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क्रिकेट अंपायरिंग में बनाना है करियर तो पढ़ें ये खबर

क्रिकेट मैदान पर खिलाड़ियों के अलावा दो ऐसे व्यक्ति होते हैं जिनका रुतबा कुछ अलग ही होता है. उनके बिना मैदान पर कोई निर्णय नहीं लिया जा सकता है. वह जो भी निर्णय लेते हैं दोनों टीमों के खिलाड़ियों को उसे स्वीकारना ही होता है. ये दो दिग्गज व्यक्ति और कोई नहीं बल्कि अंपायर होते हैं.

कुछ क्रिकेट प्रेमी ऐसे भी होते हैं जो अंपायरिंग को अपना प्रोफेशन बनाना चाहते हैं, लेकिन अंतरराष्ट्रीय अंपायर बनने के लिए क्या योग्यता चाहिए होती हैं व इसकी प्रक्रिया से वे अपरिचित होते हैं.

अंपायरों की जीवनशैली भी बड़ी गजब होती है, उन्हें सालाना वेतन के अलावा हर मैच की फीस भी दी जाती है. अगर आप भी क्रिकेट अंपायरिंग में करियर बनना चाहते हैं तो हम बताते हैं आपको बताते हैं अंपायरिंग से जुड़ी कुछ बातें.

क्रिकेट अंपायर का काम

क्रिकेट अंपायर सुबह 9 बजे क्रिकेट स्टेडियम में पहुंचते हैं और सुबह 10 बजे टीम के अधिकारियों से पिच की तैयारियों के बारे में बातचीत करते हैं. इसके बाद 11 बजे सुबह मैदान में एक चक्कर लगाकर घोषणा करते हैं कि खेल कितने बजे शुरू होगा और कितने बजे खत्म.

इसके अलावा खेल शुरू होने के साथ अंपायर खिलाड़ी के आउट होने, छक्के, चौके, वाइड, नो बॉल, आदि की जानकारी विभिन्न इशारों से देते हैं. इसके अलावा अगर खिलाड़ी को रौशनी से समस्या हो रही होती है तो वह इस संबंध में स्क्वेयर लेग अंपायर से बातचीत करते हैं.

अंपायर बनने के लिए योग्यता

अंपायर बनने के लिए क्रिकेट के 42 नियमों को जानना आवश्यक है. खेल की बेहतरीन समझ होनी चाहिए. एक अच्छा व्यवस्थापक होना चाहिए जो मैदान में हर बिगड़ती बात को आराम से संभाल सके. साथ ही किसी भी परिस्थिति में शांत रहने वाला होना चाहिए. गुस्सैल व्यक्ति अंपायर नहीं बन सकता.

कैसे बनें अंपायर

अंपायर बनने के लिए राज्य स्तरीय स्पोर्ट बॉडियों द्वारा समय-समय पर प्रायोगिक व लिखित परिक्षाएं आयोजित की जाती हैं. अगर व्यक्ति इस परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाता है तब वह बीसीसीआई के द्वारा आयोजित की जाने वाली अंपायरिंग परीक्षा में बैठने के लिए योग्य माना जाता है.

अगर व्यक्ति इस दूसरे स्तर की परीक्षा को पास कर लेता है तो उसे बीसीसीआई पैनल के लिए चुन लिया जाता है और कुछ दिनों तक राष्ट्रीय मैचों में अंपायरिंग करने के बाद व्यक्ति को अंतरराष्ट्रीय मैचों में अंपायरिंग करने का मौका दिया जाता है.

बीसीसीआई के टेस्ट को क्वालीफाई करने के लिए कोई भी कोचिंग क्लासेस नहीं है. अगर आप स्टेट लेवल इक्जाम पास कर लेते हैं तो बीसीसीआई आपके टेस्ट की तैयारी के लिए खुद क्लासेस करवाती है. जिसे अटेंड करके आप मुख्य परीक्षा की तैयारी कर सकते हैं. 

अमरनाथ यात्रा : गारंटी किसी बात की नहीं

पूरी तरह आतंक की गिरफ्त में आ चुकी कश्मीर घाटी में आतंकी गतिविधियों के चलते हालात कतई ऐसे नहीं हैं कि कोई सामान्य पर्यटक भी वहां जाए. लेकिन 29 जून से 7 अगस्त तक होने वाली अमरनाथ यात्रा में देशभर से लगभग 7 लाख श्रद्धालुओं के अमरनाथ पहुंचने के अनुमान ने जता दिया है कि धर्मांधता इन दिनों सिर चढ़ कर बोल रही है.

क्यों लाखों लोग धर्म के नाम पर मौत के मुंह में जानबूझ कर जा रहे हैं, इस सवाल का जवाब अब बेहद साफ है कि अमरनाथ यात्रा का उद्देश्य अब कुछकुछ बदल रहा है. कहने को तो यह कहा जाता है यहां शिव ने अपनी पत्नी पार्वती को अमरत्व का रहस्य बताया था लेकिन अब यहां मरण की आशंका ज्यादा है. अधिकांश श्रद्धालु अब चमत्कारिक किस्सेकहानियों के फेर में पड़ कर ही नहीं, बल्कि मुसलिम आतंकवादियों को यह बतानेजताने भी जा रहे हैं कि हिंदू किसी गोलाबारूद या मौत से नहीं डरता. कश्यप ऋषि की तपोस्थली कश्मीर घाटी हमारी है, बर्फानी बाबा का पुण्य कोई हम से छीन नहीं सकता.

आस्था और कट्टरवाद में फर्क कर पाना हमेशा से ही मुश्किल काम रहा है. अमरनाथ यात्रा के मामले में तो हालत बेहद चिंताजनक और हास्यास्पद हो गई है कि देशभर में एक करंट सा फैल रहा है कि जितनी ज्यादा से ज्यादा संख्या में श्रद्धालु अमरनाथ पहुंचेंगे, उतनी ही तादाद में पुण्य मिलेगा और हिंदुओं की ताकत दिखेगी. आस्था का करंट फैला कर पैसा बनाने वाले लोग खुश हैं कि इस साल कारोबार अच्छा चलेगा. पिछले साल कश्मीर के कुख्यात आतंकी बुरहान वानी की मौत के बाद घाटी में बारबार कर्फ्यू लगा था,

जिस से अमरनाथ यात्रा बाधित हुई थी. उस से धर्म के धंधेबाजों को वहां पहली दफा घाटा उठाना पड़ा था. उन लोगों को अंदाजा था कि साल 2017 में भी ऐसा दोहराव हो सकता है, इसलिए भीड़ बढ़ाने की तैयारियां तभी से शुरू कर दी गई थीं.

ऐसे उमड़ती है भीड़

देशदुनिया के राजनीतिक व सामाजिक सरोकारों से दूर अधिकांश श्रद्धालुओं की मंशा बेहद साफ रहती है कि जैसे भी हो, पापों व कष्टों से मुक्ति मिले. इस के लिए खूनपसीने की कमाई चढ़ाना सोचने की बात नहीं और अगर कर्ज भी लेना पड़े तो कोई हर्ज नहीं. एक बार वहां हो आएं, फिर तो तमाम कर्जे सूद के साथ उतारना ऊपर वाले की जिम्मेदारी हो जाएगी.

देश में तीर्थयात्राओं का इतना जबरदस्त क्रेज बेवजह नहीं है कि लोग परेशानियों, अभावों, मौसम की मार, पैसों और जान तक की चिंता नहीं करते. दरअसल तीर्थयात्राओं के कारोबारियों ने कोनेकोने में ऐसा जाल फैला रखा है कि इस से किसी का बच कर निकलना बहुत मुश्किल है. चारों दिशाओं में तीर्थस्थल है जिन के अलगअलग चमत्कारी किस्सेकहानियां प्रचलित हैं. इन्हें सुन धर्मांधों की बुद्धि बौरा जाती है कि अगर जिंदगी में एक बार तीर्थ नहीं किया तो सब व्यर्थ और नश्वर है.

धर्म के धंधे की सहायक शाखा तीर्थयात्रा का व्यापार धर्म जितनाही प्राचीन है, जिस का मकसद भी आम लोगों से पैसा कमाना रहा है. हर एक धर्मग्रंथ तीर्थ माहात्म्य से भरा पड़ा है जिस का प्रचार पंडेपुजारी हर धार्मिक आयोजन में करते रहते हैं. सार यही है कि तीर्थयात्रा जरूर करो, बगैर इस के जीवन निरर्थक, पशुवत है. कृषि प्रधान इस देश के संस्कार और मानसिकता अभी भी देहाती हैं. लोग भले ही बड़े शहरों में जा कर बसने लगे हों, सुविधाजनक जिंदगी जीने लगे हों पर तीर्थयात्रा का भूत उन के घरों और दिमाग में सालों पहले जैसा लटका हुआ है.

70 के दशक में सड़कें नहीं थीं, गांवों में आवागमन के साधन नहीं थे जबकि लोगों की आमदनी ज्यादा थी. दूसरे शब्दों में कहें तो खर्च सीमित थे. तब बड़े पैमाने पर पंडेपुजारियों और बनियों ने लोगों को तीर्थयात्रा के बाबत उकसाना शुरू किया. ब्राह्मणबनिया गठजोड़ ने श्रद्धालुओं को बताया कि तीर्थयात्रा दुर्लभ है और भाग्य वाले ही इसे कर सकते हैं. इस सोए भाग्य को जगाने के लिए तीर्थस्थलों से संबंध रखते चमत्कारिक किस्से हैंडबिलों के जरिए बताए जाने लगे. लोग आसानी से जेबें ढीली करें, इस बाबत इन पर्चों में बताया जाता था कि फलां ने चारधाम की यात्रा की तो उसे खेत में सोने का घड़ा मिला. फलां ने जा कर वैष्णो देवी के दर्शन किए तो उस के बेटे की नौकरी लग गई और बेटी की शादी धनाढ्य परिवार में हो गई.

दखते ही देखते तीर्थयात्रा से बेऔलादों को औलादें मिलने लगीं, असाध्य बीमारियों से ग्रस्त मरीज भलेचंगे हो कर घूमने लगे, पति ने पत्नी को मारनापीटना छोड़ दिया, क्योंकि उस की पत्नी ने तिरुपति और रामेश्वरम जा कर पूजापाठ किया था. रामलाल का व्यापार दिन दोगुना रात चौगुना चल निकला क्योंकि उस ने शिर्डी जा कर सांईंबाबा के दरबार में गुहार लगाई थी. यह वह वक्त था जब लोगों के पास अचल संपत्तियां ज्यादा होती थीं, नकदी कम. लिहाजा हर गांवशहर में रातोंरात फाइनैंसर पैदा हो गए जो जमीन, गहने, खेत और मकान गिरवी रख कर ब्याज पर तीर्थयात्रा के लिए नकदी देने लगे. लोगों की लालची मानसिकता को भुनाने को हर स्तर पर कोशिशें हुईं.

तीर्थयात्रा के दलाल गांवगांव घूम कर बताने लगे कि चलो हमारे साथ, हम ने आप की सहूलियत के लिए सारे इंतजाम किए हुए हैं. दुर्गम तीर्थस्थल तक ले जाना हमारी जिम्मेदारी है, आप को तो बस पैसे देने हैं. तीर्थयात्रा के कारोबार की गहरी जड़ें गमलों के जरिए शहरों तक आ गईं और आज सोशल मीडिया के दौर में हालत यह है कि चमत्कारों का प्रचार फेसबुक, इंटरनैट और व्हाट्सऐप के जरिए हो रहा है. लोग शिक्षित तो हुए पर जागरूक नहीं हो पाए. तीर्थयात्रा के फलों और फायदों का लालच बरकरार है और दलालों, पंडों का गिरोह उम्मीद से ज्यादा बड़ा हो चुका है.

अमरनाथ यात्रा का सच

अमरनाथ गुफा में बर्फ का शिवलिंग बनता है, श्रद्धालु जिसे बर्फानी बाबा कहते हैं. इस के चमत्कारिक किस्से दूसरे तीर्थस्थलों की तरह किसी सुबूत के मुहताज नहीं. सालभर कंजूसी और किफायत से पैसे खर्च करने वाले लोग अमरनाथ यात्रा के नाम पर बड़ी दरियादिली से पैसे फूंकते हैं जिस का नजारा हर गांव और शहर में देखा जा सकता है. पिछले साल के घाटे से उबरने के लिए अमरनाथ यात्रा के व्यापारियों ने साल की शुरुआत में ही जाल बिछाना शुरू कर दिया था. 21 मई को दिल्ली के जंतरमंतर पर अमरनाथ यात्रा बचाओ मुहिम में हिस्सा लेने देशभर से पंडेपुजारी, लंगर संचालक और ट्रैवल एजेंट वगैरा पहुंचे थे. इन लोगों की मांग थी कि अमरनाथ यात्रा निर्विघ्न संपन्न कराने को सरकार लोगों को आश्वस्त करे.

इस राष्ट्रीय अभियान से एक बात यह स्पष्ट हुई थी कि बर्फानी बाबा भक्तों की सलामती की गारंटी नहीं लेता. वह न तो आतंकियों को तीसरी आंख खोल कर भस्म कर सकता है और न ही भक्तों की सहूलियत के लिए रास्तों में जमी बर्फ हटा सकता, क्योंकि उस का काम परीक्षा लेना है, परिणाम देना नहीं. शिवलिंग को तो दूसरों की हिफाजत करनी चाहिए पर यहां तो उलटे उस की ही हिफाजत के लिए करोड़ों रुपए खर्च कर सेना तैनात करनी पड़ती है. प्रचार यह किया जा रहा है कि बाबा कड़ा इम्तिहान ले रहा है, इसलिए तमाम बाधाओं को नजरअंदाज करते जो अमरनाथ पहुंच कर बर्फानी बाबा के दर्शन 7 अगस्त तक कर लेगा वह तर जाएगा.

