शाम प्रसाद को भड़का देता है. फिर हालात ऐेस बनते हैं कि शाम प्रसाद की मदद से टोनी के लोग कबाली की गर्भवती पत्नी रूपा (राधिका आप्टे) की हत्या कर देते हैं. इसी दौरान कबाली के हाथों शाम प्रसाद मारा जाता है. यह सीन शाम प्रसाद का छह साल का बेटा कुमार देख लेता है. पर अंत में पता चलता है कि कबाली की पत्नी रूपा जिंदा है. इतना ही नहीं उनकी बेटी योगिता भी है.

फिल्म के कथानक में कोई नवीनता नहीं है. वहीं गैंगस्टर की कहानी. मगर रजनीकांत का जादू दर्शकों के सिर चढ़कर बोलता है. फिल्म ‘‘कबाली’’ पूरी तरह से रजनीकांत की फिल्म है. अति भव्य स्तर पर फिल्मायी गयी इस फिल्म में कई कलाकार हैं, मगर दर्शकों के दिमाग में सिर्फ रजनीकांत ही छाए रहते हैं. रजनीकांत की अभिनय की अपनी एक अलग शैली है. उनकी आंखे ही नहीं बल्कि भौंहें भी बहुत कमाल करती हैं. रजनीकांत की चाल ढाल, चश्मा पहनने व चश्मा आंखों से निकालने का अलग अंदाज, उनके मुस्कुराने का अंदाज सब कुछ दर्शकों को इस तरह बांध लेता है कि निर्देशक की कल्पना की अति रंजित उड़ान भी गलत नजर नहीं आती. इंटरवल से पहले फिल्म कुछ निराश करती है, मगर इंटरवल के बाद रजनीकांत अपने अंदाज में छा जाते हैं. यदि यह कहा जाए कि निर्देशक ने सुपर स्टार रजनीकांत के ‘औरा’ को भुनाने का प्रयास किया है, तो कुछ भी गलत नहीं होगा. वैसे कुछ दृश्यों में रजनीकांत की निजी जिंदगी का बुढ़ापा परदे पर साफ नजर आता है. राधिका आप्टे ने खूबसूरत लगने के साथ साथ बेहतरीन अभिनय भी किया है.

फिल्म में कुछ सीन बेवजह के और अति बोरिंग हैं. मसलन ‘फ्री लाइफ फांउडेशन’’ स्कूल के अंदर के दृश्यों की अवधि को कम किया जा सकता था. इतना ही नहीं फिल्म का अंत भी दर्शकों को दुविधा में  डालता है.

यूं तो ‘कबाली’ क्षेत्रीय भाषा तमिल की फिल्म है, जिसे हिंदी में भी डब किया गया है. पर ‘कबाली’ क्षेत्रीय सिनेमा से परे वैश्विक स्तर की फिल्म नजर आती है. कैमरामैन जी मुरली ने जरूर तारीफ बटोरने वाला काम अंजाम दिया है.

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