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2017 में चमकेंगी यह फिल्मी संतानें

2016 फिल्मी संतानों के लिए बहुत बुरा रहा. मगर 2017 में कई फिल्मी संताने बौलीवुड में दस्तक देने आ रही हैं. इनमें से प्रमुख हैं:

मुस्तफा

मशहूर फिल्म निर्देशक जोड़ी अब्बास मस्तान में से अब्बास बर्मावालिया के बेटे मुस्तफा 2017 में बौलीवुड में फिल्म ‘‘मशीन’’ से अपनी किस्मत आजमाने आ रहे हैं. मार्च माह में प्रदर्शित होने वाली अब्बास मस्तान निर्देशित फिल्म ‘‘मशीन’’ में कायरा अडवाणी और मुस्तफा की जोड़ी है. इस फिल्म का निर्माण हरीश पटेल, प्रणय चौकषी, अब्बास मस्तान, धवल जयंतीलाल गाड़ा कर रहे हैं. जबकि इस फिल्म के निर्देशक अब्बास मस्तान हैं.

आदार जैन

स्व. राजकपूर की बेटी के बेटे तथा रणबीर कपूर व करीना कपूर के फुफेरे भाई आदार जैन अपनी बौलीवुड की पारी ‘‘यशराज फिल्म’’ निर्मित व हबीब फैजल निर्देशित अनाम फिल्म से करने जा रहे हैं. इसमें उनकी नायिका दिल्ली की नई लड़की अन्या सिंह हैं. मजेदार बात यह है कि उड़ी हमले की वजह से पाकिस्तानी कलाकारों के खिलाफ बने माहौल का फायदा आदार जैन को मिला है. अन्यथा पहले इस फिल्म में पाकिस्तानी कलाकार अली जफर के भाई दान्याल जफर अभिनय करने वाले थे.

सारा अली खान

अमृता सिंह व सैफ अली खान की 24 वर्षीय बेटी सारा अली खान का बौलीवुड प्रवेश पिछले दो वर्षों से लगातार किन्ही न किन्ही वजह से टलता जा रहा है. इसके लिए कुछ लोग सारा अली खान की मां अमृता सिंह को दोष देते हैं. पर अमृता सिंह का दावा है कि इस वर्ष उनकी बेटी अभिनय के मैदान में तीर मार लेगी. अब फिल्म कौन सी होगी, यह रहस्य है. वैसे अब तक जिन फिल्मों के साथ सारा अली खान के जुड़ने की खबरें आयी, उन सबसे बाद में सारा अली खान अलग हो गयी. पर अब चर्चा है कि सारा अली खान की पहली फिल्म शाहरुख खान के बेटे आर्यन खान के साथ होगी.

अहान शेट्टी

अपने समय के चर्चित अभिनेता सुनील शेट्टी की बेटी आथिया शेट्टी को सलमान खान ने सितंबर 2015 में प्रदर्शित अपनी होम प्रोडक्शन फिल्म ‘‘हीरो’’ से बौलीवुड मे उतारा था. मगर फिल्म की असफलता के साथ ही उनका करियर डांवाडोल हो गया. बड़ी मुश्किल से उन्हे फिल्म ‘मुबारका’ में ईलीना डिक्रूजा के साथ काम करने का अवसर मिला है. जबकि इस वर्ष सुनील शेट्टी के बेटे व आथिया शेट्टी के 21 वर्षीय भाई अहान शेट्टी बौलीवुड में कदम रखने जा रहे हैं. अहान शेट्टी को हीरो लेकर मशहूर फिल्म निर्माता साजिद नाड़ियादवाला फिल्म बनाने जा रहे हैं. यह फिल्म जुलाई 2017 में शुरू होगी.

आर्यन खान

इस वर्ष शाहरुख खान के बेटे आर्यन खान भी अभिनय के क्षेत्र में कदम रखने जा रहे हैं. उन्हे शाहरुख खान व गौरी खान के खास दोस्त व फिल्मकार करण जोहर ही बौलीवुड में लांच करने वाले हैं. और इस फिल्म में आर्यन खान की हीरोइन होंगी अमृता सिंह व सैफ अली खान की बेटी सारा अली खान. शाहरुख खान के बेटे आर्यन खान लास एंजेल्स से अपनी पढ़ाई पूरी कर वापस आ चुके हैं. शाहरुख खान की पीआर कंपनी ने आर्यन खान की ईमेज को सुधारने का काम शुरू करते हुए सबसे पहले आर्यन खान का ‘इंस्टाग्राम’ का अकाउंट बंद कराया, जिसमें ईमेज खराब करने वाली पार्टी फोटोग्राफ मौजूद थे.

जान्हवी कपूर

अभिनेत्री श्रीदेवी व फिल्म निर्माता बोनी कपूर की बेटी तथा अभिनेता अर्जुन कपूर की सौतेली बहन जान्हवी कपूर भी इस वर्ष बौलीवुड में कदम रखने जा रही हैं. जान्हवी कपूर के लिए श्रीदेवी व बोनी कपूर खुद ही फिल्म बना रहे हैं. वैसे जान्हवी कपूर गत वर्ष अपने प्रेमी शिखर पहाड़िया के कारण ज्यादा चर्चा में रहीं.

रवीना तौरानी

बौलीवुड की चर्चित संगीत व फिल्म निर्माण कंपनी ‘‘टिप्स’’ के मालिक रमेश तौरानी ने कुछ साल पहले अपने बेटे गिरीश कुमार को बौलीवुड में बतौर अभिनेता स्थापित करने के लिए ‘‘रमैया वास्तवैया’’ और ‘‘लवशुदा’’ जैसी असफल फिल्मों का निर्माण किया. अब रमेश तौरानी अपनी बेटी रवीना तौरानी को हीरेाईन के रूप में पेश करने के लिए अपनी पंद्रह साल पुरानी फिल्म ‘‘इश्क विश्क’’ का सिक्वअल बना रहे हैं. फिल्म माहौल में पली बढ़ी रवीना 2014 में प्रदर्शित रितिक रोशन व कटरीना कैफ की वाली फिल्म ‘‘बैंग बैंग’’ में निर्देशक सिद्धार्थ आनंद के साथ बतौर सहायक निर्देशक काम कर फिल्म निर्माण की बारीकियों को समझ चुकी हैं.

नंदिता दास होंगी पति सुबोध से अलग

2016 में बौलीवुड में तलाक का दौर चला. कई वैवाहिक जोड़ियां टूटी. हर कोई सोच रहा था कि 2017 में बौलीवुड में सब कुछ अच्छा ही होगा. लेकिन नए साल के पहले दिन की शुरूआत अभिनेत्री नंदिता दास का अपने पति सुबोध मस्कारा के साथ अलगाव की खबर से हुआ है. नंदिता दास ने सुबोध मस्कारा के संग दो जनवरी 2010 को शादी की थी. उनका छह वर्ष का बेटा विहान भी है. नंदिता दास के संग विवाह करने से पहले सुबोध मस्कारा व्यापार कर रहे थे. उनकी गिनती एक एंटरप्रेन्योर के रूप में हुआ करती थी. लेकिन नंदिता दास के संपर्क में आने के बाद उनके अंदर की रचनात्मकता जाग उठी और उन्होंने अपना सारा व्यापार छोड़कर नंदिता दास के साथ मिलकर ‘‘छोटी प्रोडक्शन’’ नामक कंपनी बनाकर फिल्म व नाटकों का निर्माण करना शुरू किया. उनका नाटक ‘बिटवीन द लाइन्स’’ काफी चर्चित हुआ. पर अब दोनों के रास्ते अलग हो चुके हैं.

यूं तो नंदिता दास और सुबोध मस्कारा के अलगाव की खबरें जून 2016 में सबसे पहले चर्चा में आयी थी, मगर उस वक्त दोनों ने इस खबर को झुठला दिया था. उस वक्त सुबोध ने कहा था कि वह अपनी पत्नी नंदिता व बेटे विहान के साथ फ्रांस घूमने जा रहे हैं. अब नंदिता दास के करीबी दावा कर रहे हैं कि नंदिता पिछले दो वर्षों से अपने पति सुबोध से अलग अपने बेटे के साथ रह रही थी. तथा अदालत में तलाक का मुकदमा चल रहा था. बहरहाल, अब इनका अलगाव तय हो गया है.

खुद नंदिता दास ने अपने तलाक की खबरों को सच बताते हुए कहा है-‘‘यह सच है कि मैं अपने पति सुबोध से अलग हो चुकी हूं. इससे अधिक कुछ कहना नही चाहती. एक दर्दनाक समय गुजर गया. हम दोनों को अपने बेटे विहान की चिंता थी. पर सब ठीक हो जाएगा. पति पत्नी का अलगाव उस वक्त बहुत कठिन हो जाता है, जब आपकी संतान भी हो. बहरहाल, हम अपने बेटे की परवरिश को लेकर काफी चिंतित हैं और हम हमेशा अपने बेटे का भला चाहेंगे.’’

नंदिता दास का यह दूसरा तलाक है. इससे पहले नंदिता दास ने 2002 में सौम्या सेन से शादी की थी और यह शादी भी महज पांच साल चली थी. 2007 में सौम्या सेन से उनका तलाक हो गया था. कुछ दिन डेटिंग करने के बाद दो जनवरी 2010 को सुबोध से उनकी शादी हुई थी. यह शादी भी सात साल ही टिक पायी.

परिवारवाद से किनारा करते अखिलेश यादव

समाजवादी पार्टी की लड़ाई में ऊंट किस करवट बैठेगा, यह आने वाले समय में देखने को मिलेगा. यह लड़ाई किसी टीवी सीरियल डेली सोप की कहानी जैसी हो गई है. जहां पिता, पुत्र और सजिश जैसी घटनायें दिख रही हैं. समाजवाद की कहानी में जिस तरह से यू टर्न दिख रहे हैं वह सीरियलों को भी मात देते नजर आ रहे हैं. शुरुआत में सपा का यह विवाद लोगों में सहानुभूति का भाव जगा रहा था अब यह पूरी तरह से नाटक की शक्ल लेता जा रहा है. पार्टी और सरकार पर कब्जा करने के बाद मुख्यमंत्री और सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने नरेश उत्तम को उत्तर प्रदेश अध्यक्ष बनाकर यह संकेत जरूर दे दिया है कि वह परिवारवाद पर यकीन नहीं करते. प्रदेश अध्यक्ष के रूप में मुलायम परिवार के धर्मेन्द्र यादव का नाम आगे चल रहा था. वह सपा के लोकसभा में सांसद भी है.

अखिलेश यादव के लिये आने वाले दिन सबसे अहम होंगे. पिता मुलायम सिंह यादव उनके खिलाफ हैं. जिनको अखिलेश यादव ने पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से हटाकर सलाहकार मंडल में रख दिया है. सपा परिवार में जानकारी रखने वाले लोगों का कहना है कि पिता मुलायम पूरी तरह से अखिलेश के साथ हैं. वह तब खिलाफ हो जाते हैं जब उनको कुछ समझा दिया जाता है. अगर मुलायम ने 31 दिसम्बर को अखिलेश और रामगोपाल का पार्टी से निलंबन वापस न लिया होता तो 1 जनवरी को आयोजित पार्टी का सम्मेलन अवैध हो जाता. पार्टी कार्यकर्ता भी असमंजस में नहीं रहते. 1 जनवरी को मुलायम ने रामगोपाल सहित अखिलेश का सहयोग करने वाले कुछ लोगों को तो पार्टी से निकाल दिया पर अखिलेश को पार्टी में बनाये रखा.

मुलायम सिंह की परेशानी एक तरफ बेटा और एक तरफ भाई है. असल में भाई शिवपाल के साथ मुलायम की दूसरी पत्नी साधना, बेटा प्रतीक और बहू अपर्णा भी हैं. परिवार की इस लड़ाई में खुद मुलायम दो नांव की सवारी में फंसे हुये हैं. अखिलेश खेमा इस लड़ाई में अमर सिंह को बीच में लाकर परिवार के इस पेंच को बाहर रखना चाह रहा है. जिससे अखिलेश और मुलायम आमने सामने न दिखें. अखिलेश को इस बात का भय है कि अगर बात मुलायम बनाम अखिलेश की आई तो सपा का बड़ा वर्ग मुलायम के साथ खड़ा हो सकता है. दो माह पहले इस लड़ाई में अमर सिह को सामने कर दिया गया था. उसके बाद अमर सिंह और शिवपाल दोनों ही हाशिये पर चले गये थे.