ज्यादा से ज्यादा श्रद्धालु अमरनाथ आएं, इस बाबत इस से संबंध रखती तमाम धार्मिक समितियों व संगठनों ने साल की शुरुआत में ही प्रचार शुरू कर दिया था. भोपाल के पौश इलाके शिवाजीनगर के 6 नंबर मार्केट में पान की गुमटी चलाने वाले एक सज्जन, जिन्हें लोग सिर्फ पंडितजी के नाम से जानते हैं, के पास जम्मू की एक संस्था की रसीदों की एक बुक और दूसरा प्रचार साहित्य पहुंच गया था. इस संस्था का नारा है, भोले की फौज करेगी मौज. प्रचार सामग्री पा कर पंडितजी धन्य हो गए. वे पिछले साल एक जत्थे के साथ अमरनाथ गए थे. उन के हिसाब से यात्रा रोमांचक थी पर रास्तेभर जान का डर सताता रहा था. जम्मू में जिस संस्था में उन्होंने नामपता लिखाया था, उस ने उन्हें रसीदें और साहित्य भेजा था जिन्हें वे अपने ग्राहकों को बांटते रहे.

एक रसीद बुक से लगभग ढाई हजार रुपए का चंदा इकट्ठा हुआ जो उन्होंने डिमांड ड्राफ्ट के जरिए संस्था को भेज दिया. जवाब में जय भोलेनाथ और धन्यवाद सहित दूसरी रसीद बुक आ गई जिसे उन्होंने फिर काउंटर पर रख दिया. पंडितजी किसी से चंदा नहीं मांगते. दुकान पर आए ग्राहक श्रद्धानुसार जो दे जाते हैं, वह राशि वे एक अलग डब्बे में रखते जा रहे हैं. ऐसे देशभर में लाखों लोग इन समितियों और संस्थाओं के लिए चंदा इकट्ठा कर भेज रहे हैं. रोजाना मुश्किल से 3-4 सौ रुपए कमाने वाले इस पान विक्रेता का कहना है कि पिछले साल उन्हें अमरनाथ यात्रा के दौरान 12 हजार रुपए उधार लेने पड़े थे जिन्हें धीरेधीरे वे चुका चुके हैं. अब बैठेबिठाए उन्हें धर्मकार्य सौंप दिया गया है. अगर कहीं से पैसा बरस पड़ा तो वे फिर इस साल, नहीं तो अगले साल तो जाएंगे ही.

शहरशहर में अमरनाथ यात्रा कराने वाली समितियां हैं जो अमरनाथ यात्रियों के रजिस्ट्रेशन से ले कर उन की हर मुमकिन मदद करती हैं. अधिकांश समितियों के कर्ताधर्ता हिंदूवादी संगठनों से जुड़े हैं और अकसर जम्मूकश्मीर जाते रहते हैं. इन रजिस्टर्ड और गैररजिस्टर्ड समितियों के पदाधिकारियों की सक्रियता यात्रा के दिनों में देखते ही बनती है.

जिस दिन जत्था रवाना होता है उस दिन ट्रेन पर ये लोग ढोलबाजों और फूलमाला ले कर पहुंच जाते हैं. समिति के नाम के बैनर स्टेशन पर फहराते रहते हैं, ट्रेन के डब्बों में भी बैनरों को लटकाया जाता है. अमरनाथ यात्रियों से पहले स्टेशन के पास मंदिर में पूजापाठ कराया जाता है, फिर उन के गले में माला पहना कर उन का समारोहपूर्वक सम्मान किया जाता है. दरअसल, ये श्रद्धालु उन के ग्राहक होते हैं जो अमरनाथ यात्रा का भुगतान तो करते ही हैं, साथ ही चंदा भी खूब देते हैं. बदले में इन्हें यह गारंटी मिलती है कि आप को कहीं कोई दिक्कत पेश नहीं आएगी. कहा जाता है कि जम्मू के भगवतीनगर में या पहलगाम में और बालटाल में भी समिति के डाक्टर और लंगर हैं जहां सबकुछ फ्री है. शिवसेवक आप की सेवा में मौजूद रहेंगे.

कहने और बताने को सेवा व पुण्य के इस काम में बैठेबिठाए पैसा बरसता है. इस कारोबार में लागत न के बराबर है जिस में भक्त किराया व दूसरे शुल्क एडवांस में दे चुका होता है और जाते व लौटते वक्त समिति को सहायता राशि यानी चंदा भी देता है. एवज में उसे मिलती है एक समूह यानी जत्थे में रहने की सुरक्षा क्योंकि जम्मू से अमरनाथ तक की पैदल यात्रा वाकई दुरूह और जोखिम भरी है. बालटाल और पहलगाम दोनों रास्तों पर लंगरों की भरमार रहती है.

महंगे भोजनालय – लंगर

जम्मू के भगवतीनगर इलाके में लंगरों की रौनक देखते ही बनती है. श्रद्धालुओं की आमधारणा यह है कि इन लंगरों में खाना मुफ्त में मिलता है जबकि हकीकत यह है कि ये लंगर दुनिया के सब से महंगे भोजनालय साबित होते हैं. कैसे होते हैं, इसे भोपाल के पान विक्रेता पंडितजी के शब्दों में समझें. उन्होंने जम्मू के एक लंगर में एक दिन दोनों वक्त का खाना खाया था. खाने का मीनू हरेक लंगर में लगभग फिक्स है राजमा, चावल, पूरी, सब्जी और एक मीठा जो आमतौर पर हलवा होता है.

पडितजी ने एक दिन खाना खा कर लंगर के नीचे बने अस्थायी मंदिर, जहां बर्फानी बाबा की तसवीर लगी थी, के पास रखी दानपेटी में श्रद्धापूर्वक 500 रुपए डाले यानी दान दिए. निसंदेह यही खाना वे जम्मू के किसी होटल में खाते तो वह 60 रुपए में मिल जाता पर चूंकि जत्थे के साथ गए थे और सारा टूर प्रोग्राम पहले से तय था, इसलिए लंगर में खाना बाध्यता हो गई थी. लाखों श्रद्धालु इसी तरह ठगे जाते हैं जो मानते हैं कि अमरनाथ गए हैं तो दानपुण्य तो करें, खासतौर से उन लोगों को दें जो देश के विभिन्न सूबों से आ कर जम्मू, पहलगाम और बालटाल में लंगर लगा कर सेवा का काम कर रहे हैं.

धर्म और आस्था के अंधे ही तीर्थ के इस कारोबार को सेवा और धर्म का काम कह सकते हैं, वरना यह करोड़ों के मुनाफे वाला धंधा है जिसे 8-10 लोग अमरनाथ यात्रा की समाप्ति के बाद बांट लेते हैं. इन तीनों जगहों में विभिन्न प्रांतों के लंगर देखे जा सकते हैं. हिंदीभाषी राज्यों के लंगर तो हैं ही, अब दक्षिणी राज्यों के लंगर भी लगने लगे हैं जिन के होर्डिंग्स और हैंडबिल वगैरा जम्मू स्टेशन पर उतरते ही भक्तों को मिल जाते हैं. उत्तर प्रदेश के बदायूं के रहने वाले युवा संजय जोशी बीते 4 सालों से भगवतीनगर इलाके में लंगर लगा रहे हैं. जब उन से बातचीत की गई तो उन्होंने बताया कि हर साल वे यात्रा के 15-20 दिनों पहले ट्रकों में सामान भर कर भगवतीनगर में डेरा डाल लेते हैं. यही दूसरे राज्यों से आ कर लंगर लगाने वाले करते हैं. उन की भी कोई न कोई समिति या संस्था होती है.

बकौल संजय, डेढ़दो महीने का राशन वे बदायूं से ले कर आते हैं जो वहां के किसानों व व्यापारियों से चंदे की शक्ल में लिया जाता है. पहले लंगर लगाने का कोई शुल्क नहीं था पर पिछले साल से 20 हजार रुपए स्थान आवंटन के लिए जम्मूकश्मीर सरकार लेने लगी है, जिस से लंगर संचालकों में खासा गुस्सा है. संजय तंबू खींच कर बैठ जाते हैं और समिति के साथ आए दूसरे सदस्य खाना बनाने व परोसने लगते हैं. लंगर बिलकुल फ्री है, संजय बताते हैं, पर सभी यात्री कुछ न कुछ पैसा चढ़ाते हैं जिस से लंगर का खर्च चलता है. कुल कितना चंदा होता है और कितना चढ़ावा आता है, और एक लंगर लगाने में खर्च कितना आता है, इस सवाल पर चौकन्ने हो कर वे यह कहते बात को टाल जाते हैं कि भगवान के काम में कोई हिसाबकिताब नहीं होता.

दूसरे तमाम लंगर वाले भी यही कहते हैं जिन के स्टालों से दक्षिणा के मुताबिक खाने की महक बढ़ती रहती है. लंगर का धंधा चोखा इस लिहाज से भी है कि अनाज, आटा, तेल, घी, किराना सामान वगैरा सब दान का होता है. नकदी भी लाखों में आती है जिस का बमुश्किल 20-25 फीसदी ही खर्च होता है यानी यह 75 फीसदी मुनाफे का धंधा है. कुख्यात संत आशाराम बापू भले ही बलात्कार के आरोप में जेल में बंद हो पर उस की संस्था अमरनाथ यात्रियों से लाखों रुपए बना रही है. इस पर भी हास्यास्पद या तरस खाने वाली बात भक्तों और श्रद्धालुओं का यह प्रचार है कि अमरनाथ यात्रा में लंगर मुफ्त मिलते हैं जहां एक से बढ़ कर एक पकवान खाने को मिलता है. इन भोलेभाले, भोले भक्तों को शायद ही कभी यह बात समझ आएगी कि वे 20-25 रुपए के खाने के सौ से ले कर 1 हजार रुपए तक अदा करते हैं. भोपाल के नजदीक सीहोर के  एक अग्रणी युवा किसान हर साल 2 क्ंिवटल गेहूं और 1 क्ंिवटल अरहर की दाल अमरनाथ के लंगर के लिए एक स्थानीय समिति को दान में देते हैं. इस किसान का कहना है कि सब भगवान ही तो देता है, अब उस में से ही कुछ हिस्सा धर्म के काम में लगा दिया तो क्या हुआ.

अक्ल के मारे ऐसे किसानों पर तरस ही आता है जो बातबात पर सरकार की हायहाय करने का कोई मौका नहीं चूकते पर तीर्थयात्रा के लंगर के लिए 10 हजार रुपए की उपज दरियादिली से दे देते हैं. इन दानी किसानों को क्या किसान आत्महत्या पर किसी को कोसने का हक है, जिन्होंने कभी अपने ही गांव या शहर के किसी गरीब की मदद नहीं की होगी. यही काम व्यापारी करते हैं शक्कर, दाल, चावल और किराने के दूसरे सामान ये लोग ऐसे दान करते हैं मानो इन के और इन के पूर्वजों के जहाज चलते रहे हों. इन्हीं व्यापारियों, किसानों और नौकरीपेशा लोगों की दान की मानसिकता के चलते केवल अमरनाथ ही नहीं, बल्कि देशभर में लंगरों का कारोबार खूब फलफूल रहा है.

अब तो बातबात पर लंगर हर कहीं लगने लगे हैं रामनवमी, हनुमान जयंती, जन्माष्टमी, नवदुर्गा तो दूर की बात है, बुद्ध और अंबेडकर जयंती पर भी लंगर, दूसरे तरीकों से ही सही, लगना शुरू हो गए हैं. यहां भी लोग दान करते हैं जो मुफ्तखोरों की जेबों में जाता है.

ज्यों की त्यों क्यों बदहाली

जम्मू के भगवतीनगर इलाके में लगने वाले लंगरों के ठीक नीचे एक झुग्गी बस्ती है जिस की आबादी लगभग 20 हजार है. इस बस्ती में झांक कर देखें तो यहां गंदगी और गरीबी के साक्षात दर्शन हो जाते हैं. ये झुग्गी वाले छोटेमोटे काम करते हैं और बच्चे दिनभर श्रद्धालुओं की फेंकी पानी की बोतलें और पौलिथीन बीनते रहते हैं. इन दरिद्रनारायणों को लंगर में जा कर खाना खाने की इजाजत नहीं है. अगर कोई बच्चा या बड़ा कोशिश भी करे तो उसे लंगर के कार्यकर्ता दुत्कार कर भगा देते हैं. ये वही धार्मिक लोग हैं जो यह प्रचार करते हैं कि भगवान की नजर में सब बराबर हैं.

यह बराबरी हर तीर्थस्थल में देखी जा सकती है. पुरी के जगन्नाथ मंदिर के बाहर लूलेलंगडे़ भिखारियों की फौज खड़ी रहती है. मंदिर परिसर में प्रसाद यानी भोग की इफरात से दुकानें लगी रहती हैं. इसे दुनिया की सब से बड़ी फूड मार्केट कहा जाता है. जहां थोड़े से चावल खाने के एवज में भक्त हजारों रुपए दान में दे आते हैं. भिखारी क्यों हैं, यह सवाल एक अलग बहस का विषय है. पर भिखारियों के हुजूम तीर्थ और धार्मिक स्थलों पर ही क्यों ज्यादा नजर आते हैं, इस पर बहस की कोई गुंजाइश नहीं. दरअसल, यहां भिखारियों को जानबूझ कर जगह दी जाती है जिस से लोग उन्हें देख सबक ले लें कि वे अगर धर्म और दान नहीं करेंगे तो अगली बार या इसी जन्म में वे भी इसी जगह, इसी भीड़ में कहीं खड़े नजर आएंगे.

अगर धर्म खुशहाली लाता होता तो किसी को भीख मांगने की जरूरत ही नहीं पड़नी चाहिए थी, इस सवाल का जवाब धर्म के कारोबारियों के पास सालों और सदियों पुराना है कि ये भिखारी अपने पिछले जन्मों के पापों की सजा भुगत रहे हैं, ये नास्तिक और अनीश्वरवादी थे. इसलिए इस हालत से बचने के लिए धर्म और दान करते रहो. कभी कोई यह नहीं सोचता कि अगर दान देना बंद हो जाए तो भगवान के मंदिरों में दुकानें चला रही पंडों की फौज जरूर इसी भीड़ का हिस्सा बन कर रह जाएगी जो दानदक्षिणा के दम पर पूरी, हलवा, खीर पीढि़यों से सूत रही है.

अमरनाथ की गुफा तक सहूलियत से हैलीकौप्टर के जरिए जाने वाले यात्री 8 हजार रुपए हवा में उड़ा देते हैं और इस से 5 गुना ज्यादा लंगरों, जम्मू के वैष्णो देवी और रघुनाथ मंदिर में दान में दे आते हैं.