सरकार के बाद संगठन पर कब्जे की जदोजहद में अमर सिंह कहीं दूरदूर तक दिखाई नहीं दे रहे और शिवपाल महज मोहरा भर बन कर रह गये हैं. अब सीधा सामना पिता और पुत्र के बीच है. पिता का असमंजस अपनी जगह है. वह दूसरे परिवार को छोड़ नहीं सकता और पुत्र के साथ रह नहीं सकता. सपा के विशेष अधिवेशन में अगर अखिलेश अपने पक्ष में मुलायम को वहां पर खड़ा कर लेते तो बात दूसरी होती. विरोधियों को यह कहने का मौका नहीं मिलता कि अखिलेश ने पार्टी पर कब्जा कर लिया है. आने वाले दिनों में यह शह और मात का खेल चलेगा. इससे यह पूरी लड़ाई किसी नाटक में बदल कर रह गई है. समर्थक और विरोधी अपनी अपनी तरह से इसका विश्लेषण करते रहेंगे.    

दो हजार सतरा, लोकतंत्रों को खतरा

दुनियाभर के देशों में वर्ष 2011 में उठी क्रांति की ज्वाला अब ठंडी पड़ गई है. काहिरा के तहरीर चौक, दिल्ली के जंतरमंतर, न्यूयौर्क की वालस्ट्रीट जैसी जगहों पर आक्रोश में जो मुट्ठियां हवा में लहरा रही थीं अब वे तालियों में तबदील हो गई हैं. जिन भ्रष्ट, बेईमान, धार्मिक, सामंती, तानाशाही सोच के खिलाफ जो जनसैलाब उमड़ा था अब वहां गुस्सा नहीं, जयजयकार है. मानो बदलाव की आंधी में तमाम बुराइयों का सफाया हो गया.  क्या दुनिया के देशों में शासकों की तानाशाही सोच और नीतियां बदल गई हैं? क्या उदार लोकतांत्रिक मूल्य, समानता, स्वतंत्रता स्थापित हो चुके हैं? जातीय, धार्मिक, नस्लीय, अमीरीगरीबी का भेदभाव व छुआछूत खत्म कर चुके हैं?  सामाजिक, राजनीतिक भ्रष्टाचार खत्म कर दिया गया है? बिलकुल नहीं. फिर भी दुनियाभर, खासतौर से विश्व के 2 सब से बड़े और पुराने लोकतंत्रों अमेरिका और भारत में जनता के बीच कहीं कोई गुस्सा नहीं दिखता.

दुनियाभर में चालाकी और चतुराई से अब धार्मिक, व्यापारिक राजनीतिक तानाशाही ताकतें लोकतंत्र का लबादा पहन कर नए रूप में जनता की हितैषी बन कर सामने आ रही हैं. निरंकुश निर्णय थोपे जा रहे हैं. नासमझ जनता भी इन्हें सिरमाथे पर बैठाने में पीछे नहीं है. धार्मिक और सैनिक तानाशाह वाले देशों जैसे मिस्र में मोहम्मद मोरसी और मुसलिम ब्रदरहुड और उदार लोकतंत्रों जैसे भारत में भाजपा के नरेंद्र मोदी और अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी के डोनाल्ड ट्रंप की जन लोकप्रियता से साफ है कि  इन देशों की जनता 5-7 साल पहले जिस व्यवस्था के खिलाफ आक्रोशित थी, अब उसी व्यवस्था के हिमायती नेताओं को पलकों पर बिठा रही है.

निरंकुश शासक

रूस, चीन, ब्रिटेन, फ्रांस, मिस्र जैसे देशों में कट्टर, संकीर्ण विचारधाराएं प्रबल हो रही हैं. विश्व को दिशा देने वाले महत्त्वपूर्ण कथित शक्तिशाली लोकतांत्रिक देशों में लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों, उद्देश्यों को ताक पर रख कर मनमाने, तानाशाहपूर्ण निर्णय लिए जा रहे हैं. अमेरिका, भारत, रूस में कहने को वोटों के जरिए सरकारें चुन कर आईं पर यहां उन राजनीतिक दलों या नेताओं की सरकारें हैं जिन का असल में लोकतंत्र में विश्वास नहीं रहा. धर्म, जाति, नस्ल के नाम पर इन की राजनीति चली. इन नेताओं की विचारधारा का क्रियान्वयन शासन और प्रशासन में दिख रहा है. अमेरिका के चयनित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के फैसलों में भी निरंकुशता की झलक दिखने लगी है. उन्हें अपरिपक्व और अराजक विचारों के रूप में मीडिया में पेश किया जा रहा है. उन के फैसलों की आलोचना हो रही है. देश की समस्याओं पर ध्यान देने के बजाय वे ट्विटर पर अपने आलोचकों पर हमले करने में समय बरबाद कर रहे हैं. ट्रंप ने एक्सा नमोबिल के सीईओ रेक्स टेलरसन को विदेश मंत्री पद पर नियुक्ति किया है. टेलरसन का ट्रंप की तरह विदेशों में बड़ा कारोबार है. वे रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन के मित्र भी हैं. अमेरिकी चुनावप्रचार के दौरान ट्रंप और पुतिन की दोस्ती पर प्रश्न उठते ही रहे थे. पुतिन को हिलेरी क्लिंटन के खिलाफ और ट्रंप के अधिक करीब बताया गया था.  डोनाल्ड ट्रंप ने अपने सुरक्षा सलाहकार के तौर पर जनरल माइकल फ्लिन को नियुक्त किया है. इन्हें कट्टर मुसलिम विरोधी, नस्लवादी और धार्मिक षड्यंत्रकारी के तौर पर जाना जाता है.

उन के द्वारा बनाए गए मुख्य रणनीतिकार स्टीव बैनन को गोरों से लगाव रखने वाला करार दिया जा रहा है. अटौर्नी जनरल नियुक्त किए जा रहे जेफ सेसंस के बारे में कहा जा रहा है कि वे अपनी नस्लीय सोच के लिए जाने जाते हैं. इस सोच के चलते उन्हें पिछली सरकारों ने जज नहीं बनाया था. डोनाल्ड ट्रंप गरीब, मजदूर, वेतनभोगियों पर ऐसा मंत्री थोप रहे हैं जो न्यूनतम मजदूरी से जुड़े कानूनों का भारी विरोध करते रहे हैं. ये सब ट्रंप के निजी तौर पर लिए गए फैसले हैं. हालांकि ‘अमेरिका इज बाई नैचर अ कंट्री औफ इमीग्रैंट्स’ कहलाता था पर अब ट्रंप कह रहे हैं कि राष्ट्रपति पद संभालने के बाद उन का पहला आदेश आव्रजन को ले कर होगा. डोनाल्ड ट्रंप द्वारा 20 जनवरी को राष्ट्रपति पद ग्रहण करने से पहले ही एच 1 वीजा पर  काम शुरू कर दिया गया है. डिज्नी जैसी कंपनियों के खिलाफ कार्यवाही की जा रही है. इस कंपनी ने बड़़े पैमाने पर अमेरिकी लोगों की जगह भारतीयों व अन्य देशों के लोगों को नौकरियां दी थीं.

डोनाल्ड ट्रंप ने चुनाव जीतने के बाद यह भी कहा था, ‘मेरी सरकार एकदम सीधा नियम बनाएगी, अमेरिकियों की चीजें खरीदो और अमेरिकियों को काम दो. हमें अपनी कंपनियों से काफी प्यार है पर अगर वे देश से बाहर जाएंगी तो हम उन से प्रेम नहीं करेंगे.’ एक बार फिर अमेरिका कुएं का मेढक ही बनना चाह रहा है. आव्रजन के नियम बदलने से भारतीय आईटी कंपनियों पर सीधा असर पड़ेगा. ट्रंप ने चुनावों में अमेरिकी युवाओं से विदेशी कंपनियों से नौकरियां छीन कर उन्हें देने का वादा किया था. उन के लिए 200 सालों में बनी संस्थाएं निरर्थक हैं. वे अपने बच्चों, पत्नी व पुराने अमीर साथियों के साथ देश को चलाने की तैयारी में हैं.

डोनाल्ड ट्रंप की नीतियां अमेरिका में बड़े यत्न से बनाई गई लोकतंत्र की सोच को तोड़ने में लग गई हैं. उन की अलोकतांत्रिक विचारधारा चुनावप्रचार में ही दिख गई थी. उन्होंने आप्रवासियों को बाहर निकालने, मुसलमानों को शरण न देने, मसजिदों पर निगरानी रखने, अश्वेतों के साथ नस्लीय भेदभाव जारी रखने का संदेश दे दिया था. स्त्रियों के प्रति उन के विचार भी भारत के तुलसीदास की कुख्यात सोच ‘ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी; ये सब ताड़न के अधिकारी’ से प्रेरित आम कट्टर हिंदुओं की सोच से अलग नहीं हैं. गर्भपात, समलैंगिक संबंध जैसे विषयों पर भी डोनाल्ड ट्रंप चर्च और पोंगापंथी कैथोलिकों से सहमत दिखते हैं.

भेदभाव की व्यवस्था

सदियों से गुलाम रही पुन अमेरिका और भारत की जनता अपने नए शासकों की चिकनीचुपड़ी, मीठी बातों में अपना कल्याण देख रही है और सुनहरी कल्पनाओं में डूबी है. भले ही इन की नीतियां और फैसले गरीब, आम लोगों को रसातल में ले जाने वाले हों. इन देशों के धर्मभक्त लोगों में पंडेपुजारी, पादरी, मौलवी अपने अनुयायियों को ईश्वर, उस के अवतार राजा पर संदेह नहीं, सिर्फ आस्था रखने की बात प्रचारित करते आए हैं. लेकिन वहां उदार, तार्किक, बराबरी के हकदार, सरकार के सेवक समझने वाले तत्त्वों की पकड़ भी थी. भारत और अमेरिका में पिछली 2 सदियों में जिस धार्मिक, सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ आंदोलनों और कानूनों के जरिए बदलाव के प्रयास हुए, अब वहां वापस वही व्यवस्था कायम करने वाली सोच और नीतियों की कवायद की जा रही है. बराबरी पर आ रहे समाज में अमेरिका में अब फिर से गोरों का वर्चस्व कायम करने की बात दबे शब्दों में बिना कहे थोपी जा रही है. अमेरिका में करीब 250 सालों से श्वेतअश्वेत, यहूदीहिस्पैनिक भेदभाव चलता आया है. लेकिन लगातार इस भेदभाव के खिलाफ चले आंदोलनों का परिणाम था कि बराक ओबामा जैसे अश्वेत को अमेरिका के राष्ट्रपति पद पर पहुंचने का अवसर मिला.

अमेरिका में 1950 से 1970 तक नस्लीय भेदभाव मिटाने, शिक्षा, रोजगार में समान अवसर देने के लिए कई कानून बनाए गए और सुप्रीम कोर्ट ने कई अहम फैसले किए. पिछली डेढ़ शताब्दी से अमेरिका में लोकतंत्र की सोच मजबूत हो  रही थी पर अब डोनाल्ड ट्रंप और उन के कट्टर गोरे अमीरों व चर्च से प्रभावित संगठनों ने अमेरिका को वापस 18वीं सदी में धकेलने की तैयारी कर ली है. अमेरिका हमेशा से दुनियाभर के सताए हुए लोगों को शरण देने में आगे रहा है. पिछले 8-10 दशकों में वहां आप्रवासियों के लिए चारों ओर से रास्ते खोल दिए गए थे. पर अब तानाशाह ट्रंप मैक्सिको सीमा पर दीवार खड़ी करने का अपना संकल्प दोहरा रहे हैं. लोकतंत्र का प्रहरी अमेरिका दीवारें गिराने के बजाय खड़ी करने की बात कर रहा है.

संकीर्णता का वर्चस्व

दुनिया करीब आ रही थी. पिछली सदी के अंत तक विश्वभर के लोगों को एक व्यापक फलक दिखने लगा था. इंसान कहीं भी आजा सकता था, कहीं भी रह कर रोजगार, शिक्षा पा सकता था. अमेरिका में सिविल राइट ऐक्ट 1964 ला कर नस्ल, रंग, धर्म, लिंग या मूल राष्ट्रीयता के नाम पर भेदभाव करने पर प्रतिबंध लगाया गया. इस के बाद समानता, स्वतंत्रता, न्याय को ले कर कई और कानून बने. कालों को वोट का अधिकार नहीं था, संपत्ति केवल गोरों के पास होती थी उसी प्रकार कि जिस तरह भारत में शूद्रों को संपत्ति का अधिकार नहीं था, ब्राह्मण को यह हक हासिल था. 60 के दशक में होटलों, व्यापारियों और श्वेत कार ड्राइवरों द्वारा अश्वेतों को सेवा देने से इनकार करने का काफी चलन था. इसी दौरान मार्टिन लूथर किंग ने सुधार के लिए आंदोलन किए.

दूसरे विश्व युद्घ के बाद देश की आधी से ज्यादा अश्वेत आबादी दक्षिणी ग्रामीण क्षेत्रों के बजाय उत्तर और पश्चिम के औद्योगिक शहरों में रहने लगी थी. यह आबादी बेहतर रोजगार के अवसर, शिक्षा और कानूनी अलगाव से बचाव के लिए आ कर इधर बसने लगी थी. कानूनों के बाद भी सामाजिक तौर पर भेदभाव की व्यवस्था बनी रही. भेदभाव वाली अमेरिकी सामाजिक व्यवस्था में पहले से ही गैर हिस्पैनिक गोरों की अपेक्षा काले ज्यादा गरीब हैं. गोरों के बजाय कालों की गरीबी दर दोगुनी है. बराबरी वाले कानूनों के बावजूद कालों के मुकाबले गोरों की संपत्ति बढ़ी है. ट्रंप यह आर्थिक खाई अब और बढ़ाएंगे. यहां 300 साल पहले आए यहूदियों को कुछ धार्मिक आजादी जरूर मिली पर जो ईसाई नहीं थे उन्हें वोटिंग का अधिकार नहीं था. बाद में यह प्रतिबंध हटाया गया. लेकिन भारत के विहिप, बजरंग दल, संघ की तरह अमेरिका में भी कई कट्टर हिंसक हेट गु्रप हैं जो गैर ईसाइयों पर हमले कर रहे हैं. गोरों के ये संगठन अब ताकतवर हो गए हैं.

मोदी की नीतियों के प्रचारप्रसार और उन्हें आगे लाने में हिंदू संगठनों ने जिस तरह भूमिका निभाई, अमेरिका में ईसाई संगठनों ने जीसस के नाम पर, जीसस के सेवाकार्य के लिए और क्रिश्चियन वैल्यू के नाम पर अपने धर्म वालों को एकजुट करने का काम किया. कहा जा रहा है कि अब ये लोग भारत के हिंदू राष्ट्र की तर्ज पर अमेरिका में क्रिश्चियन नेशन की मांग करने लगेंगे. उत्तर कोरिया के तानाशाह किम जोंग उन की तर्ज पर नए चयनित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका में सामंती, शोषणकारी, भेदभाव वाले पोंगापंथी चर्च, कौर्पोरेटी वर्चस्व ला रहे हैं. वहीं, अमेरिका की तरह भारत में भी पुराने धार्मिक व सामाजिक विभाजन वाली व्यवस्था के प्रयास जारी हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उन के अंधभक्त हिंदुत्व कौर्पोरेट सलाहकारों ने देश की आर्थिक व्यवस्था पर प्रहार किया है. इस से समाज 2 टुकड़ों में दिख रहा है. पहले कालाधन बाहर निकालने और फिर कैशलैस सोसाइटी के नाम पर मनमाने फैसले थोपे जा रहे हैं. एक तरफ पढ़ालिखा सवर्ण वर्ग है जिन के पास डैबिट, कै्रडिट कार्ड, इंटरनैट, मोबाइल बैंकिंग, लेनदेन के कई सारे ऐप्स हैं, दूसरी ओर दलित, पिछड़ा, गरीब, किसान, आदिवासी, मजदूर, छोटे दुकानदार हैं जो रोजमर्रा की मजदूरी से अपना पेट पाल रहे हैं. इन लोगों के पास बैंक खाता तक नहीं है, कार्ड और औनलाइन लेनदेन की बात तो दूर.

इस वर्ग के लिए नकदी लेनदेन अधिक सुविधाजनक रहा है पर सरकार तानाशाहपूर्ण डिजिटल लेनदेन लाद रही है. विमुद्रीकरण का फैसला मोदी ने तटस्थ अर्थशास्त्रियों की सलाह से नहीं, अपने चंद जीहुजूरियों के साथ लिया है. इस फैसले से गरीब प्रभावित हुआ है. अमीरों पर असर नहीं दिखता. कालाधन बैंक अधिकारियों की मिलीभगत से बड़े पैमाने पर सफेद हो गया है. सारे लक्ष्य ध्वस्त हो गए हैं. नोटबंदी से आर्थिक अराजकता, उथलपुथल के अलावा कुछ नहीं हुआ. यह गैरलोकतांत्रिक निर्णय है. उलटे, बैंकों में भ्रष्टाचार सामने आ रहा है. बैंक अधिकारियों की मिलीभगत से मोदी के कालाधन बाहर निकालने की मुहिम पर पलीता लगा है. करोड़ोंअरबों की नई करैंसी आएदिन काले कारोबारियों के पास मिल रही?है. बैंक अधिकारी पकड़े जा रहे?हैं. बड़ी मात्रा में कालाधन सफेद हो चुका?है. मोदी मंत्रिमंडल में जनता द्वारा ठुकरा दिए गए बिना जनाधार वाले ताकतवर मंत्री अरुण जेटली  का वित्त मंत्रालय और उन की इंटेलीजैंस संस्थाएं नाकाम नजर आ रही हैं.

समान नागरिक संहिता पर मोदी सरकार अड़ी है. यह उन कट्टर हिंदू संगठनों का दबाव है जिन्होंने मोदीमोदी के नारे लगाने के लिए अपनी फौज सोशल मीडिया और उन की हर रैली व कार्यक्रमों में झोंक रखी है. भारत और अमेरिका दोनों की सरकारें कट्टर सोच वाले अलोकतांत्रिक फैसले कर रही हैं. ऐसे में भारत और अमेरिका को पाकिस्तान की कट्टर आतंकी सोच पर उंगली उठाने का हक नहीं रहेगा. अपनी अलोकतांत्रिक नीतियों और फैसलों की वजह से ये नेता एडोल्फ हिटलर, मुसोलिनी, जोसेफ स्टालिन, किम जोंग की कतार में दिखने लगेंगे. उधर, रूस में पुतिन के शासन में लोकतांत्रिक इंडैक्स में गिरावट आई है. भ्रष्टाचार में बढ़ोतरी हुई है. यूक्रेन, सीरिया में सैन्य हस्तक्षेप बढ़ने से धार्मिक तनाव चरम पर पहुंच गया. यह पुतिन के धार्मिक प्रेम की वजह से है. पुतिन भी रूस में मोदी की तरह शिक्षा, मकान, स्वास्थ्य और कृषि क्षेत्रों में सुधार का वादा कर सत्ता में आए थे पर वे रूसी और्थाेडौक्स चर्च के हुक्म के तलबगार बने दिखने लगे. 2012 में भारी जीत में गड़बड़ी के आरोप लगने पर उन के खिलाफ प्रदर्शन भी हुए. बदले में उन की यूनाइटेड रूस पार्टी के उन के समर्थकों ने रैलियां कीं.

पुतिन और उन के  धार्मिक कट्टर समर्थक संगठन समलैंगिकों के खिलाफ हैं. उन पर हमले होते रहते हैं. तनाव का असर वहां की जीडीपी पर भी पड़ा. 2015 में जीडीपी गिर गया. असल में रूस में 1914 में चर्च का बड़ा वर्चस्व था. 1917 में रशियन एंपायर ध्वस्त होने के बाद लेनिन ने कई सुधार किए. सब से पहले चर्च और राज्य को अलगअलग घोषित किया गया. वहां बुद्धिस्ट, ईस्टर्न और्थोडौक्स क्रिश्चियन, इसलाम और यहूदी परंपरागत धर्म रहे हैं पर इन के बीच कोई शांति नहीं रही. बाहर से आए ईसाइयों के अलग चर्च होने के बावजूद एक ही धर्म में झगड़े आज भी चल रहे हैं. पुतिन ने ईसाइयत को संरक्षण दिया. स्कूलों में धर्म की पढ़ाई कराने की इजाजत दी. वे खुद और्थोडौक्स चर्च जाते रहे हैं.

क्रांति की दरकार

मिस्र में 2011 की गुलाबी क्रांति के बाद लोकतंत्र का मुखौटा लगा कर सत्ता में कट्टरपंथी दक्षिणपंथी मुसलिम ब्रदरहुड सत्ता में आया. इस से पहले 1990 के दौर में इसलामी कट्टरपंथी ग्रुप सक्रिय हो गए थे. हिंसा का दौर चला. आमलोग इन से आजिज आ गए. सत्ता में भ्रष्टाचार, सैन्य तानाशाही और मजहबी बंदिशों ने लोगों को बगावत करने पर मजबूर कर दिया और तहरीर चौक पर जनसैलाब उमड़ पड़ा. काहिरा में बड़े पैमाने पर क्रांति की शुरुआत हुई, प्रदर्शन हुए. मुबारक सरकार का तख्ता पलट दिया गया और उन्हें काहिरा छोड़ कर भागना पड़ा. मार्च में चुनाव हुए तो मोहम्मद मोरसी राष्ट्रपति चुने गए. दक्षिणपंथी मुसलिम ब्रदरहुड लोकतंत्र के नाम पर चुन कर सत्ता में आया पर नए कानूनों में यह दल सख्ती से इसलामिक परंपराएं लागू करने पर उतारू रहा. जुलाई 2013 में मोरसी को हटा दिया गया. देश एक बार फिर अनिश्चितता की ओर चला गया.

लोकतंत्रों का जन्मदाता ब्रिटेन भी इसी राह पर है. ब्रिक्सिट फैसला ब्रिटेन के अपने में ही सिमटने का सुबूत है. यह उदारता नहीं, संकीर्णता का प्रमाण है. जनमत संग्रह से ब्रिटेन यूरोपीय यूनियन से अलग हुआ था. फैसला कैसे हुआ, यह आज भी अस्पष्ट है. अमेरिका, यूरोप में समयसमय पर क्रांतियां होती रही हैं. इन से वहां सामाजिक, राजनीतिक बदलाव आए. अनेक वैज्ञानिकों, दार्शनिकों, समाजसुधारकों ने समाजों में लोकतांत्रिक सोच विकसित करने के प्रयास किए, स्वतंत्रता, समानता पर जोर दिया. भारत में 18वीं सदी से धार्मिक व्यवस्था के खिलाफ सुधार आंदोलन हुए. कानूनों के जरिए बराबरी के प्रयास हुए, इस का सकारात्मक असर दिखने लगा था पर अब असली उदार लोकतंत्र की जगह छद्म लोकतंत्र हावी हो रहा है. जहां धार्मिक संकीर्णता, भेदभाव, असमानता, गुलामी है जबकि स्वतंत्रता, न्याय नहीं है. आज फिर जनता की आंखों पर परदा डाल दिया गया है ताकि उसे दिखाई न दे कि ये लोग उसी व्यवस्था के पहरेदार हैं जो जनता को लूटती है. दुनिया में बहुत चतुराई से लोकतंत्रों का तानाशाहीकरण किया जा रहा है और जनता को पता भी नहीं चल पा रहा है. जनता, उलटे, वाहवाही कर रही है. वाह, क्या चमत्कार है? कैसा जादू है?  किस अफीम के नशे में झुमाया जा रहा है? वाह मोदी, वाह ट्रंप, वाह पुतिन, वाह शी जिनपिंग.

अंधेरा कब तक

कोई भी सरकार और वहां का शासक अपनी नीतियों व कानूनों के माध्यम से मानवता, बराबरी, स्वतंत्रता, न्याय की एक संस्कृति विकसित करता है. अगर वह किसी खास धर्म, जाति, वर्ग, नस्ल को प्रश्रय देगा और औरों की उपेक्षा करेगा, दंडित करेगा तो ऐसी नीति दूसरे लोगों में आक्रोश जगाएगी. लोकतंत्र के मूल स्वभाव में किसी तरह का भेदभाव नहीं है. लोकतंत्र में हर फैसले लोगों की सलाह या बहुमत से होते हैं. जनता के वोटों से लोकतंत्र में चुन कर आने वाला शासक अगर मनमरजी से निरंकुश फैसला करता है तो वह समाज और देश का भला नहीं, नष्ट करने वाला सिद्ध होता है.