महिलाओं की बढ़ती भागीदारी

एक वक्त में अमरनाथ जैसे दुर्गम तीर्थस्थलों पर केवल पुरुष ही जाते थे, लेकिन अब अमरनाथ जाने वाले जत्थों में महिलाओं की तादाद लगातार बढ़ रही है. महिलाएं पुरुषों के मुकाबले ज्यादा धर्मभीरू होती हैं, महज इसलिए ही उन की भागीदारी तीर्थयात्रा में नहीं बढ़ रही, बल्कि सच यह है कि उन की पारिवारिक, आर्थिक और सामाजिक परेशानियां पुरुषों के मुकाबले कहीं ज्यादा हैं, इसलिए वे भी बढ़चढ़ कर तीर्थयात्राएं करने लगी हैं. शिर्डी और तिरुपति में तो महिलाएं पुरुषों से ज्यादा दिखती हैं.

अमरनाथ का माहात्म्य सुन अब महिलाओं को अपनी परेशानियां का हल बर्फानी बाबा में भी दिखने लगा है, तो बात कतई हैरत की नहीं. भोपाल की एक प्रोफैसर 2 साल पहले अमरनाथ एक जत्थे के साथ गई थीं. उन का मकसद था राह भटक चुकी बेटी रास्ते पर आ जाए, यह प्रार्थना करना या मन्नत मांगना. आज 2 वर्षों बाद भी बेटी हरकतों से बाज नहीं आ रही, तो उन का भरोसा भगवानों से ही उठने लगा है. वे बताती हैं कि बेटी की आजादखयाली के चलते कोई ढंग का लड़का उस से शादी करने को तैयार नहीं. अब तो नौबत यहां तक आ गई है कि बेटी बेशर्मी से कहने लगी है कि जब सारी जरूरतें बगैर शादी के ही पूरी हो जाती हैं तो शादी क्यों करूं.

ये प्रोफैसर केवल अमरनाथ ही नहीं, बल्कि कई तीर्थस्थलों की यात्रा कर चुकी हैं पर समस्या हल नहीं हो रही. बेटी को रास्ते पर लाने के टोनेटोटके और तंत्रमंत्र तक, अनिच्छापूर्वक ही सही, वे कर चुकी हैं.

कोई भारतीय महिला विधवा नहीं होना चाहती. वे केवल सधवा रहने के लिए भी तीर्थयात्राएं करने लगी हैं. जाहिर है विधवा जीवनकी दुश्वारियों का एहसास उन्हें है और सामाजिक असुरक्षा सिर चढ़ कर बोलती है. इसलिए वे पति की दीर्घायु के लिए मन्नतें मांगने चारों दिशाओं में घूमने लगी हैं बावजूद यह जाननेसमझने के कि, कोई भगवान या देवीदेवता इस की गारंटी नहीं देता. तीर्थयात्रा के कारोबारी भी महिलाओं को प्राथमिकता में लेने लगे हैं और लेडीज के लिए अलग से व्यवस्था का प्रचार करते नजर आते हैं. तो इस की अहम वजह महिलाओं की दानप्रवृत्ति या उदार होना है. जो महिलाएं अपने दरवाजे पर आए साधु को खाली हाथ जाने देना भी अधर्म समझती हों, वे तीर्थस्थलों पर जा कर कितनी दरियादिली से पैसा लुटाती होंगी, इस का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है.

हैरत की बात अब खुद महिलाओं का तीर्थयात्रा के कारोबार में शामिल हो जाना है. मध्य प्रदेश के जबलपुर शहर की एक भाजपा नेत्री का तो यह फुलटाइम कारोबार बन गया है. उन के संपर्क ईश्वर की तरह व्यापक हैं, इसलिए साल में 4 बार वे बस में लोगों को भर कर तीर्थयात्रा कराती हैं. हालत यह है कि एक तीर्थ करवा कर आती हैं और हिसाबकिताब कर दूसरे की तैयारी शुरू कर देती हैं. जबलपुर के ग्वारी घाट में रोज नर्मदा आरती में शामिल होने वाली इस नेत्री ने पुण्य के इस कारोबार से खासी जायदाद बना ली है और लोकप्रियता भी हासिल कर ली है. अब वे वार्ड मैंबरी के चुनाव की तैयारी कर रही हैं. चूंकि महिला हैं, इसलिए महिलाओं के अलावा पुरुषों का भी सहज विश्वास उन्हें मिला हुआ है कि वे कोई बेईमानी या हेराफेरी दूसरे तीर्थ कारोबारियों की तरह नहीं करेंगी.

महिलाएं व तीर्थयात्रा

इस साल ये नेत्री अमरनाथ जत्था ले कर जा रही हैं. पूछने पर वे बातती हैं कि औरतों में आस्था (धर्मभीरुता नहीं) ज्यादा होती है. ईश्वर उन की गुहार सुनता भी जल्दी है, इसलिए वे अब बढ़चढ़ कर सिद्ध और तीर्थस्थलों की यात्रा करने लगी हैं.

तीर्थयात्रा के मामले में महिलाओं से कोई धार्मिक भेदभाव नहीं होता है तो जाहिर है कारोबारियों को ग्राहक और पैसा चाहिए और उस के लिए कोई शर्त वे नहीं थोपते. धर्म में सुकून ढूंढ़ती महिलाओं की संख्या 90 फीसदी के लगभग आंकी जाती हैं जो तीर्थस्थलों पर शौपिंग भी खूब करती हैं.

जम्मू के रघुनाथ मंदिर परिसर के अंदर लगी कपड़ों की सरकारी दुकान की एक सेल्सगर्ल की मानें तो, ‘‘औरतें खूब बढ़चढ़ कर साडि़यां और सूट खरीदती हैं हालांकि हम से मोलभाव करती हैं पर पंडों से नहीं कर पातीं जो तरहतरह की मनोकामनाओं के लिए मंत्र फूंकते दक्षिणा वसूलते हैं.’’

असमंजस भी कम नहीं

ऐसा भी नहीं है कि लोग अब तीर्थयात्रा का फल नहीं मिलने पर संतुष्ट हो जाते हों या तीर्थयात्रा के दौरान खर्च किए पैसे के मुताबिक सुविधाएं न मिलने पर किलपते न हों.

भोपाल के एक इंजीनियर भी पिछले साल अमरनाथ गए थे पर उन की हिम्मत जम्मू से आगे जाने की नहीं हुई, इसलिए जिस जत्थे के साथ गए थे उसे उन्होंने जाने दिया और खुद जम्मू के एक होटल में पड़े रहे. इस इंजीनियर का कहना है कि घाटी के हालात देख मैं अपनी जान और सुरक्षा के प्रति आश्वस्त नहीं था. रास्ते में कभी भी बर्फ जम जाती है या हिंसा होने लगती है, इसलिए मुझे बेहतर लगा कि मैं वहां न जाऊं जहां सुरक्षा भगवान भी नहीं कर पाते. कुछ तीर्थयात्रियों के असमंजस सहज हैं और बरकरार हैं जो खर्च किए गए पैसे को निवेश मानते हैं पर गारंटेड रिटर्न नहीं मिलता तो तर्क करने लगे हैं. लेकिन सुधर नहीं रहे तो यह उस जाल की देन है जो सदियों से लोगों के दिलोदिमाग पर बुना जा रहा है.

क्या तीर्थयात्रा से मन्नतें पूरी हो जाती हैं, इस सवाल के जवाब में एक युवती निधि दुबे दोटूक कहती है कि नहीं होतीं. निधि मैडिकल कालेज में दाखिला चाहती थी और इस बाबत वह शिर्डी, तिरुपति और वैष्णोदेवी तक जा चुकी थी पर लगातार 3 साल तक प्रीमैडिकल टैस्ट देने के बाद भी चयन नहीं हुआ तो उसे तीर्थयात्रा की दुकानदारी समझ आने लगी है.

बात सिर्फ असमंजस या अधकचरी दलीलों की भी नहीं है, बल्कि उन अव्यवस्थाओं और परेशानियों को भोगने की भी है जिन का सामना तीर्थयात्रा के दौरान लोगों को होता है. बनारस, पुरी, इलाहाबाद, मथुरा या गया के पंडों की लूटपाट कभी किसी सुबूत की मुहताज नहीं रही. इन और दूसरे तीर्थस्थलों की गंदगी देख भी भक्तों का मन वितृष्णा से भरने लगता है.

अमरनाथ जाने वाले श्रद्धालु पूरे रास्ते सहमे रहते हैं कि जाने कब, क्या अनहोनी हो जाए यानी आस्था की जगह आशंका लेने लगी है जो जयभोले, और हरहर महादेव का मंत्र रटते रहने और जयकारा करते रहने से दूर नहीं हो जाती. हां, अस्थायी रूप से दब जरूर जाती है पिछले साल उज्जैन में हुए सिंहस्थ कुंभ के मेले में पसरी गंदगी देख भक्ति का भाव छू होने लगा था तो इस में गलती श्रद्धालुओं की ही थी जो दलालों के जरिए भगवान के बुलावे पर दौड़ तो जाते हैं लेकिन परेशानियों से समझौता नहीं कर पाते. हर तरफ भीड़ है, धक्कामुक्की है, भेदभाव है, लूटपाट है. नहीं है तो मन्नत पूरी होने की गारंटी जिस के लिए लोग पैसे लुटाते हैं.  

किसान आंदोलन : दलाली और भ्रष्टाचार के खिलाफ संकेत

वाकेआ 3 जून का मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड इलाके के सागर शहर का है. इस दिन लोकायुक्त पुलिस ने एक पटवारी आनंद खत्री को एक किसान शिवम ठाकुर से साढ़े

3 हजार रुपए की घूस लेते रंगेहाथों पकड़ा था. शिवम बहुत दिनों से अपने दादा प्रहलाद ठाकुर की जमीन के सीमांकन के लिए तहसील और इस पटवारी के चक्कर काट रहा था पर पटवारी बगैर घूस लिए काम करने को तैयार नहीं हो रहा था.

पुश्तैनी जमीन के सीमांकन के अपने हक के लिए क्यों घूस दें, यह सोचते नौजवान किसान शिवम ने रैवेन्यू इंस्पैक्टर से शिकायत की तो रैवेन्यू इंस्पैक्टर ने पटवारी को हिदायत दी कि वह बगैर घूस लिए सीमांकन करे पर पटवारी को नहीं मानना था, सो वह नहीं माना.

घूस दे कर काम करवाने का सीधा तरीका अपनाने के बजाय शिवम ने इस की शिकायत लोकायुक्त पुलिस से भी कर दी जिस से घूसखोर पटवारी रंगेहाथों धरा गया. पटवारी अपनी इस जिद पर अड़ा था कि घूस का जो रेट सीमांकन के लिए चल रहा है, वह उसी के मान से घूस लेगा यानी 7 एकड़ जमीन के 7 हजार रुपए. इस पर हैरानपरेशान शिवम ने वही किया जो एक जागरूक किसान को करना चाहिए.

यह वह वक्त था जब पूरा सूबा खासतौर से मालवा और निमाड़ इलाके किसान आंदोलन और उस से उपजी हिंसा की आग में झुलस रहे थे. किसानों के इस गुस्से का किसी पटवारी तो दूर, आला अफसरों और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान तक पर कोई असर नहीं पड़ रहा था. मुट्ठीभर किसान हैं, 2-4 दिन हल्ला मचा कर वापस अपने खेतखलिहानों में चले जाएंगे, यह सोचते किसी के कानों पर जूं नहीं रेंग रही थी. कम ही लोगों को अंदाजा था कि जो परेशानी शिवम ठाकुर उठा रहा था वैसी दर्जनों परेशानियां न केवल सूबे के बल्कि देशभर के तमाम किसानों को रोजाना उठानी पड़ती हैं.

अरसे से किसानों के दिलोदिमाग में जमा हो रही इस तरह की परेशानियां जब भड़ास बन कर निकलीं तो पूरा मध्य प्रदेश हाहाकार कर उठा. हल चलाने वाला किसान सीधे आरपार की लड़ाई लड़ने को हिंसा पर उतारू हो आया तो एकाएक ही हालात इतने बेकाबू होते दिखे कि इसे आंदोलन के बजाय क्रांति कहना ज्यादा ठीक लगने लगा.

महाराष्ट्र से मध्य प्रदेश

वह जून की पहली तारीख थी जब महाराष्ट्र के कुछ किसानों ने राज्य सरकार के खिलाफ आंदोलन की शुरुआत की. आंदोलनकारी किसानों ने धौंस यह दी थी कि सूबे में दूध, सब्जी व फल की सप्लाई ठप कर दी जाएगी. इन किसानों का एतराज कर्जमाफी में वादाखिलाफी और अपनी पैदावार के वाजिब दाम न मिलने का था.

महाराष्ट्र के सतारा, अहमदनगर और नासिक जिलों में हड़ताल का खासा असर रहा. वहां किसानों ने वाकई सड़कों पर आते दूध, फल और सब्जी वगैरा की सप्लाई नहीं होने दी. आम लोगों के लिए यह सिरदर्दी वाली बात थी क्योंकि एक दिन में ही इन रोजमर्राई चीजों के दाम आसमान छूने लगे थे.

इस से पहले 31 मई को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने किसान क्रांति जन आंदोलन कोर कमेटी के किसानों से मिल कर बातचीत की थी. किसान अपनी इस जिद पर अड़े रहे थे कि उन का कर्ज पूरी तरह माफ किया जाए. इस पर देवेंद्र फडणवीस ने एक पुरानी चाल, मांग को टरकाने की चली और किसानों से एक महीने की मोहलत मांगी.

किसानों को समझ आ गया कि आज भी राजनीति ही खेली जा रही है, इसलिए वे बातचीत अधूरी छोड़ आ गए और फिर देखते ही देखते आंदोलन महाराष्ट्र से मध्य प्रदेश में दाखिल हो गया. शुरू में मालवा और निमाड़ इलाके आंदोलन की गिरफ्त में ज्यादा रहे जहां पटेल, पाटीदार किसानों की भरमार है.