विश्व में जनता से मिल रही शक्ति से दक्षिणपंथी ताकतें लोकतंत्र नहीं, तानाशाही कायम कर सकती हैं. ट्रंप, मोदी, पुतिन जैसे नेता न केवल अपने देशों के लोगों के लिए, बल्कि विश्व के लिए भी संकट पैदा कर रहे हैं. सदियों की धार्मिक बदहाली से बाहर निकलने का प्रयास कर रहे ये देश अब फिर से उसी दलदल में धंस रहे हैं. यह दुनियाभर के लिए खतरे का संदेश है. इतिहास से सीख न लेने वाला समाज और देश हमेशा दुखी रहता है. शिक्षा, सभ्यता, वैज्ञानिक तरक्की के बावजूद अमेरिका, भारत, रूस, फ्रांस जैसे अग्रणी देशों की सोच धर्मों की संकीर्ण सड़ीगली पगडंडियों की पिछलग्गू क्यों दिखाई दे रही हैं. इन में केवल अंधकार ही अंधकार है, प्रगति की रोशनी नहीं. क्या जनता विश्व को एडोल्फ हिटलर, मुसोलिनी, स्टालिन, किम जोंग उन, डोनाल्ड ट्रंप, ब्लादिमीर पुतिन, नरेंद्र मोदी देती रहेगी? मार्टिन लूथर किंग, मुस्तफा कमाल पाशा को कौन चुनेगा?

2017 का उल्लास, पर नोट खलास

लोग आशंकाओं और दुश्चिंताओं के बीच साल 2017 का स्वागत कर रहे हैं. उन के उत्साह पर एक ग्रहण है और यह अनिश्चितता भी, कि अब क्या होगा. नया साल अच्छे से बीते, आप स्वस्थ रहें, धन और वैभव आप के पास रहें, आप खुश रहें जैसी शुभकामनाएं अगर बेमन से दी और ली जा रही हैं तो यकीन मानें, सबकुछ ठीकठाक नहीं है, कोई बड़ी गड़बड़ जरूर है. यह गड़बड़, दरअसल, 2014 के लोकसभा चुनाव प्रचार के साथ ही शुरू हो गई थी जब लोग यह भूल गए थे कि लोकतंत्र में केवल सत्तारूढ़ दल चुन लेने से ही वोट देने की सार्थकता सिद्ध नहीं हो जाती. इस में एक मजबूत विपक्ष की भी जरूरत होती है जो सत्तारूढ़ दल या गठबंधन पर नियंत्रण रखे. उस चुनाव में लोगों ने अब तक का सब से कमजोर विपक्ष चुन कर संसद में भेजा. उस के दुष्परिणाम अब सामने आने लगे हैं.

2001-2002 या उस के बाद के सालों की तो बात करना ही बेमानी है. शायद ही कोई 2015 की किसी उल्लेखनीय घटना को बता पाए जिस ने सीधे सामाजिक जीवन पर सकारात्मक असर छोड़ा हो. लेकिन 8 नवंबर, 2016 लोगों को जिंदगीभर याद रहेगी, ठीक वैसे ही जैसे 25 जून, 1975 याद है. नोटबंदी पर बहस जारी है. सत्तारूढ़ दल कह रहा है, धैर्य रखते इस के दूरगामी चीजों का इंतजार करो और उलट इस के, बिखरा विपक्ष चिल्ला रहा है कि यह घोटाला है, अदूरदर्शिता है, मनमानी है. इस से किसी को कोई फायदा नहीं होने वाला वगैरावगैरा. कौन सच्चा, कौन झूठा है, यह कोई तय नहीं कर पा रहा. नवंबर 2016 में नोट बदली के लिए लगी लाइनें इतिहास में दर्ज हो चुकी हैं. नोट बदलने में हुई परेशानियां इस दौर के लोग चाह कर भी भुला नहीं सकते. एक समृद्ध, संपन्न विकासशील देश की जनता पास में पैसे होते हुए भी जरूरी चीजों की मुहताज हो गई. देश का गरीब और किसान फिर कुदरत के भरोसे हो गया. आम मध्यवर्गीयों से भी खुश होने के मौके छिन गए. 2016 की यही कुछ इकलौती उपलब्धियां रहीं. 30 दिसंबर का इंतजार करते लोगों को बगैर किसी जानकार या विशेषज्ञ के समझाए समझ आ गया है कि पैसा वाकई किसी का सगा नहीं होता. कड़कड़ाती ठंड में देररात जेब में एटीएम कार्ड लिए यहां से वहां भटकते लोगों की बेचारगी और मुंह चिढ़ाती एटीएम मशीनें, कैसे जनजीवन अस्तव्यस्त कर गईं और क्यों लोगों ने इस से समझौता कर लिया, इन सवालों के जवाब अब कभी कहीं मिलेंगे, ऐसा लग नहीं रहा. नोटबंदी ने कैसेकैसे लोगों की खुशियां और उल्लास छीने, यह अब किसी से छिपा नहीं रह गया है. लेकिन इस का जिम्मेदार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कुछ लोग ठहराने से कतरा रहे हैं तो इस की वजह समझनी जरूरी है. कहीं यह डर तो नहीं और अगर यह डर ही है, तो बात देश और समाज के लिहाज से चिंता की है. कुछ लोग मोदी की भक्ति करें, यह बात उतनी नुकसानदेह नहीं है जितनी यह, कि लोग मारे डर के अवसाद में जीने लगें.

कौन है जिम्मेदार

सवा 2 साल में देश में कुछ खास बदलाव नहीं आए हैं. कोई नेता अपने भारीभरकरम, लुभावने चुनावी वादों पर खरा न उतरे, इस की आदत लोगों को पड़़ चुकी है और इसीलिए वे शायद सत्तारूढ़ दल से इस बाबत ज्यादा उम्मीदें भी नहीं रखते. नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद पर बैठाने के लिए वोट देते वक्त लोगों के मन में खुशी और उत्साह के साथसाथ कुछ आशंकाएं भी थीं. अब खुश होने की तो कोई वजह नहीं, लेकिन आशंकाएं नएनए तरीकों से सिर उठा रही हैं. संसद के शीतकालीन सत्र का ठप पड़ जाना इन आशंकाओं को और बढ़ा गया. इस से यह भी साबित हुआ कि सत्तारूढ़ दल की ताकत उतना नुकसान नहीं पहुंचाती जितनी कि विपक्ष की कमजोरी पहुंचाती है. यह विपक्ष भी उन आम लोगों का चुना हुआ है जो अपनी रोजमर्राई परेशानियों को ले कर हायहाय कर रहे हैं. चौराहों और सोशल मीडिया पर बहस का सब से पसंदीदा विषय आज भी राजनीति ही होता है हालांकि सौ में से 8 लोगों को भी नहीं मालूम कि लोकसभा और राज्यसभा में विपक्ष के नेता क्रमश: मल्लिकार्जुन खड़गे और गुलाम नबी आजाद हैं.

इस से पहले, कांग्रेस जब भी विपक्ष में बैठी तब बड़ी दमदारी से सत्तारूढ़ दल के कान उमेठती थी और यही लोकतंत्र की खूबी भी है कि विपक्ष, सत्तारूढ़ दल को मनमानी न करने दे. भाजपा में यह खूबी थी कि वह विपक्ष में रहते हमेशा गलत फैसलों पर कांग्रेस को घेरने में कामयाब रहती थी और झुकने को मजबूर भी कर देती थी. अब कांग्रेस ऐसा न कर पा रही तो इस का जिम्मेदार कौन है राहुल गांधी, सोनिया गांधी या वह जनता जो अब अपनी ही चुनी हुई सरकार के फैसलों के सामने नतमस्तक होने लगी है. यानी दिक्कत की एक बात यह भी है कि आज भी कांग्रेस का मतलब गांधी परिवार होता है. कोई स्वतंत्र विचारधारा वाला दल नहीं. नरेंद्र मोदी ने इस परिवारभक्ति या दबदबे पर प्रहार कर ही सत्ता हासिल की थी और अब कह रहे हैं, ‘‘मैं तो फकीर हूं, प्रधानमंत्री नहीं, प्रधान सेवक हूं, जनता के कष्ट हरूंगा, पापियों का नाश करूंगा, गरीबों को उन का हक दिला कर रहूंगा, पर दिक्कत यह है कि मुझे संसद में बोलने नहीं दिया जाता, इसलिए मैं जनसभाओं में बोलता हूं.’’ क्या यह मजाक नहीं कि पूर्ण बहुमत से चुनी गई सरकार का मुखिया ऐसा कहे? दरअसल, नोटबंदी के मसले पर बोलने को कुछ बचा नहीं है सिवा अफरातफरी और आर्थिक अनिश्चितता के, जिस के चलते लोग देश की मूल समस्याएं तो भूल ही गए हैं, साथ ही, अपनी व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक व आर्थिक समस्याओं के चक्रव्यहू में ऐसे फंस गए हैं कि उन की सोचनेसमझने की ताकत खत्म सी होती जा रही है.

सामाजिक अवसाद के माने

सामाजिक अवसाद के माने बहुत साफ हैं कि जिस में एक पूरा वर्ग या समूह खुद को असहाय और असुरक्षित समझने लगे. आतंकवाद, कालाधन, भ्रष्टाचार या नकली नोट कभी सामाजिक अवसाद की वजह नहीं बने क्योंकि ये आम लोगों की रोजमर्राई जिंदगी पर कोई सीधा प्रभाव नहीं डाल रहे थे. सरकारी एजेंसियां इन से लड़ती हैं. पुलिस भ्रष्ट ही सही लेकिन अपराधियों को पकड़ती तो है, सेना सरहद पर दुश्मनों के मंसूबों को कामयाब नहीं होने देती. यह बात लोगों की बेफिक्री देने वाली होती है. लेकिन नोटबंदी ने जो हलचल मचाई उस का कोई तोड़ किसी के पास नहीं है. लाइन में लगे करोड़ों लोगों ने अपनी व्यथा बताई पर वे मन की बात व्यक्त नहीं कर पाए, सरकार और नरेंद्र मोदी को कोस कर खुश हो लिए.

लोकतंत्र में सरकार का एक अहम काम जनता को सुरक्षा की गारंटी देना भी है, जिस में मौजूदा सरकार लगातार असफल साबित हो रही है. अब हालत यह है कि लोग नकदी को ले कर सहमे हुए हैं कि कल को घर में कोई बीमार पड़ गया तो इलाज और दवाइयों के लिए कहां भटकते रहेंगे. एक अंदाजे के मुताबिक, नोटबंदी के बाद 2 लाख शादियां टल गईं. यानी लोगों से खुशी का एक मौका छिन गया. कैसे लोग सामाजिक अवसाद की गिरफ्त में आ रहे हैं, इसे 8 नवंबर के बाद से होने वाले घटनाक्रमों से आसानी से समझा जा सकता है. पहले लोग सुबह उठते थे और अपने कामकाज में लग जाते थे, किसान खेत में चले जाते थे, नौकरीपेशा दफ्तरों में और व्यापारी अपनी दुकानों, संस्थानों में नजर आते थे. इन लोगों के चेहरों से कोई तनाव या चिंता जाहिर नहीं होते थे. बड़ी दिक्कत यह नहीं है कि कारोबार ठप पड़ गया है या बुआई नहीं हो रही है या फिर कामकाज रुक गए हैं. बड़ी दिक्कत यह है कि ये धीरेधीरे रुक रहे हैं और सरकार के आश्वासन व वादे एक के बाद एक खोखले साबित हो रहे हैं.