यहां दिचलस्पी वाली बात यह है कि इन इलाकों में पटेलपाटीदारों के पढ़ेलिखे नौजवान ज्यादा खेतीकिसानी और उस से जुड़े दूसरे कारोबार कर रहे हैं. ये लोग खासे पैसे वाले हैं और खेती से हुई कमाई का इस्तेमाल अपने शौक पूरे करने में भी करते हैं.

किसानों ने इंदौर, उज्जैन, रतलाम, नीमच और मंदसौर जिलों में चक्काजाम किया और जरूरी चीजों की सप्लाई ठप कर दी. पूरे सूबे में दूध और सब्जियों के दाम एकाएक ही बढ़ गए. जिस का दबाव सरकार पर भी पड़ा.

अब तक किसी को अंदाजा नहीं था कि किसान क्या सोच रहे हैं और आगे क्या करेंगे, अपना विरोध जताने किसानों ने आगजनी, चक्काजाम और तोड़फोड़ की वारदातों को अंजाम दिया तो इसे सरकार और उस के अफसरों ने बेहद हलके में लिया. बस, बात यहीं से बिगड़ी. कुछ आलाअफसरों की धुनाई भी किसानों ने कर दी थी.

6 जून को मंदसौर में प्रदर्शन कर रहे किसानों को रोकने या काबू करने के लिए पुलिस ने सब से आसान और पुराना तरीका फायरिंग का अपनाया. इस दिन मंदसौर में पुलिस वालों और किसानों के बीच जम कर मारपीट हुई थी. गुस्साए पुलिस वालों ने हालात काबू करने आई सीआरपीएफ की टीम की मदद से गोलियां चलाईं तो 6 किसान मारे गए.

अन्नदाताओं के पुलिस फायरिंग में मरने के बाद मचे हल्ले से नेताओं और अफसरों को होश आया पर तब तक काफीकुछ ऐसा हो चुका था जो नहीं होना चाहिए था. तुरंत कर्फ्यू लग गया और इंटरनैट वगैरा मंदसौर, नीमच व रतलाम में बंद कर दिए गए.

बिगड़ी इमेज किसानपुत्र की

मंदसौर में पुलिस प्रशासन ने किसानों के साथ जो बदसलूकी की, वह सोशल मीडिया पर भी वायरल हुई कि किसानों से निबटने के लिए जो भी तरीका कारगर लगे, अपनाने में हिचको मत.

इधर जब कारवां गुजर गया तब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह सकते में आ गए कि यह क्या हो गया. मंदसौर हादसे ने उन की 13 साल पुरानी कुरसी के पाए हिला डाले. पहले तो झल्लाए शिवराज सिंह चौहान ने पानी पीपी कर कांग्रेस को कोसा, फिर कहा कि किसान तो हिंसक हो ही नहीं सकता, यह जरूर असामाजिक लोगों की करतूत है.

सोशल मीडिया पर शिवराज सिंह की जम कर खिंचाई हुई और मीडिया भी उन के राजकाज व कामकाज के तरीकों पर सवाल उठाने लगा. पहली दफा लोगों को पता चला कि शिवराज सिंह किसानपुत्र नहीं, बल्कि शिक्षकपुत्र हैं और विदिशा के गांव बैस टीला पर उन की जो 12 एकड़ जमीन थी, वह 12 साल में बढ़ कर 1,200 एकड़ हो गई है.

इन झूठ और सचों से दूर कहा यह भी गया कि जिस किसान के दम पर राज्य सरकार ने केंद्र सरकार का लगातार 5 दफा कृषि कर्मण अवार्ड जीता, आज उसी पर गोलियां क्यों बरसाई जा रही हैं.

कांग्रेस ने भी मौका ताड़ते मंदसौर हादसे पर शिवराज सिंह को आड़े हाथ लिया कि वे किसानप्रेम का झूठा राग अलापते रहते हैं और विदिशा में अपने खेतों की फसल को सरकारी हैलीकौप्टर से देखने जाते हैं. वे तो एक रईस किसान हैं जो आम किसानों का दुखदर्द नहीं समझते.

शिवराज सिंह चौहान का यह सोचना बेहद हलका साबित हुआ कि ठीकरा कांग्रेस के सिर फोड़ दो तो बात बन जाएगी. दूसरा गलत फैसला उन्होंने मृत हुए किसानों को एकएक करोड़ रुपए का मुआवजा देने का लिया. पहले मरे किसानों के घर वालों को 5-5 लाख रुपए देने का ऐलान किया गया था, फिर यह राशि 1-1 करोड़ रुपए कर दी गई. इस से साफ साबित हुआ कि वे हमदर्दी तक खरीदना चाह रहे हैं. कल तक जो किसान असामाजिक तत्त्व नजर आ रहे थे, उन्हें इतना भारीभरकम मुआवजा देना भी उन्हें कठघरे में खड़ा कर गया.

सरकार की नाकामी

इधर, प्रधानमंत्री कार्यालय ने भी मंदसौर हादसे की रिपोर्ट मांगी तो सूबे का सियासी पारा प्री मानसून के बादल चीर कर बाहर आ गया. ये चर्चाएं भी चौराहों पर होने लगीं कि उन की विदाई की जा सकती है क्योंकि वे किसान आंदोलन से निबटने या उसे संभालने में नाकाम रहे हैं.

इन सब कयासों के बीच कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी बेहद ड्रामाई अंदाज में राजस्थान के रास्ते मध्य प्रदेश में मोटरसाइकिल के जरिए दाखिल हुए तो नजारा देखने काबिल था. राहुल गांधी सहित वरिष्ठ कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह और कमलनाथ वगैरा भी गिरफ्तार कर लिए गए.

मंदसौर में राहुल गांधी ने शिवराज सिंह चौहान से ज्यादा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर यह कहते निशाना साधा कि वे रईस उद्योगपतियों का अरबों रुपयों का कर्ज माफ कर देते हैं पर किसानों को न तो बोनस देते, न ही कर्ज माफ करते. वे किसानों को तो गोलियां देते हैं.

मौका ताड़ते ही भाजपा का शिवराज विरोधी गुट भी अपनी ही पार्टी की छीछालेदर कराने से नहीं चूका. पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर का यह बयान सुर्खियों में रहा कि कांग्रेस तो आंदोलन में कहीं थी ही नहीं, यानी यह सरकार की नाकामी का नतीजा था.

जब पोलें खुलने लगीं और तरहतरह की बातें होने लगीं तो बात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तक पहुंची जिस ने शिवराज सिंह के कामकाज करने के तरीके पर बजाय कुछ बोलने के, दूसरे सूबों के हालात का जायजा लेना शुरू कर दिया कि किसान आंदोलन अब राजस्थान, गुजरात और छत्तीसगढ़ सहित उत्तर प्रदेश तक में अपनी धमक दिखा रहा है. पहले इसे रोकने के जतन किए जाएं.

आरएसएस की चुप्पी जब टूटेगी तब टूटेगी पर यह बात किसी सुबूत की मुहताज नहीं रह गई कि एक झटके में भाजपा और शिवराज सिंह की इमेज बिगड़ चुकी है. सूबे के लोगों का भरोसा उन पर से उठ रहा है. नर्मदा परिक्रमा यात्रा और पूजापाठ के एवज में उन्हें नर्मदा मैया ने बजाय वरदान के, श्राप दे दिया है. बारबार अपील करने पर भी किसानों का गुस्सा शांत नहीं हुआ तो वे 10 जून को भोपाल के दशहरा मैदान पर उपवास पर बैठ गए.

गुस्साए किसानों ने जगहजगह अपनी पैदावार फेंकी और सरकार के खिलाफ विरोधप्रदर्शन किए. यह साफ हो चुका है कि इस किसान आंदोलन के पीछे कोई नेता, संगठन या सियासी दल नहीं है. यह दरअसल शोषण और भ्रष्टाचार से तंग आ चुके किसानों का गुस्सा है जिसे अब बातों और वादों के लौलीपौप से नहीं बहलाया जा सकता.

राहुल गांधी के मंदसौर आने का मकसद माहौल और किसानों के गुस्से को कांग्रेस के पाले में लाने की कोशिश थी जो वोटों में तबदील हुई या नहीं, इस के लिए विधानसभा चुनाव तक इंतजार करना पड़ेगा. पर इस हादसे से सूबे में वजूद की लड़ाई लड़ रही कांग्रेस को संजीवनी बूटी जरूर मिल गई है. अब भी अगर वह किसान आंदोलन को वोटों में तबदील नहीं कर पाती है तो फिर उस का बेड़ागर्क होना तय है.

आमलोग और जानकार माहिर भी इस नतीजे पर पहुंचने से खुद को रोक नहीं पाए कि किसान आंदोलन को भाजपा के कुछ असंतुष्टों ने हवा दी थी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शिवराज सिंह चौहान से छुटकारा पाना चाहते हैं क्योंकि वे उन के लिए बड़ा खतरा हैं.

आंदोलन का सच

सियासी बातों का कोई सिरपैर नहीं होता जिस के हल्ले के चलते मुद्दे की बात दबती गई कि आखिर क्यों किसानों को इतना गुस्सा आया कि वे हिंसा, आगजनी और चक्काजाम पर उतारू हो आए थे. एक अहम बात यह भी आंकी गई कि भाजपा ने महज वोटों के लिए किसानों के दिलों में जरूरत से ज्यादा उम्मीदें जगा दी थीं जो पूरी नहीं हुईं तो किसान बौरा उठा.

किसान आंदोलन का एक बड़ा सच यह है कि महाराष्ट्र या मध्य प्रदेश का ही नहीं, बल्कि देशभर का किसान बदहाल है. गांवों, कसबों और देहातों का माहौल तेजी से बदल रहा है. खेतीकिसानी की बागडोर पढ़ेलिखे जागरूक नौजवानों के हाथों में आ गई है जो इंटरनैट और कंप्यूटर इस्तेमाल करते हैं. इस जागरूक पीढ़ी को पुलिस के डंडे और गोलियों से दबाया नहीं जा सकता.

गांवों में ऊंची जाति वाले गिनेचुने लोग ही बचे हैं और बड़ी तादाद में गरीब, दलित, किसान भी गांवों से भाग कर रोजगार की तलाश में शहरों में बसते जा रहे हैं. ऐसे में गांवों की सत्ता पिछड़े तबके के किसानों के हाथों में आ गई है जिस के पास खासा पैसा है. वे अपनी बात कहने या मांगें मंगवाने में किसी संगठन या राजनीतिक पार्टी के मुहताज नहीं हैं. वे दोटूक बात करना चाहते हैं.

शोषण के शिकार किसान

इन किसानों ने देखा यह कि 4 महीने से भी ज्यादा चली नमामि देवी नर्मदा यात्रा के दौरान करोड़ों रुपए फूंकने वाले शिवराज सिंह चौहान जगहजगह पूजा, हवन और आरती करते रहे. जिन साधुसंतों ने कभी खेती नहीं की या पसीने की रोटी नहीं खाई, उन के पैर अन्नदाताओं से पकड़वाए गए. इस से उन्हें क्या मिला.

नीमच के एक युवा किसान जगदीश पाटीदार की मानें तो इस से शिवराज सिंह चौहान की इमेज बिगड़ी है. नमामि देवी नर्मदे यात्रा से किसानों का कोई फायदा नहीं हुआ है, न ही पूजापाठ से कभी होगा. फिर इस और ऐसे धार्मिक ड्रामेबाजों की जरूरत क्या है?

इस नौजवान किसान के मुताबिक, हो यह रहा था कि किसानों के भले का राग एहसान की तरह सरकारी विज्ञापनों के जरिए गाया जा रहा था. खुशहाल किसान अब सरकारी विज्ञापनों में ही बचा है जबकि हकीकत एकदम उलट है. किसान का हर स्तर पर शोषण हो रहा है और शिवराज सिंह चौहान जैसे नेता सच को सरकारी पैसों के प्रचार के दम पर झुठलाने का दोगलापन करते रहे हैं. इसलिए किसान आंदोलन मध्य प्रदेश में ज्यादा हिंसक हुआ.

गुस्से के पीछे छिपा दर्द

किसान आंदोलन और हिंसा कोई नई बात नहीं है. जब भी पानी सिर से गुजरने लगता है तब किसानों के सामने सड़क पर आने के अलावा कोई और रास्ता रह भी नहीं जाता. पर इस बार उस का अंदाज और मिजाज कुछ हट कर था. इस पर बारीकी से गौर करें तो यह कुछकुछ हरियाणा के जाट और गुजरात के पाटीदार आंदोलनों से मिलताजुलता हुआ था. फर्क इतना भर था कि इस में जातिगत आरक्षण की मांग नहीं थी.

इस आंदोलन की एक अहम बात यह थी कि अपनी मंशा की भनक किसानों ने प्रशासन या सरकार को नहीं लगने दी. गुस्साए किसानों ने अपनी करोड़ों की पैदावार फेंक कर खुद का तो नुकसान किया ही, सरकारी और जनता की जायदाद को भी नहीं बख्शा. मंदसौर गोलीकांड के बाद इंदौर के नजदीक देवास में आंदोलनकारियों ने 4 लग्जरी बसें फूंकी और रेल की पटरियां भी उखाड़ीं.

मंदसौर गोलीकांड में मारे गए एक युवा किसान अभिषेक पाटीदार के घर सरकारी हमदर्दी जताने गए कलैक्टर स्वतंत्र कुमार जैन के साथ किसानों ने बदसलूकी करते उन के कपड़े फाड़ दिए. इस से साबित हो गया कि उन्हें हमदर्दी नहीं, इंसाफ चाहिए था. दूसरे कुछ अफसरों के साथ भी किसानों ने इसी तरह की बदसलूकियां की.

8 जून को शाजापुर के एसडीएम राजेश यादव के साथ वाहन रैली निकाल रहे पाटीदार समाज के नौजवानों ने खूब मारपीट की और उन का पैर तोड़ डाला. ये लोग समर्थन मूल्य पर प्याज नहीं बिकने देना चाह रहे थे.

ऐसा सिर्फ इसलिए कि किसान को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का यह जुमला बारबार याद आ रहा था कि जल्द ही खेती को लाभ का धंधा बनाएंगे. आंदोलन के दौरान ही किसान इस बात पर भी झींकते नजर आए कि जब लागत ही नहीं निकल पाती तो खेती को सरकार लाभ का धंधा कैसे बनाएगी. यह बात कई मंचों से बारबार दोहराई गई थी.

दूसरी परेशानी किसानों की यह थी और है भी कि उसे वाकई पैदावार के वाजिब दाम नहीं मिलते. तमाम मंडियां व्यापारियों, दलालों और आढ़तियों के कब्जे में हैं, जहां कदमकदम पर कमीशन देना पड़ता है और इस के बाद भी भुगतान का भरोसा नहीं रहता.

कर्ज की मार

कर्जमाफी का झुनझुना केंद्र और राज्य सरकारें दोनों बराबरी से किसानों को देती रही हैं पर जब इस पर अमल करने की मांग उन्होंने उठाई तो देवेंद्र फडणवीस तो साफ मुकर गए और शिवराज सिंह चौहान खामोश रहे. हालांकि गोलीकांड में मारे गए किसानों का दाहसंस्कार हो जाने के बाद उन्होंने किसानों के हित में कुछ ऐलान किए पर किसानों ने न तो उन की बातों पर ध्यान दिया और न ही भरोसा किया.

इसी दौरान यह बात उजागर हुई कि सूबे के 35 लाख से भी ज्यादा किसानों पर 20 हजार करोड़ रुपए का कर्ज बाकी है. इन में से 6 लाख किसान तो 5 वर्षों से ब्याज तक नहीं चुका पाए हैं. उन्हें दिवालिया घोषित किया जा चुका है.

खाली हाथ किसान

हिंसा के दौरान एक मशवरा यह भी चर्चा में आया कि राज्य सरकार हालात देखते पूरी तरह कर्जमाफी की घोषणा कर सकती है पर मजेदार बात रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल का यह बयान रहा कि अगर पूरी तरह कर्ज माफ किया गया तो इस से महंगाई बढ़ेगी. गौरतलब है कि देशभर के किसानों पर 12 लाख 60 हजार करोड़ रुपए से भी ज्यादा राशि का कर्ज है.

सालभर में देश के 12 हजार किसान खुदकुशी करते हैं, यह बात केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को एक सवाल के जवाब में बताई थी लेकिन हकीकत में यह तादाद कहीं ज्यादा है. किसान आत्महत्याओं को ले कर आएदिन सवालजवाब होते रहते हैं पर कोई सरकार किसानों की गरीबी या बदहाली दूर नहीं कर पाती.

इस पर भी दिक्कत यह है कि फसलों की पैदावार कम हो या ज्यादा, दोनों ही हालात में नुकसान किसान का ही होता है. उलट इस के, सरकार अपनी उपलब्धियों के आंकड़े इस तरह गिनाती है जैसे उस ने किसानों की जेब में खूब सारा पैसा ठूंस दिया हो. हकीकत यह है कि सरकारी मदद का बड़ा हिस्सा कमीशनबाज और मुलाजिम डकार जाते हैं.

इसे आसान तरीके से आंदोलन के दौरान सब्जी और फलों के बढ़े भावों से समझा जा सकता है. भोपाल की मंडी में किसानों को सब्जियों के वही दाम मिले जो पहले से मिल रहे थे. अगर कोई सब्जी मंडी में 20 रुपए किलो तुली तो उस के दाम आम लोगों को 40 के बजाय 80 रुपए किलो तक देना पड़े.

ये 40 रुपए दलालों, आढ़तियों और कमीशनखोरों की जेब में गए. किसान को कुछ नहीं मिला. यही हाल सालभर रहता है. ऐसे में किसान की भड़ास निकलना कुदरती बात है. यह और बात है कि वह गलत तरीके से निकली लेकिन गौर करने लायक बात यह भी है कि किसान अगर कैंडल मार्च जैसा शांतिभरा तरीका अपनाता तो क्या उस की बात सुनी जाती? शायद नहीं.

सरकारी महकमों से किसान का रोजरोज वास्ता पड़ता है. वहां भी कदमकदम पर घूसखोर बैठे हैं. थाने में रिपोर्ट लिखाने जाओ तो घूस, तहसील में पेशी पर जाओ तो घूस, अदालत में मुकदमे की तारीख लो तो घूस, सरकारी अस्पताल में इलाज कराने जाओ तो घूस, खेतीकिसानी महकमे से इमदाद या दूसरे मुफ्त के सामान लो तो भी घूस और पटवारी के पास नामांतरण व सीमांकन के लिए जाओ तो भी घूस देनी पड़ती है.  कदमकदम पर सागर के आनंद खत्री जैसे पटवारी बैठे हैं जो घूस लेते रंगेहाथों पकड़े जाएं तो भी उन का कुछ नहीं बिगड़ता. उलट इस के, शिवम ठाकुर जैसे किसान अगर वाजिब और जायज काम के लिए भी घूस न दें तो उन के तलवे घिस जाते हैं.

ऐसे में यह गुस्सा फट पड़ा तो बात कतई हैरानी की नहीं. देखना दिलचस्प होगा कि इस भड़ास का खात्मा कहां होगा और क्या यह दलाली, भ्रष्टाचार व कमीशनखोरी पर अंकुश लगा पाएगा.       वाकेआ 3 जून का मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड इलाके के सागर शहर का है. इस दिन लोकायुक्त पुलिस ने एक पटवारी आनंद खत्री को एक किसान शिवम ठाकुर से साढ़े

3 हजार रुपए की घूस लेते रंगेहाथों पकड़ा था. शिवम बहुत दिनों से अपने दादा प्रहलाद ठाकुर की जमीन के सीमांकन के लिए तहसील और इस पटवारी के चक्कर काट रहा था पर पटवारी बगैर घूस लिए काम करने को तैयार नहीं हो रहा था.

पुश्तैनी जमीन के सीमांकन के अपने हक के लिए क्यों घूस दें, यह सोचते नौजवान किसान शिवम ने रैवेन्यू इंस्पैक्टर से शिकायत की तो रैवेन्यू इंस्पैक्टर ने पटवारी को हिदायत दी कि वह बगैर घूस लिए सीमांकन करे पर पटवारी को नहीं मानना था, सो वह नहीं माना.

घूस दे कर काम करवाने का सीधा तरीका अपनाने के बजाय शिवम ने इस की शिकायत लोकायुक्त पुलिस से भी कर दी जिस से घूसखोर पटवारी रंगेहाथों धरा गया. पटवारी अपनी इस जिद पर अड़ा था कि घूस का जो रेट सीमांकन के लिए चल रहा है, वह उसी के मान से घूस लेगा यानी 7 एकड़ जमीन के 7 हजार रुपए. इस पर हैरानपरेशान शिवम ने वही किया जो एक जागरूक किसान को करना चाहिए.

यह वह वक्त था जब पूरा सूबा खासतौर से मालवा और निमाड़ इलाके किसान आंदोलन और उस से उपजी हिंसा की आग में झुलस रहे थे. किसानों के इस गुस्से का किसी पटवारी तो दूर, आला अफसरों और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान तक पर कोई असर नहीं पड़ रहा था. मुट्ठीभर किसान हैं, 2-4 दिन हल्ला मचा कर वापस अपने खेतखलिहानों में चले जाएंगे, यह सोचते किसी के कानों पर जूं नहीं रेंग रही थी. कम ही लोगों को अंदाजा था कि जो परेशानी शिवम ठाकुर उठा रहा था वैसी दर्जनों परेशानियां न केवल सूबे के बल्कि देशभर के तमाम किसानों को रोजाना उठानी पड़ती हैं.

अरसे से किसानों के दिलोदिमाग में जमा हो रही इस तरह की परेशानियां जब भड़ास बन कर निकलीं तो पूरा मध्य प्रदेश हाहाकार कर उठा. हल चलाने वाला किसान सीधे आरपार की लड़ाई लड़ने को हिंसा पर उतारू हो आया तो एकाएक ही हालात इतने बेकाबू होते दिखे कि इसे आंदोलन के बजाय क्रांति कहना ज्यादा ठीक लगने लगा.

महाराष्ट्र से मध्य प्रदेश

वह जून की पहली तारीख थी जब महाराष्ट्र के कुछ किसानों ने राज्य सरकार के खिलाफ आंदोलन की शुरुआत की. आंदोलनकारी किसानों ने धौंस यह दी थी कि सूबे में दूध, सब्जी व फल की सप्लाई ठप कर दी जाएगी. इन किसानों का एतराज कर्जमाफी में वादाखिलाफी और अपनी पैदावार के वाजिब दाम न मिलने का था.

महाराष्ट्र के सतारा, अहमदनगर और नासिक जिलों में हड़ताल का खासा असर रहा. वहां किसानों ने वाकई सड़कों पर आते दूध, फल और सब्जी वगैरा की सप्लाई नहीं होने दी. आम लोगों के लिए यह सिरदर्दी वाली बात थी क्योंकि एक दिन में ही इन रोजमर्राई चीजों के दाम आसमान छूने लगे थे.

इस से पहले 31 मई को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने किसान क्रांति जन आंदोलन कोर कमेटी के किसानों से मिल कर बातचीत की थी. किसान अपनी इस जिद पर अड़े रहे थे कि उन का कर्ज पूरी तरह माफ किया जाए. इस पर देवेंद्र फडणवीस ने एक पुरानी चाल, मांग को टरकाने की चली और किसानों से एक महीने की मोहलत मांगी.

किसानों को समझ आ गया कि आज भी राजनीति ही खेली जा रही है, इसलिए वे बातचीत अधूरी छोड़ आ गए और फिर देखते ही देखते आंदोलन महाराष्ट्र से मध्य प्रदेश में दाखिल हो गया. शुरू में मालवा और निमाड़ इलाके आंदोलन की गिरफ्त में ज्यादा रहे जहां पटेल, पाटीदार किसानों की भरमार है.

यहां दिचलस्पी वाली बात यह है कि इन इलाकों में पटेलपाटीदारों के पढ़ेलिखे नौजवान ज्यादा खेतीकिसानी और उस से जुड़े दूसरे कारोबार कर रहे हैं. ये लोग खासे पैसे वाले हैं और खेती से हुई कमाई का इस्तेमाल अपने शौक पूरे करने में भी करते हैं.

किसानों ने इंदौर, उज्जैन, रतलाम, नीमच और मंदसौर जिलों में चक्काजाम किया और जरूरी चीजों की सप्लाई ठप कर दी. पूरे सूबे में दूध और सब्जियों के दाम एकाएक ही बढ़ गए. जिस का दबाव सरकार पर भी पड़ा.

अब तक किसी को अंदाजा नहीं था कि किसान क्या सोच रहे हैं और आगे क्या करेंगे, अपना विरोध जताने किसानों ने आगजनी, चक्काजाम और तोड़फोड़ की वारदातों को अंजाम दिया तो इसे सरकार और उस के अफसरों ने बेहद हलके में लिया. बस, बात यहीं से बिगड़ी. कुछ आलाअफसरों की धुनाई भी किसानों ने कर दी थी.

6 जून को मंदसौर में प्रदर्शन कर रहे किसानों को रोकने या काबू करने के लिए पुलिस ने सब से आसान और पुराना तरीका फायरिंग का अपनाया. इस दिन मंदसौर में पुलिस वालों और किसानों के बीच जम कर मारपीट हुई थी. गुस्साए पुलिस वालों ने हालात काबू करने आई सीआरपीएफ की टीम की मदद से गोलियां चलाईं तो 6 किसान मारे गए.

अन्नदाताओं के पुलिस फायरिंग में मरने के बाद मचे हल्ले से नेताओं और अफसरों को होश आया पर तब तक काफीकुछ ऐसा हो चुका था जो नहीं होना चाहिए था. तुरंत कर्फ्यू लग गया और इंटरनैट वगैरा मंदसौर, नीमच व रतलाम में बंद कर दिए गए.

बिगड़ी इमेज किसानपुत्र की

मंदसौर में पुलिस प्रशासन ने किसानों के साथ जो बदसलूकी की, वह सोशल मीडिया पर भी वायरल हुई कि किसानों से निबटने के लिए जो भी तरीका कारगर लगे, अपनाने में हिचको मत.

इधर जब कारवां गुजर गया तब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह सकते में आ गए कि यह क्या हो गया. मंदसौर हादसे ने उन की 13 साल पुरानी कुरसी के पाए हिला डाले. पहले तो झल्लाए शिवराज सिंह चौहान ने पानी पीपी कर कांग्रेस को कोसा, फिर कहा कि किसान तो हिंसक हो ही नहीं सकता, यह जरूर असामाजिक लोगों की करतूत है.

सोशल मीडिया पर शिवराज सिंह की जम कर खिंचाई हुई और मीडिया भी उन के राजकाज व कामकाज के तरीकों पर सवाल उठाने लगा. पहली दफा लोगों को पता चला कि शिवराज सिंह किसानपुत्र नहीं, बल्कि शिक्षकपुत्र हैं और विदिशा के गांव बैस टीला पर उन की जो 12 एकड़ जमीन थी, वह 12 साल में बढ़ कर 1,200 एकड़ हो गई है.

इन झूठ और सचों से दूर कहा यह भी गया कि जिस किसान के दम पर राज्य सरकार ने केंद्र सरकार का लगातार 5 दफा कृषि कर्मण अवार्ड जीता, आज उसी पर गोलियां क्यों बरसाई जा रही हैं.

कांग्रेस ने भी मौका ताड़ते मंदसौर हादसे पर शिवराज सिंह को आड़े हाथ लिया कि वे किसानप्रेम का झूठा राग अलापते रहते हैं और विदिशा में अपने खेतों की फसल को सरकारी हैलीकौप्टर से देखने जाते हैं. वे तो एक रईस किसान हैं जो आम किसानों का दुखदर्द नहीं समझते.

शिवराज सिंह चौहान का यह सोचना बेहद हलका साबित हुआ कि ठीकरा कांग्रेस के सिर फोड़ दो तो बात बन जाएगी. दूसरा गलत फैसला उन्होंने मृत हुए किसानों को एकएक करोड़ रुपए का मुआवजा देने का लिया. पहले मरे किसानों के घर वालों को 5-5 लाख रुपए देने का ऐलान किया गया था, फिर यह राशि 1-1 करोड़ रुपए कर दी गई. इस से साफ साबित हुआ कि वे हमदर्दी तक खरीदना चाह रहे हैं. कल तक जो किसान असामाजिक तत्त्व नजर आ रहे थे, उन्हें इतना भारीभरकम मुआवजा देना भी उन्हें कठघरे में खड़ा कर गया.