पहले लोगों से कहा कि गया कि 2-4 दिनों की बात है, फिर जिल्लतभरे इन दिनों की मियाद 50 दिन कर दी गई. इतना ही नहीं, बारबार पैसे निकालने के नियम बदले गए. अब धीरेधीरे बात नकदीरहित लेनदेन पर आ पहुंची है. जबकि 20 फीसदी से भी ज्यादा लोग भी उस तकनीक से नहीं जुड़े हैं जिस का सरकार ढिंढोरा पीट रही है. अर्थव्यवस्था, सूचकांक, वैश्वीकरण और जीडीपी जैसे भारीभरकम शब्दों से परे सच यह है कि मुद्रा का प्रवाह ही नहीं, बल्कि उत्पादन बंद हो गया है. और यह सब इतने धीमे हो रहा है कि लोग खुद को रोज नई दुश्ंिचता में फंसा महसूस कर रहे हैं. आतंकवाद ज्यों का त्यों है. और तकनीक आई जरूर है लेकिन आम लोगों से पहले उसे आर्थिक अपराधियों ने अपना लिया. इसलिए 2 हजार रुपए के नकली नोट 15 नवंबर को ही बाजार में आ गए थे. रोज कहीं न कहीं नया काल धन पकड़ा जा रहा है. जिन बैंक वालों को कभी नरेंद्र मोदी ने सैल्यूट ठोंका था वे आज थोक में आर्थिक अपराधियों से सांठगांठ कर रहे हैं. मजदूरों को काम नहीं मिल रहा. बड़े शहरों में दूर से भले ही सबकुछ ठीक ठाक और चमकदमक भरा दिख रहा हो पर हालत यह है कि वहां के रोज कमानेखाने वाले लोग अपने राज्यों की तरफ पलायन करने लगे हैं. इस से असुविधा बड़े शहर वालों को तो हो ही रही है, साथ ही, जो लोग वापस गांवों की तरफ पलायन कर रहे हैं उन के लिए पेट भरने लायक रोजगार की कोई व्यवस्था ही नहीं है.

फिर किस गरीब, मजदूर, किसान के कल्याण की बात की जा रही है और किस मुंह से की जा रही है, बात समझ से परे है. 2016 इसलिए याद किया जाएगा कि इस में कोई भ्रष्टाचार खत्म नहीं हुआ था, धार्मिक आडंबर बंद नहीं हुए थे, कालाधन खत्म नहीं हो गया था, जाली नोटों की पैदावार बंद नहीं हो गई थी, बल्कि याद इसलिए किया जाएगा कि इस सब की आड़ में लोगों का जीना दुश्वार हो गया था और लोग एक आशंका में रह रहे थे. आशंका यानी एक सामूहिक अंर्तद्वंद्व, अनिर्णय की स्थिति और आर्थिक असुरक्षा जिस से नजात दिलाने में सरकार इसलिए असफल रही कि ये हालात एक के बाद उसी ने पैदा किए थे. पुरानी समस्याएं छुआछूत, पाखंड, भेदभाव और घूसखोरी कुछ समय के लिए दब गई थीं जो अब फिर सिर उठा रही हैं. यानी समस्याओं की संख्या बढ़ गई है जबकि वादा और इरादा उन्हें खत्म करने का जताया गया था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद अनिर्णय की मानसिकता के शिकार हैं, इसलिए पुराने निर्णयों की असफलता ढकने के लिए नएनए फैसले करते जा रहे हैं. दिक्कत तो यह है कि इन में से एक भी सटीक या कारगर साबित नहीं हुआ है. कैशलैस की असफलता के बाद वे क्या फरमान जारी करेंगे, तय कर पाना मुश्किल है. सोने और जमीन, जायदाद का उन का दांव भी एक बेसुरा आलाप ही साबित हुआ है.

यत्र तत्र सर्वत्र

सामाजिक अवसाद का यह माहौल हैरतअंगेज तरीके से देशभर में किस तरह फैला और पसरा है, इस का जायजा चुनिंदा राज्यों के हालात देख लगता है कि नए साल की शुभकामनाएं रस्मअदायगी में सिमट कर रह गई हैं. देश के सब से बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में चुनाव सिर पर हैं. 2017 की शुरुआत चुनावों से होना कोई उत्साह या उत्सुकता लोगों के मन में नहीं भर पा रही. पहली बार यहां का चुनाव नीरस और उबाऊ प्रचार के साथ नजर आ रहा है. ऐसा लगता है कि लोग सियासी दीवार पर टंगा कलैंडर देख सोच रहे हैं कि क्या करें, बदलें या रहने दें. सीधेसीधे कहा जाए तो लोग तमाम दलों और नेताओं से नाउम्मीद हो चुके हैं. लोकतंत्र की सब से बड़ी ताकत चुनाव को ले कर लोगों में निराशा का भाव साफ दिख रहा है. आम लोग राजनीति और राजनेताओं से विरक्त हो रहे हैं तो जाहिर है यह स्थिति चिंताजनक है. दरअसल, इस की एक बड़ी वजह राजनीतिक पार्टियों से सामाजिक विचारधारा का खत्म होना है. भाजपा, सपा, बसपा और कांग्रेस इस की अपवाद नहीं रह गई हैं. मुख्यमंत्री कौन होगा, कौन सा दल सत्ता में आएगा जैसी बातें अपना महत्त्व खोती नजर आ रही हैं. किसी भी संभावित गठबंधन से लोग घबराए हुए हैं और किसी एक को सत्ता न सौंपने की तरफ बढ़ रहे हैं तो इसे निराशा यानी अवसाद ही कहा जाएगा. कभी जिस कांग्रेस पर व्यक्तिवाद का आरोप लगता था, अब हर पार्टी उस की गिरफ्त में है.

सत्ता की लड़ाई और लोलपुता ने सामाजिक सरोकार हाशिए पर डाल दिए हैं. यह लोगों की उत्साहीनता की एक बड़ी वजह है. लोगों को यह समझ आ रहा है कि चुनावों से उन का कोई भला नहीं होने वाला, फिर क्या खा कर वे 2016 के अवसाद से उबर कर 2017 का स्वागत करें. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कई कल्याणकारी योजनाएं चलाईं लेकिन परिवार की कलह उन के किएधरे पर पानी फेर रही है. बसपा प्रमुख मायावती के तेवर हालांकि आक्रामक हैं पर उन का मकसद साफ नहीं, कांग्रेस दौड़ से बाहर है और भाजपा दौड़ में बने रहने के लिए कुछ भी करने तैयार है.

इन हालात का फर्क लोगों पर पड़ना स्वाभाविक है. अस्पष्ट राजनीतिक परिदृश्य एक बड़ी दुविधा है. नोटबंदी के मारे लोगों को कोई सहारा राजनीति में अब नहीं दिख रहा. चुनावी हल्ला कानों में चुभने लगा है. चुनाव से कतराते लोगों के दिलों में 2017 को ले कर आशंका अस्वाभाविक नहीं है. बात ‘कोई नृप होए हमें का हानि’ में सिमटती जा रही है, तो साफ दिख रहा है कि निराशा हर स्तर पर है जिसे उत्साह और उमंग में बदलने के लिए खुद लोगों को पहल करनी पड़ेगी वरना चुनावी नतीजों के मुताबिक, जो भी सरकार सत्ता पर काबिज होगी वह कलैंडर का पन्ना बदलने वाली जैसी बात होगी कि लो, अब 2017 में हम आ गए. बिहार में कमोबेश सबकुछ ठीकठाक चल रहा था लेकिन नोटबंदी ने आम लोगों का ध्यान अपनी दूसरी परेशानियों की तरफ भी खींचा. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का शराबबंदी का फैसला बिलाशक एक अच्छी पहल थी. बावजूद इस के, लोगों का ध्यान राजनीति से हमें क्या मिला, वाली बात पर गया तो नतीजा यही निकला कि जदयू, राजद और कांग्रेस के महागठबंधन वाली सरकार भी ठोस कुछ नहीं कर पाई है. राजनीति आज भी गुमराह करने और लोगों को असल मुद्दों से भटकाने का नकारात्मक काम बदस्तूर कर रही है. ऐसा क्यों, इस सवाल के जवाब में मगध विश्वविद्यालय के प्रोफैसर अरुण कुमार प्रसाद कहते हैं, ‘‘पिछले कुछ सालों में जनता में विरोध करने की क्षमता में काफी कमी आई है. हर कोई परेशानी झेलने की आदत का शिकार हो चला है. हालत यह है कि सड़कों पर पानी जमा हो तो लोग अपनी पतलून उठा कर किनारे से बचतेबचाते निकल जाएंगे पर कोई नगरनिगम में जा कर शिकायत दर्ज नहीं कराएगा.’’ बहुत छोटी पर अहम परेशानियों पर फोकस करते वे बताते हैं, ‘‘अस्पतालों से डाक्टर गायब हैं, स्कूलों में शिक्षक नहीं हैं, सड़कों पर गड्ढे हैं और स्ट्रीटलाइट खराब हैं, इन सब की चिंता किसी को नहीं है.’’

बहुत से छोटेछोटे तनाव मिल कर कैसे एक बड़े फैसले से अवसाद में तबदील हो जाते हैं, यह अरुण कुमार की बात से समझ आता है. लेकिन इस असमंजस का हल किसी के पास नहीं, कि पहल कौन करेगा. वे जो परेशान हैं या वे जिन्होंने परेशानियों को दूर करने की संवैधानिक जिम्मेदारी ली हुई है. विधानसभाओं और संसद में यही होता है. आमलोगों के हित की बात कोई नहीं करता. सवाल करने वाला गायब तो जवाब देने वाला भी नदारद है. इस पर भी एकदूसरे पर आरोप मढ़ना बहुत बड़ी चालाकी है. लोग यह समझने लगे हैं पर खुद को असहाय महसूस करते हैं. तो कोई वजह नहीं कि यथास्थितिवाद से छुटकारा पाने के लिए कोई बड़ा बदलाव होगा. पटना की समाजविज्ञानी किरण कुमारी की मानें तो जनता की महती परेशानियों को दूर करने की चिंता किसी दल को नहीं है. रोटी,  पड़ा, मकान और शिक्षा जैसे अहम मसले कभी शराबबंदी तो कभी नोटबंदी जैसे फैसलों की भेंट चढ़ जाते हैं. इन सब के बीच भौचक्क जनता नेताओं का मुंह ताकती रह जाती है और हर चुनाव में किसी न किसी दल को आजमाती है. जीतने के बाद सभी एक ही थैली के चट्टेबट्टे साबित होते हैं.

जाहिर है लोग राजनीति और नेताओं से बहुत ज्यादा उम्मीदें नहीं रखते पर यह भी नहीं चाहते कि परेशानियां पैदा करने के लिए फैसले उन पर थोपे जाएं जिन से रोजमर्राई जिंदगी में खलल पड़ता हो. पश्चिम बंगाल देश का पहला राज्य था जहां नोटबंदी के फैसले का बडे़ पैमाने पर सार्वजनिक विरोध हुआ, जिस की अगुआई खुद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने की, अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को भी उन के निर्देश थे कि वे हैरानपरेशान आम लोगों के बीच जा कर इस के दुष्परिणाम बताते विरोध करें. दरअसल, यह मनोवैज्ञानिक राजनीति का उदाहरण था जिस से लोग खुद को असहाय नहीं समझते, उन्हें लगता है कि उन की बात और आवाज उठाने वाला कोई है. तमिलनाडू की दिवंगत मुख्यमंत्री जयललिता की तरह ममता हर मुश्किल घड़ी में जनता के साथ होती हैं यानी लोगों को पौलिटिकल गार्जियनशिप देने में भरोसा करती हैं. इस का फायदा भी उन्हें मिलता है.

नरेंद्र मोदी को उन्होंने दिल्ली और पटना में भी घेरा और उन पर घोटाले व मनमानी करने के आरोप भी लगाए तो उन में मोदी का विकल्प भी देखा जाने लगा. हालांकि यह अभी बहुत दूर की कौड़ी है लेकिन हैरानी नहीं होनी चाहिए अगर धीरेधीरे विपक्ष अपनी हठ छोड़ कर उन के साथ नजर आने लगे. जिस मनोवैज्ञानिक शैली में नरेंद्र मोदी जनता से संवाद स्थापित करते हैं, ठीक वही शैली ममता की भी है. और यही इकलौती बात है जो नेता में जनता का भरोसा बढ़ाती है. बंगाल को ले कर भाजपा की दुविधा और परेशानी हर पल दिखती है लेकिन जिस तरह विपक्ष देशभर में मोदी की लोकप्रियता पर संयुक्त प्रहार नहीं कर पा रहा उसी तरह भाजपा भी ममता का कोई तोड़ नहीं ढूंढ़ पा रही. मध्य प्रदेश में पूरी तरह भाजपा का कब्जा है. खुश यहां के लोग भी नहीं हैं. 2016 के उज्जैन सिंहस्थ कुंभ में सामाजिक समरसता के नाम पर भाजपा ने दलितों को स्नान कराया था तो इस से जातिवाद बजाय कम होने के और बढ़ा ही था. नतीजतन, राज्य में दलित अत्याचार की घटनाओं की बाढ़ सी आ गई थी. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान धर्म के जरिए सत्ता चला रहे हैं या सत्ता के जरिए धर्म थोप रहे हैं, बात एक ही है.