सरकार की नाकामी

इधर, प्रधानमंत्री कार्यालय ने भी मंदसौर हादसे की रिपोर्ट मांगी तो सूबे का सियासी पारा प्री मानसून के बादल चीर कर बाहर आ गया. ये चर्चाएं भी चौराहों पर होने लगीं कि उन की विदाई की जा सकती है क्योंकि वे किसान आंदोलन से निबटने या उसे संभालने में नाकाम रहे हैं.

इन सब कयासों के बीच कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी बेहद ड्रामाई अंदाज में राजस्थान के रास्ते मध्य प्रदेश में मोटरसाइकिल के जरिए दाखिल हुए तो नजारा देखने काबिल था. राहुल गांधी सहित वरिष्ठ कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह और कमलनाथ वगैरा भी गिरफ्तार कर लिए गए.

मंदसौर में राहुल गांधी ने शिवराज सिंह चौहान से ज्यादा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर यह कहते निशाना साधा कि वे रईस उद्योगपतियों का अरबों रुपयों का कर्ज माफ कर देते हैं पर किसानों को न तो बोनस देते, न ही कर्ज माफ करते. वे किसानों को तो गोलियां देते हैं.

मौका ताड़ते ही भाजपा का शिवराज विरोधी गुट भी अपनी ही पार्टी की छीछालेदर कराने से नहीं चूका. पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर का यह बयान सुर्खियों में रहा कि कांग्रेस तो आंदोलन में कहीं थी ही नहीं, यानी यह सरकार की नाकामी का नतीजा था.

जब पोलें खुलने लगीं और तरहतरह की बातें होने लगीं तो बात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तक पहुंची जिस ने शिवराज सिंह के कामकाज करने के तरीके पर बजाय कुछ बोलने के, दूसरे सूबों के हालात का जायजा लेना शुरू कर दिया कि किसान आंदोलन अब राजस्थान, गुजरात और छत्तीसगढ़ सहित उत्तर प्रदेश तक में अपनी धमक दिखा रहा है. पहले इसे रोकने के जतन किए जाएं.

आरएसएस की चुप्पी जब टूटेगी तब टूटेगी पर यह बात किसी सुबूत की मुहताज नहीं रह गई कि एक झटके में भाजपा और शिवराज सिंह की इमेज बिगड़ चुकी है. सूबे के लोगों का भरोसा उन पर से उठ रहा है. नर्मदा परिक्रमा यात्रा और पूजापाठ के एवज में उन्हें नर्मदा मैया ने बजाय वरदान के, श्राप दे दिया है. बारबार अपील करने पर भी किसानों का गुस्सा शांत नहीं हुआ तो वे 10 जून को भोपाल के दशहरा मैदान पर उपवास पर बैठ गए.

गुस्साए किसानों ने जगहजगह अपनी पैदावार फेंकी और सरकार के खिलाफ विरोधप्रदर्शन किए. यह साफ हो चुका है कि इस किसान आंदोलन के पीछे कोई नेता, संगठन या सियासी दल नहीं है. यह दरअसल शोषण और भ्रष्टाचार से तंग आ चुके किसानों का गुस्सा है जिसे अब बातों और वादों के लौलीपौप से नहीं बहलाया जा सकता.

राहुल गांधी के मंदसौर आने का मकसद माहौल और किसानों के गुस्से को कांग्रेस के पाले में लाने की कोशिश थी जो वोटों में तबदील हुई या नहीं, इस के लिए विधानसभा चुनाव तक इंतजार करना पड़ेगा. पर इस हादसे से सूबे में वजूद की लड़ाई लड़ रही कांग्रेस को संजीवनी बूटी जरूर मिल गई है. अब भी अगर वह किसान आंदोलन को वोटों में तबदील नहीं कर पाती है तो फिर उस का बेड़ागर्क होना तय है.

आमलोग और जानकार माहिर भी इस नतीजे पर पहुंचने से खुद को रोक नहीं पाए कि किसान आंदोलन को भाजपा के कुछ असंतुष्टों ने हवा दी थी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शिवराज सिंह चौहान से छुटकारा पाना चाहते हैं क्योंकि वे उन के लिए बड़ा खतरा हैं.

आंदोलन का सच

सियासी बातों का कोई सिरपैर नहीं होता जिस के हल्ले के चलते मुद्दे की बात दबती गई कि आखिर क्यों किसानों को इतना गुस्सा आया कि वे हिंसा, आगजनी और चक्काजाम पर उतारू हो आए थे. एक अहम बात यह भी आंकी गई कि भाजपा ने महज वोटों के लिए किसानों के दिलों में जरूरत से ज्यादा उम्मीदें जगा दी थीं जो पूरी नहीं हुईं तो किसान बौरा उठा.

किसान आंदोलन का एक बड़ा सच यह है कि महाराष्ट्र या मध्य प्रदेश का ही नहीं, बल्कि देशभर का किसान बदहाल है. गांवों, कसबों और देहातों का माहौल तेजी से बदल रहा है. खेतीकिसानी की बागडोर पढ़ेलिखे जागरूक नौजवानों के हाथों में आ गई है जो इंटरनैट और कंप्यूटर इस्तेमाल करते हैं. इस जागरूक पीढ़ी को पुलिस के डंडे और गोलियों से दबाया नहीं जा सकता.

गांवों में ऊंची जाति वाले गिनेचुने लोग ही बचे हैं और बड़ी तादाद में गरीब, दलित, किसान भी गांवों से भाग कर रोजगार की तलाश में शहरों में बसते जा रहे हैं. ऐसे में गांवों की सत्ता पिछड़े तबके के किसानों के हाथों में आ गई है जिस के पास खासा पैसा है. वे अपनी बात कहने या मांगें मंगवाने में किसी संगठन या राजनीतिक पार्टी के मुहताज नहीं हैं. वे दोटूक बात करना चाहते हैं.

शोषण के शिकार किसान

इन किसानों ने देखा यह कि 4 महीने से भी ज्यादा चली नमामि देवी नर्मदा यात्रा के दौरान करोड़ों रुपए फूंकने वाले शिवराज सिंह चौहान जगहजगह पूजा, हवन और आरती करते रहे. जिन साधुसंतों ने कभी खेती नहीं की या पसीने की रोटी नहीं खाई, उन के पैर अन्नदाताओं से पकड़वाए गए. इस से उन्हें क्या मिला.

नीमच के एक युवा किसान जगदीश पाटीदार की मानें तो इस से शिवराज सिंह चौहान की इमेज बिगड़ी है. नमामि देवी नर्मदे यात्रा से किसानों का कोई फायदा नहीं हुआ है, न ही पूजापाठ से कभी होगा. फिर इस और ऐसे धार्मिक ड्रामेबाजों की जरूरत क्या है?

इस नौजवान किसान के मुताबिक, हो यह रहा था कि किसानों के भले का राग एहसान की तरह सरकारी विज्ञापनों के जरिए गाया जा रहा था. खुशहाल किसान अब सरकारी विज्ञापनों में ही बचा है जबकि हकीकत एकदम उलट है. किसान का हर स्तर पर शोषण हो रहा है और शिवराज सिंह चौहान जैसे नेता सच को सरकारी पैसों के प्रचार के दम पर झुठलाने का दोगलापन करते रहे हैं. इसलिए किसान आंदोलन मध्य प्रदेश में ज्यादा हिंसक हुआ.

गुस्से के पीछे छिपा दर्द

किसान आंदोलन और हिंसा कोई नई बात नहीं है. जब भी पानी सिर से गुजरने लगता है तब किसानों के सामने सड़क पर आने के अलावा कोई और रास्ता रह भी नहीं जाता. पर इस बार उस का अंदाज और मिजाज कुछ हट कर था. इस पर बारीकी से गौर करें तो यह कुछकुछ हरियाणा के जाट और गुजरात के पाटीदार आंदोलनों से मिलताजुलता हुआ था. फर्क इतना भर था कि इस में जातिगत आरक्षण की मांग नहीं थी.

इस आंदोलन की एक अहम बात यह थी कि अपनी मंशा की भनक किसानों ने प्रशासन या सरकार को नहीं लगने दी. गुस्साए किसानों ने अपनी करोड़ों की पैदावार फेंक कर खुद का तो नुकसान किया ही, सरकारी और जनता की जायदाद को भी नहीं बख्शा. मंदसौर गोलीकांड के बाद इंदौर के नजदीक देवास में आंदोलनकारियों ने 4 लग्जरी बसें फूंकी और रेल की पटरियां भी उखाड़ीं.

मंदसौर गोलीकांड में मारे गए एक युवा किसान अभिषेक पाटीदार के घर सरकारी हमदर्दी जताने गए कलैक्टर स्वतंत्र कुमार जैन के साथ किसानों ने बदसलूकी करते उन के कपड़े फाड़ दिए. इस से साबित हो गया कि उन्हें हमदर्दी नहीं, इंसाफ चाहिए था. दूसरे कुछ अफसरों के साथ भी किसानों ने इसी तरह की बदसलूकियां की.

8 जून को शाजापुर के एसडीएम राजेश यादव के साथ वाहन रैली निकाल रहे पाटीदार समाज के नौजवानों ने खूब मारपीट की और उन का पैर तोड़ डाला. ये लोग समर्थन मूल्य पर प्याज नहीं बिकने देना चाह रहे थे.

ऐसा सिर्फ इसलिए कि किसान को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का यह जुमला बारबार याद आ रहा था कि जल्द ही खेती को लाभ का धंधा बनाएंगे. आंदोलन के दौरान ही किसान इस बात पर भी झींकते नजर आए कि जब लागत ही नहीं निकल पाती तो खेती को सरकार लाभ का धंधा कैसे बनाएगी. यह बात कई मंचों से बारबार दोहराई गई थी.

दूसरी परेशानी किसानों की यह थी और है भी कि उसे वाकई पैदावार के वाजिब दाम नहीं मिलते. तमाम मंडियां व्यापारियों, दलालों और आढ़तियों के कब्जे में हैं, जहां कदमकदम पर कमीशन देना पड़ता है और इस के बाद भी भुगतान का भरोसा नहीं रहता.

कर्ज की मार

कर्जमाफी का झुनझुना केंद्र और राज्य सरकारें दोनों बराबरी से किसानों को देती रही हैं पर जब इस पर अमल करने की मांग उन्होंने उठाई तो देवेंद्र फडणवीस तो साफ मुकर गए और शिवराज सिंह चौहान खामोश रहे. हालांकि गोलीकांड में मारे गए किसानों का दाहसंस्कार हो जाने के बाद उन्होंने किसानों के हित में कुछ ऐलान किए पर किसानों ने न तो उन की बातों पर ध्यान दिया और न ही भरोसा किया.

इसी दौरान यह बात उजागर हुई कि सूबे के 35 लाख से भी ज्यादा किसानों पर 20 हजार करोड़ रुपए का कर्ज बाकी है. इन में से 6 लाख किसान तो 5 वर्षों से ब्याज तक नहीं चुका पाए हैं. उन्हें दिवालिया घोषित किया जा चुका है.

खाली हाथ किसान

हिंसा के दौरान एक मशवरा यह भी चर्चा में आया कि राज्य सरकार हालात देखते पूरी तरह कर्जमाफी की घोषणा कर सकती है पर मजेदार बात रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल का यह बयान रहा कि अगर पूरी तरह कर्ज माफ किया गया तो इस से महंगाई बढ़ेगी. गौरतलब है कि देशभर के किसानों पर 12 लाख 60 हजार करोड़ रुपए से भी ज्यादा राशि का कर्ज है.

सालभर में देश के 12 हजार किसान खुदकुशी करते हैं, यह बात केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को एक सवाल के जवाब में बताई थी लेकिन हकीकत में यह तादाद कहीं ज्यादा है. किसान आत्महत्याओं को ले कर आएदिन सवालजवाब होते रहते हैं पर कोई सरकार किसानों की गरीबी या बदहाली दूर नहीं कर पाती.

इस पर भी दिक्कत यह है कि फसलों की पैदावार कम हो या ज्यादा, दोनों ही हालात में नुकसान किसान का ही होता है. उलट इस के, सरकार अपनी उपलब्धियों के आंकड़े इस तरह गिनाती है जैसे उस ने किसानों की जेब में खूब सारा पैसा ठूंस दिया हो. हकीकत यह है कि सरकारी मदद का बड़ा हिस्सा कमीशनबाज और मुलाजिम डकार जाते हैं.

इसे आसान तरीके से आंदोलन के दौरान सब्जी और फलों के बढ़े भावों से समझा जा सकता है. भोपाल की मंडी में किसानों को सब्जियों के वही दाम मिले जो पहले से मिल रहे थे. अगर कोई सब्जी मंडी में 20 रुपए किलो तुली तो उस के दाम आम लोगों को 40 के बजाय 80 रुपए किलो तक देना पड़े.

ये 40 रुपए दलालों, आढ़तियों और कमीशनखोरों की जेब में गए. किसान को कुछ नहीं मिला. यही हाल सालभर रहता है. ऐसे में किसान की भड़ास निकलना कुदरती बात है. यह और बात है कि वह गलत तरीके से निकली लेकिन गौर करने लायक बात यह भी है कि किसान अगर कैंडल मार्च जैसा शांतिभरा तरीका अपनाता तो क्या उस की बात सुनी जाती? शायद नहीं.

सरकारी महकमों से किसान का रोजरोज वास्ता पड़ता है. वहां भी कदमकदम पर घूसखोर बैठे हैं. थाने में रिपोर्ट लिखाने जाओ तो घूस, तहसील में पेशी पर जाओ तो घूस, अदालत में मुकदमे की तारीख लो तो घूस, सरकारी अस्पताल में इलाज कराने जाओ तो घूस, खेतीकिसानी महकमे से इमदाद या दूसरे मुफ्त के सामान लो तो भी घूस और पटवारी के पास नामांतरण व सीमांकन के लिए जाओ तो भी घूस देनी पड़ती है.  कदमकदम पर सागर के आनंद खत्री जैसे पटवारी बैठे हैं जो घूस लेते रंगेहाथों पकड़े जाएं तो भी उन का कुछ नहीं बिगड़ता. उलट इस के, शिवम ठाकुर जैसे किसान अगर वाजिब और जायज काम के लिए भी घूस न दें तो उन के तलवे घिस जाते हैं.

ऐसे में यह गुस्सा फट पड़ा तो बात कतई हैरानी की नहीं. देखना दिलचस्प होगा कि इस भड़ास का खात्मा कहां होगा और क्या यह दलाली, भ्रष्टाचार व कमीशनखोरी पर अंकुश लगा पाएगा.        

मेरा ब्वायफ्रैंड एकांत मिलने पर मेरी जांघों, बांहों पर हाथ फेरता है. मुझे भी ये सब अच्छा लगता है. क्या ये सब सही है.

सवाल

मैं पिछले 2 वर्ष से एक युवक से प्यार करती हूं. वह मुझ से बार बार संबंध बनाने की मांग करता है. एकांत मिलने पर मुझे उकसाता भी है. मेरी जांघों, बांहों पर हाथ फेरता है और मुझे आलिंगनबद्ध करता है. मुझे भी ये सब अच्छा लगता है इसीलिए मैं उसे मना नहीं करती, लेकिन इस सब के बीच जब कभी मैं उस से शादी के लिए कहती हूं तो वह टालमटोल करने लगता है, क्या करूं?

जवाब

आप का प्रेमी आप के बजाय आप के शरीर से प्रेम करता है और शारीरिक सुख भोगना चाहता है. इसलिए पहले तो आप को चेतना होगा. भूल कर भी अपना शरीर उसे न सौंपें, क्योंकि उस के बाद हो सकता है वह आप की ओर देखे भी नहीं.

आप उसे आलिंगनबद्ध करने पर भी इसलिए नहीं रोकतीं कि ऐसा करना आप को भी अच्छा लगता है लेकिन यह बात आप के लिए नासूर बन सकती है. अत: जब भी वह आप के शरीर से छेड़छाड़ करे उसे कह दें कि ये सब बातें शादी के बाद ही अच्छी लगती हैं. अगर तुम्हें इस की चाहत है तो शादी कर लो.

यकीन मानिए इसी से उस के प्रेम की परख भी हो जाएगी और आप का बचाव भी. अगर वह आप से सही माने में प्रेम करता है तो अवश्य कोई कदम उठाइए वरना दूरी बना कर चलने में ही भलाई है.

 

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बेहतर शिक्षा से संवारें बच्चों का भविष्य

देश में बढ़ती महंगाई के कारण अपने बच्चे को अच्छी शिक्षा मुहैया कराना सब से मुश्किल काम है. अच्छी शिक्षा से मतलब उसे सिर्फ स्कूल भेजना मात्र नहीं है, बल्कि उस की प्राइमरी एजुकेशन से ले कर उच्च शिक्षा तक इस तरह से करानी है कि उस की पढ़ाई व कैरियर निर्माण के दौरान कभी आर्थिक अड़चन न आए और वह अपने मनमुताबिक कैरियर चुन सके.

अमूमन हम बच्चों की शिक्षा के खर्च में स्कूल, कालेज और स्नातकोत्तर तक की शिक्षा पर होने वाले खर्च को ही शामिल करते हैं, जबकि आजकल बच्चों की स्कूली शिक्षा में स्कूल की फीस के साथसाथ ट्रांसपोर्ट, रचनात्मक गतिविधियां, दाखिला, ट्यूशन फीस, ड्रैस, स्कूलबैग, स्टेशनरी और उच्च शिक्षा हेतु विदेश जाने से ले कर और न जाने कितने खर्च शामिल होते हैं, जो जेब में पैसा न होने पर भविष्य में आप के बच्चों की शिक्षा व कैरियर में दीवार बन जाते हैं.

इन हालात में बच्चों की उच्चस्तरीय पढ़ाई का खर्च उठाना क्या आसान है? बिलकुल नहीं. तो क्या आप बच्चों की शिक्षा के लिए पर्याप्त राशि जमा कर रहे हैं? अगर नहीं तो अभी से कमर कस लीजिए. बच्चों की बेहतर शिक्षा और भविष्य के लिए अभी से पैसा जमा करना शुरू कर दीजिए.

शिक्षा की सुयोजना अभी से

देश में शिक्षा को 3 अहम भागों में बांटा जा सकता है. पहला भाग है प्राथमिक शिक्षा. इस में शुरुआती स्तर पर बच्चों की प्राथमिक शिक्षा संपन्न होती है. यह शिक्षा का सब से आसान हिस्सा है. इस के बाद आता है दूसरा भाग, मध्य यानी माध्यमिक शिक्षा. इस में हाई स्कूल और इंटरमीडिएट की पढ़ाई आ जाती है. यह काफी हद तक आगे के भविष्य की नींव रखती है. इस के बाद आता है तीसरा और सब से अहम हिस्सा उच्च शिक्षा. उच्च शिक्षा में अकादमिक और प्रोफैशनल यानी व्यावसायिक शिक्षा आती है. यही शिक्षा सब से ज्यादा खर्चीली होती है. लगभग सभी तरह की व्यावसायिक शिक्षा पर लाखों रुपए खर्च होते हैं. इसलिए अभिभावक बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने के लिए आज से ही जरूरी कदम उठाएं. 

हम बच्चों की प्राथमिक शिक्षा का खर्च तो जैसेतैसे निकाल लेते हैं पर कालेज और व्यावसायिक शिक्षा पर खर्च होने वाले पैसों का इंतजाम करना मुश्किल हो जाता है. तब आपातकाल में किसी को लोन लेना पड़ता है, तो किसी को अपने गहने आदि बेचने पड़ते हैं. इसलिए अगर बच्चों के बचपन से ही उन की पढ़ाईलिखाई के लिए पैसे जमा करना शुरू कर दिए जाएं तो बाद में आर्थिक परेशानी से छुटकारा पाया जा सकता है.एक बीमा कंपनी से जुड़े फाइनैंशियल प्लानर नितिन अरोड़ा इस बाबत कुछ सुझाव देते हैं. उन के मुताबिक, अगर बच्चों की पढ़ाई को ले कर पहले से कुछ वित्तीय योजनाएं बना ली जाएं तो आगे का रास्ता काफी हद तक सुलभ हो जाता है और इन  योजनाओं के आधार पर आप अपने बच्चे की एजुकेशन प्लान कर सकते हैं.

सब से पहले लक्ष्य का समय यानी तारीख तय कीजिए यानी उस तारीख और वर्ष की गणना कीजिए जब आप का बच्चा उच्चशिक्षा लेने लायक हो जाएगा. उस के बाद वर्तमान में होने वाले शिक्षण व्यय का हिसाबकिताब कर लीजिए. फिर उसे बच्चे की शिक्षा के अनुरूप भविष्य की महंगाई दर के मुताबिक जोडि़ए. इस हिसाब के बाद आप को भविष्य में होने वाले खर्च की रकम का मोटा सा अंदाजा हो जाएगा.

इसे आसान भाषा में समझते हैं. मान लीजिए आज उच्च शिक्षा में लगभग 5 लाख से 10 लाख रुपए का खर्च आता है, तो बढ़ती महंगाई के हिसाब से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि 20-21 साल तक यह खर्च बढ कर 20 लाख से 30 लाख रुपए या उस से भी अधिक तक तो हो ही जाएगा. अब आप के पास एक टारगेट रकम का अनुमान आ चुका है. बस, इसी रकम के इंतजाम के लिए आप को अपनी आय व हैसियत के हिसाब से पैसे जोड़ने या फिर निवेश करना होता है. अगर आप इस गणना के मुताबिक सही समय में इस राशि को जमा कर पाते हैं, तो आप के बच्चे की शिक्षा में किसी भी तरह की मुश्किल नहीं आ सकती. इस तरह से शिक्षा के लिए वित्तीय योजनाओं का खाका खींच कर आप अपने बच्चे का आज ही से बेहतर भविष्य सुरक्षित कर सकते हैं.

समझदारी से करें शिक्षा निवेश

एक इंश्योरैंस कंपनी से जुड़े एक्सपर्ट बताते हैं कि जिस अनुपात से लोगों का वेतन बढ़ रहा है उस से कहीं ज्यादा तेजी से पढ़ाई में होने वाला खर्च बढ़ रहा है. ऐसे में बच्चों की एजुकेशन प्लानिंग हम कुछ चरणों में बांट लेते हैं. ये चरण अभिभावकों के वेतन और शिशु की अवस्था के आधार पर बांटते हैं.

पहले चरण के तहत शिशु के पैदा होने से उस के लगभग 5 साल के होने तक आप ज्यादा से ज्यादा सेविंग करें, क्योंकि इस दौरान शिशु की पढ़ाई पर खर्च अपेक्षाकृत कम होता है. उस के बाद बच्चा स्कूल जाना शुरू कर देता है. इस चरण में सेविंग कम हो जाती है, क्योंकि उस की पढ़ाई का खर्च आ जाता है. 9 से 16 साल की उम्र के दौरान बहुत ही संतुलित राशि जमा करें. फिर 18 से 25 साल की उम्र में बच्चा युवा होने पर आप की जमाराशि का सही उपयोग करने लायक हो जाता है. इस तरह आप अपनी राशि को अलगअलग चरणों में घटातेबढ़ाते हुए जमा करेंगे तो आप की जेब पर ज्यादा बोझ नहीं पड़ेगा.

एजुकेशन प्लान के अलावा

बाजार में लगभग सभी बड़े बैंक और वित्तीय कंपनियां बच्चों के लिए लुभावने औफर देती हैं. इन के अलावा और भी कई तरह के निवेश के विकल्प हैं, जो अच्छा रिटर्न देते हैं. मसलन, म्यूचुअल फंड, बौंड्स, प्रौविडैंट फंड, राष्ट्रीय बचत खाता आदि. साथ ही, डाकघर की निवेश योजनाओं का इस्तेमाल भी अपने बच्चों के लिए निवेश करने में कर सकते हैं. म्यूचुअल फंड कंपनियों ने तो बच्चों की शिक्षा को ध्यान में रख कर 20 से भी ज्यादा ऐसी योजनाएं लौंच की हैं. बस, आप को अपनी आवश्यकता के अनुसार योजना का चयन करना है.

बच्चों के शैक्षिक भविष्य को सुरक्षित करने के लिए इस समय मार्केट में कई इनवैस्टमैंट टूल मौजूद हैं. लेकिन जानकारी के अभाव में आमतौर पर अधिकांश पेरैंट्स सिर्फ लाइफ इंश्योरैंस स्कीम्स में ही निवेश करते हैं. जबकि कई इन्वैस्टमैंट टूल्स, इंश्योरैंस स्कीम्स से बेहतर रिटर्न देते हैं. आप के लिए जरूरी है कि इंश्योरैंस के साथ ही पीपीएफ, म्यूचुअल फंड, यूनिट लिंक्ड प्लान जैसे विकल्पों में भी निवेश करें.

पीपीएफ यानी पब्लिक प्रौविडैंट फंड में आप अपने बच्चे की शिक्षा के लिए एक बड़ी बचत का निर्माण कर सकते हैं. इस के अलावा आयकर अधिनियम की धारा 80 सी के तहत आप को कर में 1.5 लाख रुपए तक की छूट मिलती है. सुकन्या समृद्घि खाता भी एक अच्छा विकल्प है.

यह योजना भी 8.1 फीसदी के ब्याज दर के साथ पूरी तरह कर मुक्त है. यहां भी आयकर अधिनियम की धारा 80 सी के तहत कर लाभ प्रदान किया गया है. हालांकि, यह योजना केवल लड़कियों के लिए है. इक्विटी म्यूचुअल फंड भी एक विकल्प हो सकता है.

गैरपरंपरागत निवेश

कुछ लोग अपने बच्चे के नाम पर प्रौपर्टी खरीद लेते हैं, जो बाद में बच्चे के काफी काम आती है. साथ ही, सोनाचांदी और शेयरों में भी कुछ अभिभावक निवेश करते हैं. यहां समझने वाली बात यही है कि बच्चे की शिक्षा के लिए पैसा सिर्फ एजुकेशन प्लान या परंपरागत तरीकों से ही जोड़ा जाए, ऐसा जरूरी नहीं है. आप को तो बस पैसा जोड़ना है, जिसे भविष्य में उस की पढ़ाई पर खर्च कर सकें.

“कौन बनेगा टीम इंडिया का कोच, कहना मुश्किल”

पूर्व कप्तान सौरभ गांगुली ने कहा कि अभी यह नहीं कहा जा सकता कि टीम इंडिया का कोच कौन बनेगा? उन्होंने कहा कि सीएसी सभी उम्मीदवारों के इंटरव्यू लेकर यह फैसला करेगी कि किसे टीम इंडिया का कोच चुना जाए. सौरभ गांगुली ने अक्सर की जाने वाली टिप्पणी 'क्रिकेट कप्तान का खेल होता है' का उपयोग किया और कहा कि मानव प्रबंधन और परिस्थिति को अच्छी तरह से समझना अच्छे कोच के लक्षण होते हैं.

विराट कोहली और अनिल कुंबले के बीच मतभेदों के बीच इस पूर्व कप्तान ने कहा, 'मेरा मानना है कि क्रिकेट कप्तान का खेल होता है. कोच ऐसा होना चाहिए, जो टीम की मदद कर सकता हो और टीम की प्रगति में मदद करे.'

क्रिकेट सलाहकार समिति के सदस्य गांगुली ने कहा, 'प्रभावशाली प्रस्तुति से आप अच्छे कोच नहीं बनते. अच्छा कोच बनने के लिए कई चीजों की जरुरत पड़ती है, जैसे कि मानव प्रबंधन कौशल और स्थिति को अच्छी तरह से समझने का कौशल.'

उन्होंने कहा कि कोहली-कुंबले विवाद बीती बात है और उसे पीछे छोड़ देना चाहिए. गांगुली ने कहा, 'हमें भारतीय क्रिकेट के लिए जो भी अच्छा लगेगा हम वह करेंगे. हमने कुंबले की नियुक्ति के समय भी ऐसा किया था. उन्होंने हमें अच्छे परिणाम दिए.'