आमतौर पर शांत माने जाने मध्य प्रदेश में जब दीवाली के दूसरे दिन भोपाल के सैंट्रल जेल की दीवार को फांद कर सिमी के 8 कैदी बड़े इत्मीनान और सहूलियत से भाग गए थे तो लोगों का दहशत में आना स्वभाविक बात थी. सवाल सरकार का सुरक्षा की गारंटी पर खरा न उतरने का था. हालांकि एक प्रायोजित एनकाउंटर में ये कैदी मारे गए थे पर खौफ लोगों के दिलोदिमाग में छा गया है.

घातक विकल्पहीनता

अवसाद और हताशा का अंत कहां जा कर होगा, यह अंदाजा किसी को नहीं. लेकिन बात राजनीति की करें तो नरेंद्र मोदी का कोई सशक्त विकल्प पैदा न हो पाना भी लोगों की परेशानी व तनाव की वजह है. सवाल दोनों अहम हैं कि मोदी मजबूत क्यों हैं और विपक्ष कमजोर क्यों है और क्यों कोई राष्ट्रीय स्तर का नेता नहीं गढ़ा जा पा रहा. नरेंद्र मोदी की खूबियां किसी सुबूत की मुहताज नहीं कि वे लोगों को बहलानेफुसलाने की कला में माहिर हैं. वे पुरानी परेशानियां तो हल नहीं कर पाते उलटे, नईनई परेशानियां खड़ी करते हैं और फिर उन से बचने के तरीके बदलते रहते हैं. नोटबंदी के पहले सबकुछ कमोबेश ठीकठाक था, तब बात सांप्रदायिकता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और कश्मीर जैसे मुद्दों के इर्दगिर्द सिमटी थी. लेकिन जब मुखिया ही अपराधबोध ग्रस्त हो कर अव्यावहारिक फैसले लेने लगे तो निचले स्तर तक परेशानियां खड़ी होनी तय है. भाजपा अब देश का सब से बड़ा राजनीतिक दल है, उस के कार्यकर्ता कुछ और करें न करें, पूजापाठ और यज्ञहवन जरूर करते रहते हैं. आरएसएस भी इन कामों में उस के साथ रहता है. कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी अपनी मां सोनिया गांधी की जिद, डर और मोह के चलते खुद को वजनदार नेता के रूप में स्थापित नहीं कर पा रहे हैं. अस्वस्थ चल रहीं सोनिया घोषित तौर पर उन्हें कांग्रेस का नेतृत्व नहीं दे पा रही हैं. राहुल गांधी बोलते हैं और नरेंद्र मोदी से जूझने की क्षमता भी उन में है पर उन का दायरा बेहद छोटा हो चला है. कम हैरानी की बात नहीं कि गांधीनेहरू परिवार के इस युवा की सारी ऊर्जा खुद का अस्तित्व बचाए रखने में जाया हो रही है.

कांग्रेस के पराभाव से क्षेत्रीय दल थोक में उभरे. उन के कुछ नेता लोकप्रिय भी हैं. लेकिन एक राज्य विशेष में सिमटे रहने के चलते न तो वे राष्ट्रीय छवि बना पाते हैं और न ही लोग उन्हें राष्ट्रीय नेता के रूप में स्वीकार करते हैं. नोटबंदी के बाद पसरते सामाजिक अवसाद को 2 नेताओं दिल्ली और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्रियों क्रमश: अरविंद केजरीवाल और ममता बनर्जी ने समझा और दिल्ली दहलाने की कोशिश की थी. अरविंद केजरीवाल को भाजपा ने उपराज्यपाल नजीब जंग के जरिए ऐसा जकड़ दिया है कि उन का विरोध लोगों को पूर्वाग्रही लगने लगा है. आम आदमी पार्टी के भीतर की फूट और भ्रष्टाचार भी अब दूसरे दलों की तरह हो चले हैं, इस से लोगों ने अरविंद केजरीवाल से उम्मीद छोड़ दी है. ममता बनर्जी जरूर गरजीं, बरसीं और नरेंद्र मोदी का कोई लिहाज उन्होंने नहीं किया तो उन्हें भी तरहतरह से परेशान किया गया. इस के बाद भी लोग उन में मोदी का विकल्प देखने लगे हैं तो यह ममता की खूबी है. ममता की राह में रोड़े राज्यों के छोटे दल ही हैं. बिहार जा कर उन्होंने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को नोटबंदी के मामले में साथ न देने पर गद्दार कहा तो नीतीश को अपना रवैया थोड़ा सुधारना पड़ा. बावजूद इस के, ममता को राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित होने और खुद को विकल्प जताने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी, जिस में वे कितना सफल होंगी, अभी इस पर कहना मुश्किल है.

उत्तर प्रदेश में चुनावी माहौल है और कोई दल स्पष्ट बहुमत ले जाने की स्थिति में नहीं दिख रहा. बसपा का दलित वोटबैंक दरक चुका है. इस के बाद भी वह दौड़ में है. सपा की हालत और यादव परिवार की कलह उजागर है जिस से उस का नुकसान होना तय है. इसलिए वह कांगे्रस की तरफ झुक रही है.

जयललिता की मौत के बाद तमिलनाडू में भी हालत असमंजस के हैं. एआईएडीएमके बगैर किसी सशक्त और सर्वमान्य नेतृत्व के अभाव में कब मिट जाए, कहा नहीं जा सकता. भाजपा ने वहां खुद को मजबूत करने की कवायद शुरू कर दी है. तमिलनाडू के लोग तो 2-2 अवसाद में जी रहे हैं, पहला नोटबंदी का और दूसरा जयललिता के साथ ही ब्राह्मण विरोधी द्रविड़ आंदोलन के खत्म हो जाने का, जिस से सवर्ण सामंती ताकतों के सिर उठाने का खतरा फिर से वहां मंडराने लगा है. सार में यह कि किसी भी क्षेत्रीय दल के मुखिया के राष्ट्रीय नेता बनने के आसार नजर नहीं आ रहे और कोई प्रभावी राष्ट्रीय नेता मौजूद नहीं है जो नरेंद्र मोदी को कठिन चुनौती दे पाए. ऐसे में विपक्ष अगर अपनी जिम्मेदारियों और उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पा रहा तो गलती राजनीतिक दलों के साथसाथ आम लोगों की भी है जिन्होंने मोदी के सम्मोहन के चलते सशक्त विपक्ष न देने की चूक कर दी और अब उस का खमियाजा भी भुगत रहे हैं. नरेंद्र मोदी लगातार अनियंत्रित और निरंकुश होते जा रहे हैं, हालांकि उन की दबंगई के सामने उन की पार्टी के कद्दावर नेता भी कुछ नहीं बोल पा रहे. लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी जैसे बुजुर्ग और अनुभवी नेताओं को उन्होंने वक्त रहते ही किनारे कर दिया था.

कम नहीं दूसरी मुश्किलें

ऐसा भी नहीं कि सिर्फ नोटबंदी ही देशभर में पसरते सामाजिक अवसाद की वजह हो, बल्कि महंगे धार्मिक समारोहों से भी 2016 लबरेज रहा. सिंहस्थ कुंभ इस का बेहतर उदाहरण था जिस की एक खास बात दलितों को समारोहपूर्वक स्नान कराना थी. यह काम भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने संयुक्त रूप से किया था. बाबा लोग हर शहर में पंडाल बिछाए दिखे और अपनी दुकान चलाते रहे. अवसाद का अंगरेजी में मतलब डिप्रैशन है. दलितों के लिए इस शब्द का इस्तेमाल अंगरेज शासक डिप्रैस्ड कह कर करते थे यानी दबीकुचलीशोषित जातियां या वर्ग. कुंभ नहा लेने से इस वर्ग का अवसाद बजाय कम होने के और बढ़ा. उन पर अत्याचार की घटनाएं पहले से कहीं ज्यादा हो गईं. देश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार के आ जाने से बदला कुछ नहीं. भ्रष्टाचार ज्यों का त्यों है. छुआछूत, जातिगत भेदभाव बराबर हैं और नकली नोट भी छप रहे हैं. घपलेघोटाले भी हो रहे हैं, हिंदूमुसलिम बैर और बढ़ रहा है. आतंकवाद कम होने का नाम नहीं ले रहा. देश की शाश्वत समस्या घूसखोरी भी यथावत है और इंस्पैक्टर राज विस्तार ले रहा है. पंडेपुजारियों का कारोबार ऐसे हालात से भी बढ़ता ही है. वे हैरानपरेशान लोगों की समस्याएं दूर करने का दावा कर पैसे ऐंठते हैं. यह 2016 का हाल था जो 2017 में भी रहा तो हम कितने पिछड़ जाएंगे, इस का अंदाजा लगाना मुश्किल है.

– साथ में लखनऊ से शैलेंद्र सिंह, पटना से बीरेंद्र बरियार, कोलकाता से साधना शाह

लोगों का स्ट्रैस लैवल विमुद्रीकरण के बाद बढ़ा है

विमुद्रीकरण और कमजोर विपक्ष का प्रभाव आम लोगों के मानसिक तनाव की भी वजह बन रहा है. इस बारे में भोपाल के जानेमाने मनोचिकित्सक विनय मिश्रा बताते हैं कि उन के पास आने वाले मरीजों की संख्या 25 प्रतिशत तक बढ़ी है. उन मरीजों से काउंसलिंग में पता चला है कि नोटबंदी का असर उन के दिलोदिमाग पर गहरे तक हुआ है. अधिकांश नए मरीज किस वर्ग के हैं, इस सवाल के जवाब में वे कहते हैं कि सभी वर्गों के हैं पर व्यापारी वर्ग औरों से ज्यादा अवसादग्रस्त हैं. आने वाले अधिकांश मरीज तनाव, अनिद्रा, चिंता और घबराहट के शिकार हैं. वे साफतौर पर नोटबंदी सरकार के नोटबंदी के आदेश को इस की वजह मानते हैं.  ऐसी हालत क्यों, इस सवाल के जवाब में वे बताते हैं कि लोग अनिश्चतता के माहौल में जी रहे हैं. उन्हें नहीं मालूम कि अब आगे क्या होगा. वे महिलाएं खासतौर से ज्यादा परेशान हैं जिन के यहां इफरात से नकदी आती है. उन्होंने जो बचा कर रखा था, उस के रद्दी हो जाने का फर्क उन पर पड़ा है. सोने की हद की बात से भी वे दहशत में हैं. लोगों का स्ट्रैस लैवल विमुद्रीकरण के बाद बढ़ा है. बकौल विनय मिश्रा, ‘‘यह चिंताजनक स्थिति है जिस पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा.’’

करें स्वागत 2017 का विनय मिश्रा

क्या नया साल भी हमें इसी हताशा, निराशा और अवसाद में मनाना चाहिए. इस सवाल का जवाब साफ है कि नहीं, हमें नया साल बजाय समस्याओं और परेशानियों को नियति मानने के, उन से लड़ते हुए उल्लास और उत्साहपूर्वक मनाना चाहिए. कठिन और मुश्किल होती जिंदगी को खुशनुमा बनाने की कई वजहें और तरीके मौजूद हैं. इन में से एक है अपने स्तर पर अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ना. हमें किसी सरकार की मनमानी के आगे घुटने नहीं टेकना है, न ही कमजोर विपक्ष के भरोसे रहना है जो खुद बैसाखियों पर घिट रहा है. जरूरत इस बात की है कि देश के लोग संगठित हों और गलत का विरोध करने में हिचकिचाएं या डरे नहीं. देश हमारा है, हम से चलता है, मुट्ठीभर नेताओं या बाबाओं से नहीं जो हमें अपनी मरजी के मुताबिक नचाते रहते हैं.

खुशियों पर लगा ग्रहण किसी दानदक्षिणा या टोटके से दूर नहीं होगा, बल्कि खुशियां बढ़ाने से ही दूर होगा. लोकतंत्र में आम आदमी के अधिकार असीमित होते हैं. संविधान हमें अपनी बात निसंकोच कहने का हक देता है. इस का इस्तेमाल न करना ही अवसाद और परेशानियों को बढ़ावा देता है. बात या सलाह किसी क्रांति या लड़ाई की नहीं, बल्कि अपने तरीके से जीने की है. हुआ यह है कि हम सरकारों, राजनीतिक दलों और धर्मगुरुओं के तरीकों से जीने के आदी हो गए हैं जो हमारी राह में सिर्फ कठिनाइयां भर पैदा करते हैं. सरकार हमारे सहयोग की मुहताज है, हम सरकार के मुहताज नहीं. इसलिए, पहला काम दिलों से डर निकाल कर निर्भीक हो कर जीना है. 2016 एक सबक था जो हमें हमारी कमजोरियां बता गया है. संकल्प इस बात का लिया जाए कि 2017 में उन्हें नहीं दोहराना है. अवसाद की 3 अहम वजहें सामने हैं, अनिश्चतता, भय और अंर्तद्वंद्व. इन से खुद को छुटकारा खुद हम ही दिला सकते हैं. यही कोशिश उत्साह, उमंग और उल्लास दे सकती है. यथास्थितिवाद और समझौते वाली मानसिकता छोड़ें, कुछ नया करें. यानी पुराने को छोड़ें जो सड़ा गला हो चला है लेकिन वह नया बना कर हम पर थोपा जा रहा है. सो, होशियार रहें और स्वागत करें नए वर्ष का.

सुप्रीम कोर्ट ने बीसीसीआई अध्यक्ष अनुराग ठाकुर को पद से हटाया

बीसीसीआई को सुप्रीम कोर्ट से बड़ा झटका लगा है. सुप्रीम कोर्ट ने बीसीसीआई पर बड़ा फैसला लेते हुए, बोर्ड अध्यक्ष अनुराग ठाकुर और सचिव अजय शिर्के को उनके पद से हटा दिया है. पिछले डेढ़ साल से सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है. कोर्ट ने कहा कि बीसीसीआई और राज्य बोर्ड के अधिकारी क्रिकेट बॉडी में जिम्मेदारी और पारदर्शिता लाने के आदेश पर अमल करने में असफल रहे.

लोढ़ा कमेटी की सिफारिशें मानने को लेकर कमेटी और बीसीसीआई के बीच लंबे समय से विवाद चल रहा था. बीसीसीआई ने लोढ़ा कमेटी की सभी सिफारिशें नहीं मानी थीं. जस्टिस लोढ़ा ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश को सबको मानना पड़ेगा, इससे कोई नहीं बच सकता है. कोर्ट का फैसला तार्किक है. ये क्रिकेट की जीत है. कोर्ट ने हमारी सिफारिशों को माना था. लोढ़ा कमेटी की सिफारिशों को अमल में लाने के लिए एक पैनल भी बनाया गया है.

कोर्ट ने ऐडमिस्ट्रेटर्स के नाम सुझाने के लिए वरिष्ठ वकील फली नरीमन और गोपाल सुब्रह्मणयम की दो सदस्यीय समिति का भी गठन किया है। कोर्ट इस मामले की अगली सुनवाई 19 जनवरी को करेगा।

सुधारों के लिए बनाई गई समिति

बीसीसीआई के वे सभी अधिकारी जिन्होंने लोढ़ा पैनल की सिफारिशों का पालन नहीं किया उन्हें पद छोड़ना पड़ेगा. अनुराग ठाकुर और शिर्के को कारण बताओ नोटिस जारी किया. सुप्रीम कोर्ट ने लोढ़ा पैनल के सुधारों को लागू कराने के लिए एक कमेटी भी बनाई है. अंतरिम समिति के लिए गोपाल सुब्रमण्यम और फली एस नरीमन नामों का सुझाव देंगे.

स्वतंत्र ऑडिटर नियुक्त करने को कहा था

2016 में अक्टूबर में सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) के वित्तीय अधिकार सीमित करते हुए लोढ़ा समिति से एक स्वतंत्र ऑडिटर नियुक्त करने को कहा था. बीसीसीआई के वित्तीय अधिकार सीमित करने का आदेश देते हुए बोलियों और ठेकों के लिए वित्तीय सीमा का निर्धारण किया था. न्यायालय ने लोढ़ा समिति से कहा है कि वह एक स्वतंत्र ऑडिटर नियुक्त करें, जो बीसीसीआई के सभी वित्तीय लेन-देन की समीक्षा करेगा.

एक साथ 83 उपग्रहों का प्रक्षेपण करेगा इसरो

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने कहा है कि वह जनवरी के अंत में प्रक्षेपण यान पीएसएलवी-सी37 का इस्तेमाल करके एक ही बार में रिकॉर्ड 83 उपग्रहों का प्रक्षेपण किया जाएगा.

इसरो के अध्यक्ष ए एस किरण कुमार ने मीडिया को जानकारी देते हुए कहा, ‘हम जनवरी में प्रक्षेपण के लिए काम कर रहे हैं. यह जनवरी के अंत तक होगा. तारीख तय करनी है.’ प्रक्षेपित किए जाने वाले 83 उपग्रहों में से 80 इजरायल, कजाखस्तान, नीदरलैंड्स, स्विट्जरलैंड और अमेरिका के हैं. उनका वजन 500 किलोग्राम है.

3 भारतीय उपग्रह काटरेसैट-2 सीरीज के हैं, प्राथमिक पेलोड के तौर पर जिनका वजन 730 किलोग्राम है. भारतीय उपग्रहों में आईएनएस-1ए और आईएनएस-1बी भी हैं, जिनका वजन 30 किलोग्राम है.

अपने अंतरिक्ष कार्यक्रम में रिकॉर्ड बनाते हुए इसरो ने जून में पीएसएलवी-सी34 से एक ही मिशन में 20 उपग्रहों, जिसमें पृथ्वी पर्यवेक्षण काटरेसैट-2 सीरीज भी शामिल है, का सफल प्रक्षेपण किया था. आंध्र प्रदेश के श्रीहरिकोटा स्थित अंतरिक्ष केंद्र से यह प्रक्षेपण किया गया था.

पैतृक संपत्ति पर बेटियों का भी समान अधिकार

टैक्सी में बैठने से पहले कविता ने ‘स्नेह विला’ को नम आंखों से देखा, गेट पर आई अपनी मां उमा  के गले लगी. बराबर में दूसरे गेट पर भी नजर डाली. दोनों भाभियों और भाइयों का नामोनिशान भी नहीं था. वे उसे छोड़ने तक नहीं आए थे. ठीक है, कोई बात नहीं, यह दिन तो आना ही था. उस के लिए भाईभाभी की उपस्थित मां की ममता और अपने कर्तव्य की पूर्ति से बढ़ कर नहीं थी. मन ही मन दिल को समझाती हुई कविता टैक्सी में बैठ सहारनपुर की तरफ बढ़ गई.

55 वर्षीया कविता अपनी मां की परेशानियों का हल ढूंढ़ने के लिए एक हफ्ते से मेरठ आई हुई थी. सुंदर व चमकते ‘स्नेह विला’ में उस की मां अकेली रहती थीं. ऊपर के हिस्से में उस के दोनों भाई रहते थे. कविता सब से बड़ी थी, कई सालों से वह देख रही थी कि मां का ध्यान ठीक से नहीं रखा जा रहा है. अब तो कुछ समय से दोनों भाइयों ने अपनीअपनी रसोई भी अलग बनवा ली थी.

आर्थ्राइटिस की मरीज 75 वर्षीया उमा अपने काम, खाना, पीना आदि का प्रबंध स्वयं करती थीं, यह देख कर कविता को हमेशा बहुत दुख होता था. कविता ने उन्हें कईर् बार अपने साथ चलने को कहा. उमा का सारा जीवन इसी घर में बीता था, यहां उन के पति मोहन की यादें थीं, इसलिए वे कुछ दिनों के लिए तो कविता के पास चली जातीं पर घर की यादें उन्हें फिर वापस ले आतीं. पर अब पानी सिर के ऊपर से गुजरने लगा था. अब कविता के दोनों भाई उमा पर यह जोर भी डालने लगे थे कि वे आधाआधा मकान उन के नाम कर दें. उमा हैरान थी अैर यह सुन कर कविता भी हैरान हो गई थी.

बीमार उमा को कोई एक गिलास पानी देने वाला भी नहीं था जबकि मकान के बंटवारे के लिए दोनों भाई तैयार खड़े थे. कविता ने कई बार स्नेहपूर्वक भाइयों को मां का ध्यान रखने को कहा, तो उन्होंने दुर्व्यवहार करते हुए अपशब्द कहे, ‘इतनी ही चिंता है तो मां को अपने साथ ले जाओ, उन की देखभाल करना, तुम्हारा भी तो फर्ज है.’

कविता ने अपने पति दिनेश से बात की. कविता ने तय किया कि वह लालची भाइयों को सबक सिखा कर रहेगी. एक वकील से मिलने के बाद पता चला कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956, जिस में 9 सितंबर, 2005 से संशोधन हुआ है, के अनुसार, पिता की संपत्ति पर विवाहित बेटी का भी पूरा हक है. उसे संपत्ति का कोई लालच नहीं था. उसे व उस के पति दिनेश के पास पैसे की कोई कमी नहीं थी. वह अपने भाइयों को इस तरह सबक सिखाना चाहती थी कि वे मां का ध्यान रखें. उस ने फोन पर भाइयों से कहा, ‘‘ठीक है, मैं मां को अपने पास ले आऊंगी पर मुझे भी मकान में हिस्सा चाहिए.’’

दोनों भाइयों को सांप सूंघ गया, बोले, ‘‘तुम्हें क्या कमी है जो मायके का मकान चाहिए?’’ ‘‘क्यों, मैं मां की सेवा कर सकती हूं तो अपना हिस्सा क्यों नहीं ले सकती? यह तो अब मेरा कानूनन हक भी है. फिर मेरा मन कि मैं अपना हिस्सा बेचूं या उस में कोई किराएदार रखूं. मैं ने वकील से बात कर ली है, जल्दी ही कागजात बनवा कर तुम्हें कानूनी नोटिस भिजवाऊंगी.’’

कविता ने अपने मन की बात मां को बता दी थी. दोनों भाइयों का गुस्से के मारे बुरा हाल था. उन्होंने पड़ोसियों, रिश्तेदारों में जम कर कविता की बुराई करनी शुरू कर दी. लालची, खुदगर्ज बेटी को मकान में हिस्सा चाहिए. दोनों भाइयों ने काफी देर सोचा कि 3 हिस्से हो गए तो नुकसान ही नुकसान है और अगर कविता ने अपना हिस्सा बेच दिया तो और बुरा होगा.

दोनों भाई अपनी पत्नियों के साथ विचारविमर्श करते रहे. तय हुआ कि इस से अच्छा है कि मां की ही देखभाल कर ली जाए. दोनों ने मां से माफी मांग कर उन की हर जिम्मेदारी उठाने की बात की. दोनों ने मां के पास जा कर अपनी गलती स्वीकारी. उमा के दिल को बहुत संतोष मिला कि उन का शेष जीवन अपने घर में चैन से बीत जाएगा. कविता को भी अपने प्रयास की सफलता पर बहुत खुशी हुई. वह यही तो चाहती थी कि मां अपने घर में ससम्मान रहें, इसलिए वह मकान में हिस्से की बात कर बैठी थी. अगर कारण कोई और भी होता तो भी अपना हिस्सा मांगने में कोई बुराई नहीं थी.

दरअसल, जब कानून ने एक लड़की को हक दे दिया है तो पड़ोसी, रिश्तेदार इस मांग की निंदा करने वाले कौन होते हैं? आज जब कोई बेटी ससुराल में रह कर भी मातापिता के प्रति अपने कर्तव्य याद रखती है तो मायके की संपत्ति में उस को अपना हिस्सा मांगना बुरा क्यों समझा जाता है? और वह भी तब जब कानून उस के साथ है.

हिंदू उत्तराधिकार संशोधित अधिनियम 2005 के प्रावधान में यह साफ किया गया है कि पिता की संपत्ति पर एक बेटी भी बेटे के समान अधिकार रखती है. हिंदू परिवार में एक पुत्र को जो अधिकार प्राप्त हैं, वे अब बेटियों को भी समानरूप से मिलेंगे. यह प्रस्ताव 20 दिसंबर, 2004 से पहले हुए संपत्ति के बंटवारे पर लागू नहीं होगा.