गांगुली ने कहा कि उन्होंने कोच पद के लिए वीरेंद्र सहवाग का बायोडाटा देखा और जैसा कि मीडिया में कहा गया था यह दो पंक्तियों का नहीं है. उन्होंने कहा, 'मैंने सहवाग का सीवी देखा था. यह दो पंक्तियों का नहीं था. उन्होंने अपना संपूर्ण बायोडाटा भेजा है, लेकिन क्या आप सीवी भेजकर भारत का कोच बन सकते हैं? कोच मैदान पर बनते हैं. सहवाग और उनके कौशल को सभी जानते हैं. इसलिए यह मसला नहीं है. हम बैठेंगे, बात करेंगे और फिर अंतिम फैसला देंगे. अभी किसी का नाम लेना मुश्किल है.'

वायरल हो रही हैं दो सुपरस्टार्स की बेमिसाल मुस्कुराहटें

सुपरस्टार रजनीकांत इस वक्त मुंबई में अपनी आने वाली फिल्म 'काला करिकालन' की शूटिंग में व्यस्त हैं. इस फिल्म में उनके साथ बॉलीवुड के जानेमाने अभिनेता नाना पाटेकर भी मुख्य भूमिका में हैं और वे भी उनके साथ शूटिंग कर रहे हैं.

रजनीकांत और नाना पाटेकर की एक तस्वीर सोशल मीडिया पर बहुत वायरल हो रही है. इस फोटो में रजनीकांत के साथ नाना पाटेकर भी मौजूद हैं. नाना और रजनीकांत एक दूसरे के गले में बाहें डाले, हंसते हुए नजर आ रहे हैं.

इस तस्वीर में दोनों ही अभिनेताओं की बॉन्डिंग देखने लायक है. एक-दूसरे के गले मिलते दोनों कैमरे को देख मुस्कुरा रहे हैं. रजनीकांत और नाना पाटेकर की ये मुस्कुराहट वाकई बेमिसाल है. रजनीकांत और नाना पाटेकर के फैंस के लिए तो ये तस्वीर किसी तोहफे से कम नहीं है. फिल्म 'काला करिकालन' में पहली बार साथ बड़े पर्दे पर काम करते नजर आएंगे.

इस फिल्म के निर्माता रजनीकांत के दामाद सुपरस्टार धनुष हैं. फिल्म में रजनीकांत और नाना के अलावा हुमा कुरैशी, अंजलि पाटिल, पंजक त्रिपाठी, समुतिराकणि और साक्षी अग्रवाल भी मुख्य भूमिकाओं में हैं.

अभी कुछ दिनों पहले ही 'काला' की शूटिंग के दौरान की तस्वीरें सामने आईं थीं. जिसमें रजनीकांत धारावी की झुग्गियों में शूटिंग करते नजर आए.

 

जीएसटी की मार, मैदान पर मैच देखना होगा महंगा

आधी रात से जीएसटी लागू होने के बाद बाजार पूरी तरह से बदल गया. जिसका असर रोजमर्रा की चीजों के साथ-साथ खेल और खेल से जुड़े सामानों पर भी दिखेगा. जीएसटी के लागू होने के बाद मैच के टिकट 28 फीसदी तक के कर दायरे में आएंगे. क्रिकेट का सबसे मनोरंजक और लोकप्रिय प्रारुप आईपीएल सबसे अधिक 28 फीसदी दायरे में आ जाएगा.

खेल संगठनों के आयोजन पर पहले 28 फीसदी टैक्स का प्रावधान था. लेकिन इसे 18 फीसदी करने का फैसला किया गया. लेकिन यहां सरकार ने एक शर्त रख दी. 18 फीसदी का टैक्स केवल उन्हीं मैचों के टिकटों पर लगेगा जहां टिकट की कीमत 250 रुपये से कम होगी.

चूंकि क्रिकेट के तकरीबन सभी मुकाबलों में टिकट 250 से ज्यादा होती है, खासकर आईपीएल के मैचों में तो टिकटों की कीमत काफी ज्यादा होती है इसलिए उनपर 28 फीसदी का ही टैक्स वसूला जाएगा. इसी तरह हॉकी लीग, कबड्डी लीग, रेसलिंग लीग जैसे आयोजनों के महंगे टिकटों पर भी 28 फीसदी टैक्स वसूला जाएगा.

हालांकि हॉकी, फुटबॉल व अन्य खेल जिनके टिकट अपेक्षाकृत सस्ते होते हैं और टिकटों की कीमत 250 रुपये से कम होती है उनपर महज 18 फीसदी टैक्स लगेगा. यानी यहां दर्शकों को ज्यादा नुकसान नहीं उठाना पड़ेगा.

पहले की तुलना में खेलों के सामान महंगे होंगे और इसका ज्यादा असर आर्थिक रूप से कमजोर युवा खिलाड़ियों पर दिखेगा. आइए जानते हैं उन खेलों के बारे में जिनपर जीएसटी का क्या प्रभाव पड़ेगा. खासकर वैसे खेलों जिनमें शामिल होकर गरीबों परिवार के युवा अपना भविष्य तलाशते हैं.

जीएसटी के आने से एथलेटिक्स और एक्सरसाइज से जुड़ी ज्यादातर चीजें महंगी होंगी. इनमें हाई जंप पोल, शॉर्ट पुट, जैवलिन, बॉक्सिंग ग्लव्स और जिम के सामान शामिल हैं. ये सारे 28 फीसदी के स्लैब में आएंगे. इसके अलावा स्पोर्ट्स शूज भी महंगे होंगे.

एथलेटिक्स, बॉक्सिंग और जिम्नास्टिक जैसे खेलों में ज्यादातर गरीब परिवार से ताल्लुक रखने वाले खिलाड़ी होते हैं. खिलाड़ियों से जुड़े सामानों को विलासिता से नहीं जोड़ा जा सकता. इसके बावजूद इन्हें महंगे टैक्स की श्रेणी में लाया गया है.

पीएम मोदी लगातार खेलों को बढ़ावा देने की बात करते रहे हैं. लेकिन बावजूद इसके खेलों से जुड़े सामनों को कल स्लैब में लाया जा सकता था. जीएसटी आने वाले दिनों में क्या रंग दिखाएगी यह देखना बेहद दिलचस्प होगा.

डायमंड चोर का किरदार निभाएंगे कार्तिक आर्यन

फिल्म ‘‘नो वन किल्ड जेसिका लाल’’ फेम निर्देशक राज कुमार गुप्ता के सहायक रहे अमर कौशिक ने जॉन अब्राहम को लेकर फिल्म ‘‘चोर निकल के भागा’’ की शुरुआत करने की घोषणा की थी, लेकिन कुछ दिनों बाद रचनात्मक मतभेदों के चलते जॉन अब्राहम ने इस फिल्म को बाय बाय कर दिया.

उसके बाद से कयास लगाए जा रहे थे कि अब कौन सा कलाकार इस फिल्म के साथ जुड़ेगा. खैर, अब साफ हो गया है कि इस फिल्म में कार्तिक आर्यन अभिनय करने वाले हैं. पर अभी तक हीरोइन का नाम तय नहीं हो पाया है.

कार्तिक आर्यन सबसे पहले फिल्म ‘‘प्यार का पंचनामा’’ में नजर आए थें. फिर वह ‘‘प्यार का पंचनामा 2’’ में नजर आए. अब वह 7 जुलाई को प्रदर्शत होने वाली फिल्म ‘‘गेस्ट इन लंदन’’ में नजर आने वाले हैं. अब कार्तिक आर्यन रोमांचक फिल्म ‘‘चोर निकल के भागा’’ में डायमंड चोर का किरदार निभाने वाले हैं.

GST को समझने का ये है सबसे आसान तरीका

संसद के सेंट्रल हॉल में शुक्रवार को आधी रात को जीएसटी को लॉन्च किया गया. हालांकि अब भी बड़ी संख्या में लोगों को इसके प्रावधानों को लेकर कुछ भ्रम हैं. तो यहां हमसे जानिए जीएसटी से जुड़े आपके सभी सवालों के जवाब.

जानें किन वस्तुओं पर लगेगा कितना टैक्स..

इन वस्तुओं पर नहीं लगेगा कोई टैक्स : फ्रेश मीट, फिश चिकन, अंडा, दूध, बटर मिल्क, दही, शहद, फल एवं सब्जियां, आटा, बेसन, ब्रेड, प्रसाद, नमक, बिंदी, सिंदूर, स्टांप. न्यायिक दस्तावेज, प्रिंटेड बुक्स, अखबार, चूड़िया और हैंडलूम जैसे तमाम रोजमर्रा की जरूरतों के आइटम्स को जीएसटी के दायरे से ही बाहर रखा गया है.

इन पर लगेगा 5 पर्सेंट का टैक्स : फिश फिलेट, क्रीम, स्किम्ड मिल्ड पाउडर, ब्रैंडेड पनीर, फ्रोजन सब्जियां, कॉफी, चाय, मसाले, पिज्जा ब्रेड, रस, साबूदाना, केरोसिन, कोयला, दवाएं, स्टेंट और लाइफबोट्स जैसे आइटम्स को टैक्स की सबसे निचली 5 पर्सेंट की दर में रखा गया है.

ऐसी जरूरी चीजों पर 12 पर्सेंट टैक्स : फ्रोजन मीट प्रॉडक्ट्स, बटर, पैकेज्ड ड्राई फ्रूट्स, ऐनिमल फैट, सॉस, फ्रूट जूस, भुजिया, नमकीन, आयुर्वेदिक दवाएं, टूथ पाउडर, अगरबत्ती, कलर बुक्स, पिक्चर बुक्स, छाता, सिलाई मशीन और सेल फोन जैसी जरूरी आइटम्स को 12 पर्सेंट के स्लैब में रखा गया है.

मिडिल क्लास की इन चीजों पर 18 पर्सेंट टैक्स : फ्लेवर्ड रिफाइंड शुगर, पास्ता, कॉर्नफ्लेक्स, पेस्ट्रीज और केक, प्रिजर्व्ड वेजिटेबल्स, जैम, सॉस, सूप, आइसक्रीम, इंस्टैंट फूड मिक्सेज, मिनरल वॉटर, टिशू, लिफाफे, नोट बुक्स, स्टील प्रॉडक्ट्स, प्रिंटेड सर्किट्स, कैमरा, स्पीकर और मॉनिटर्स पर 18 फीसदी जीएसटी लगाने का फैसला लिया गया है.

इन पर लगेगा सबसे ज्यादा 28 फीसदी कर : चुइंग गम, गुड़, कोकोआ रहित चॉकलेट, पान मसाला, वातित जल, पेंट, डीओडरन्ट, शेविंग क्रीम, हेयर शैम्पू, डाइ, सनस्क्रीन, वॉलपेपर, सेरेमिक टाइल्स, वॉटर हीटर, डिशवॉशर, सिलाई मशीन, वॉशिंग मशीन, एटीएम, वेंडिंग मशीन, वैक्यूम क्लीनर, शेवर्स, हेयर क्लिपर्स, ऑटोमोबाइल्स, मोटरसाइकल, निजी इस्तेमाल के लिए एयरक्राफ्ट और नौकाविहार को लग्जरी मानते हुए जीएसटी काउंसिल ने 28 फीसदी का टैक्स लगाने का फैसला लिया है.

हमसे जानें क्या हुआ महंगा और क्या हुआ सस्ता :

यहां झेलनी होगी आपको महंगाई की मार

– बैंकिंग और टेलिकॉम जैसी सेवाएं महंगी हो जाएंगी. इसके अलावा फ्लैट्स, रेडिमेट गारमेंट्स, मंथली मोबाइल बिल और ट्यूशन फीस पर भी टैक्स बढ़ जाएगा.

– 1 जुलाई से जब आप एसी रेस्तरां में जाएं तो 18 पर्सेंट टैक्स के लिए तैयार रहें. हां, यदि आप गैर-एसी रेस्तरां में जाते हैं तो 6 पर्सेंट की बचत करते हुए सिर्फ 12 पर्सेंट ही चुकाना होगा.

– मोबाइल बिल, ट्यूशन फीस और सलून पर भी आपको 18 पर्सेंट टैक्स देना होगा. अब तक इन पर 15 फीसदी टैक्स ही रहा है.

– 1,000 रुपये से अधिक की कीमत के कपड़ों की खरीद पर भी अब आपको 12 पर्सेंट टैक्स देना होगा. अब तक इस पर 6 फीसदी स्टेट वैट ही लगता था. ध्यान दें कि 1,000 से कम के परिधानों पर 5 पर्सेंट की दर से ही टैक्स लगेगा.

– जीएसटी की व्यवस्था में दुकान या फ्लैट खरीदने पर 12 फीसदी टैक्स देना होगा. फिलहाल यह करीब 6 पर्सेंट है.

GST से ये चीजें हो गई हैं सस्ती

– 81 पर्सेंट आइटम्स 18 फीसदी से कम के स्लैब में होंगे. खासतौर पर वेइंग मशीनरी, स्टैटिक कन्वर्टर्स, इलेक्ट्रिक ट्रांसफॉर्मर्स, वाइंडिंग वायर्स, ट्रांसफॉर्मस इंडस्ट्रियल इलेक्ट्रॉनिक्स और डिफेंस, पुलिस और पैरामिलिट्री फोर्सेज द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले टू-वे रेडियो सस्ते हो जाएंगे.

– पोस्टेज और रेवेन्यू स्टांप्स भी सस्ते हो जाएंगे. इन पर 5 पर्सेंट ही टैक्स लगेगा.

– कटलरी, केचअप, सॉसेज और अचार आदि भी सस्ते होंगे. इन्हें 12 पर्सेंट के स्लैब में रखा जाएगा.

– सॉल्ट, चिल्ड्रंस पिक्चर, ड्रॉइंग और कलर बुक्स को जीएसटी के दायरे से बाहर रखा गया है. प्लेइंग कार्ड्स, चेस बोर्ड, कैरम बोर्ड और अन्य बोर्ड गेम्स को घटाकर 12 पर्सेंट के स्लैब में रखा गया है.

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