गौरतलब है कि हिंदू उत्तराधिकार कानून 1956 में बेटी के लिए पिता की संपत्ति में किसी तरह के कानूनी अधिकार की बात नहीं कही गई. बाद में 9 सितंबर, 2005 को इस में संशोधन कर पिता की संपत्ति में बेटी को भी बेटे के बराबर अधिकार दिया गया. इस में कानून की धारा 6 (5) में स्पष्टरूप से यह लिखा है कि इस कानून के पास होने के पूर्व में हो चुके बंटवारे इस नए कानून से अप्रभावित रहेंगे.

कानून की नजर में ‘संपत्ति के उत्तराधिकार’ के मामले में भले ही बेटे व बेटी में कोई भेद न हो परंतु क्या बेटियां यह हक पा रही हैं? और अगर नहीं, तो क्या वे अपने पिता या भाई से अपने हक की मांग सामने भी रख पा रही हैं? बेटियों के अधिकार के प्रति सामाजिक रवैया शायद ठीक नहीं है.

सामाजिक मानसिकता

हमारा तथाकथित सभ्य समाज, जो सदियों से रूढि़वादी परंपराओं के बोझ तले दबा हुआ है, आसानी से पैतृक संपत्ति पर बेटियों के हक को बरदाश्त नहीं कर पा रहा है. जहां बचपन से पलती हुई हर बेटी के मन में कूटकूट कर ये विचार विरासत में दिए जाते हों कि तुम पराए घर की हो, इस घर में किसी और की अमानत हो,

यह घर तुम्हारे लिए सिर्फ रैनबसेरा है,उस घर की बेटी इसी को मान बंटवारे की मानसिकता से कोसों दूर रहती है. खासकर, अपनी शादी के बाद पहली बार मायके आने पर वह खुद को मेहमान समझ इस तथ्य को स्वीकार कर लेती है कि अब उसे मायके से रस्मोरिवाज के नाम पर कुछ उपहार तो मिल सकते हैं, पर संपत्ति में बराबरी का हक कदापि नहीं.

आज भी महिलाएं पैतृक संपत्ति में अपना हिस्सा मांगने में हिचकती हैं. इंदौर में रह रही 2 बेटियों की मां शैलजा का कहना है कि इस में दोराय नहीं है कि पैतृक संपत्ति में बेटियों का भी हक दिए जाने से उन की स्थिति में सुधार होगा, पर खुद उन के लिए अपने पिता या भाई से संपत्ति में हक मांगना थोड़ा सा मुश्किल है, क्योंकि इस से अच्छेभले चलते रिश्तों में भी दरार आ सकती है.

देश की राजधानी दिल्ली की तमाम औरतों व लड़कियों से की गई बातचीत में सभी ने लगभग यही बताया कि कानून भले ही एक झटके में हमें बराबरी का हक दे दे लेकिन समाज में बदलाव एकाएक नहीं आते. यही वजह है कि वास्तविकता के धरातल पर इस फर्क को दूर होने में कुछ समय लगेगा. हमारा समाज संपत्ति के नाम पर भाईभाई में हुए झगड़े या फसाद को तो सामान्यरूप में ले सकता है, परंतु एक बहन के यही हक जताने पर उसे घोर आपत्ति होगी.

सुप्रीम कोर्ट के महत्त्वपूर्ण निर्णय

पिता की संपत्ति में बेटियों के हक के संबंध में एक महत्त्वपूर्ण निर्णय सर्वोच्च अदालत द्वारा किया गया, जिस में उस ने कहा कि एक इंसान मरने के बाद अपना फ्लैट अपने बेटे या पत्नी को देने के बजाय अपनी शादीशुदा बेटी को भी दे सकता है.

कोर्ट ने यह फैसला बिस्वा रंजन सेनगुप्ता के मामले में सुनाया. इस केस में बिस्वा रंजन द्वारा अपनी शादीशुदा बेटी इंद्राणी वाही को कोलकाता के सौल्ट लेक सिटी में पूर्वांचल हाउसिंग स्टेट की मैनेजिंग कमेटी के फ्लैट का मालिकाना हक दिया गया. जिस पर कड़ी आपत्ति लेते हुए उन के बेटे और पत्नी ने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था. सोसाइटी के रजिस्ट्रार ने भी रंजन की बेटी का नाम उत्तराधिकारी के रूप में दर्ज करने से मना कर दिया था.

उपरोक्त मामले में बिस्वा रंजन अपनी पत्नी और बेटे के दुर्व्यवहार के कारण अपनी शादीशुदा बेटी के पास रह रहे थे. प्रतिवादी पक्षकारों द्वारा यह दावा किया गया कि संपत्ति के मालिक ने मकान के अंशधारकों व वारिस की सूची में सिर्फ पत्नी व बेटे को शामिल किया है, इसलिए वह बेटी को मकान का उत्तराधिकारी घोषित नहीं कर सकता है. साथ ही, उत्तराधिकार नियमों के मुताबिक भी वादी के बेटे और पत्नी उक्त संपत्ति में अपनी हिस्सेदारी का दावा कर सकते हैं क्योंकि बेटे को पिता की संपत्ति में हक लेने का कानूनी अधिकार प्राप्त है. पक्षकारों की तीसरी दलील बेटी के शादीशुदा होने की थी.

लेकिन, सुप्रीम कोर्ट ने इन सभी दलीलों को खारिज कर कहा कि अव्वल तो बेटा और पत्नी विवादित मकान को पैतृक संपत्ति नहीं कह सकते हैं क्योंकि यह प्रतिवादी ने खुद खरीदी थी. इसलिए इसे उत्तराधिकार के दायरे में नहीं रख सकते. जहां तक सोसाइटी ऐक्ट के प्रावधानों का सवाल है तो अदालत ने कहा कि संपत्ति के मालिक ने पत्नी और बेटे के गैर जिम्मेदाराना रवैए से तंग आ कर संपत्ति का उत्तराधिकार बेटी को दिया है. खरीदारी के समय नौमिनी बनाना इस बात का पुख्ता आधार नहीं है कि वे ही उत्तराधिकारी हैं. मालिक के चाहने पर नौमिनी कभी भी बदला जा सकता है.

सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला कानून के अलावा सामाजिक लिहाज से भी बेटियों के लिए खासा महत्त्व रखता है.

एक अन्य फैसले में अक्तूबर 2011 में उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति आर एम लोढ़ा और जगदीश सिंह खेहर ने कहा कि हिंदू उत्तराधिकार (संशोधित) अधिनियम 2005 के तहत बेटियां अन्य पुरुष सहोदरों के बराबर का अधिकार रखती हैं. उन्हें बराबरी से अपना उत्तरदायित्व भी निभाना पड़ेगा. इस फैसले में यह भी कहा गया कि अगर बेटियों को बेटों के बराबर उत्तराधिकार नहीं दिया जाता तो यह संविधान द्वारा दिए गए समानता के मौलिक अधिकारों का हनन भी होगा, और दूसरी ओर यह सामाजिक न्याय की भावना के भी विरुद्ध है.

पिता की संपत्ति पर बेटी के  अधिकार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अन्य फैसला सुनाते हुए इसे सीमित भी कर दिया है. कोर्ट ने कहा है कि अगर पिता की मृत्यु 2005 में हिंदू उत्तराधिकार कानून के संशोधन से पहले हो चुकी है, तो ऐसी स्थिति में बेटियों को संपत्ति में बराबर का हक नहीं मिल सकता.

वैसे, देखा जाए तो इस नियम के लागू होने के बाद महिलाओं की स्थिति समाज में सुधार की तरफ बढ़ चली है. कानूनी रूप से हुआ यह बदलाव निश्चित ही औरत व आदमी के बीच अधिकारों की समानता की बात करता है. इस का फायदा हमें जल्दी ही निकट भविष्य में देखने

को मिलेगा जब महिलाएं भी आत्मनिर्भर बन समाज व देश की प्रगति में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकेंगी.   

– पूनम पाठक और पूनम अहमद

 

न्यूड मौडल : आसान नहीं राह

 आर्ट कालेज में चित्रकला के पाठ्यक्रम का एक महत्त्वपूर्ण विषय है न्यूड स्टडी. मानव शरीर की पेंटिंग या स्कैच बनाने के लिए शरीर की तमाम बारीकियों को जानना जरूरी है. महिला और पुरुष के शरीर के तमाम उतारचढ़ाव, उस का गठन, अलगअलग होते हैं. आर्ट कालेज में गठनगत बारीकियों का अध्ययन लाइफ स्टडी कहलाता है. इस के अलावा अलगअलग शारीरिक भावभंगिमाओं का भी अध्ययन लाइफ स्टडी या न्यूड स्टडी में शामिल है. इस के लिए आमतौर पर एक जीतेजागते नग्न पुरुष या नग्न महिला मौडल की मदद ली जाती है. तब न्यूड स्टडी होती है. एक समय था जब लाइफ  स्टडी के लिए मौडल मिलने मुश्किल हुआ करते थे. अब इस पेशे में जो भी लड़कियां या औरतें आती हैं, वे परिवार और समाज से छिप कर आती हैं और आमतौर पर गरीब घरों से होती हैं. ये मजबूरी में पेशे में आती हैं. कोलकाता आर्ट कालेज में बतौर न्यूड मौडल काम करने वाली कुछ गिनीचुनी ही मौडल हैं.

लतिका कर्मकार (बदला हुआ नाम) कोलकाता के चित्रकारों के लिए न्यूड पोज देने वाली मौडल है. वह एक निजी कंपनी में चायपानी पिलाने का काम करती है. कभीकभार कोलकाता के कुछ चित्रकारों के लिए न्यूड पोज भी देती है. पर यह काम लतिका किसी छुट्टी वाले दिन ‘प्राइवेटली’ ही करती है. वह बताती है कि मौडलिंग की एक सिटिंग में उसे 1,000-5,000 रुपए मिल जाते हैं. उस के घर पर मातापिता के साथ उस की एक बेटी है. उस का पति 5 महीने की बेटी के साथ उसे छोड़ कर जा चुका है. पिता निजी कंपनी के दफ्तर में चपरासी थे. अब रिटायर्ड हैं. अपना और अपनी बेटी का खर्च चलाने के लिए वह एक निजी कंपनी में काम करती है. किसी पेंटर के आमंत्रण पर वह न्यूड पोज देती है.

बीना पुरकायस्त (बदला हुआ नाम) भी एक न्यूड मौडल है. और इस काम का उसे बहुत लंबा अनुभव है. 19 साल की उम्र से वह न्यूड पोज देती आ रही है. इस पेशे में उसे 23 साल हो गए हैं. बंगाल के कई नामीगिरामी पेंटरों के लिए उस ने न्यूड पोज दिए हैं. बीना का मानना है कि यह काम बहुत कठिन होता है. कई बार एकजैसे पोज में बैठे रहने पर पैर सुन्न हो जाते हैं. आमतौर पर पेंटर मौडल को बीचबीच में 15 मिनट का ब्रैक देते हैं.

वह बताती है कि कई बार आर्टिस्ट अपने काम में कुछ इतने मगन हो जाते हैं कि उन्हें ध्यान ही नहीं रहता कि एक जीताजागता इंसान एक ही भावभंगिमा में कितनी देर तक बैठे रह सकता है. वहीं, वह यह भी बताती है कि अगर पोज देते हुए मौडल सकुचाए, शर्माए, हिलतीडुलती रहे तो ऐसी मौडलों को अगली बार काम मिलने में परेशानी होती है. कभीकभी आर्टिस्ट की सहूलियत के अनुसार मौडल को बारबार पोज बदलना भी पड़ता है. वह बताती है कि आजकल एस्कौर्ट के पेशे में आई लड़कियां भी न्यूड पोज देने को तैयार हो जाती हैं. लेकिन इस के लिए वे मोटा मेहनताना वसूलती हैं. इसीलिए, आम न्यूड मौडल की अब भी मांग है.

कोलकाता के जानेमाने आर्टिस्ट जोगेन चौधुरी कहते हैं कि हमारे देश में न्यूड स्टडी का चलन यूरोपीय पेंटिंग के प्रभाव में शुरू हुआ. वे कहते हैं, ‘‘मजेदार बात यह है कि हमारे देश में जब किसी पुरुष मौडल को न्यूड स्टडी के लिए बुलाया जाता है तो वह पूरी तरह से निर्वस्त्र नहीं होता है.’’ महिला मौडल को ज्यादातर न्यूड पोज देना होता है, ऐसा क्यों? उन का कहना है कि कला और नारीदेह सौंदर्य की दृष्टि से न्यूड पुरुष मौडल की अपेक्षा महिला मौडल कहीं अधिक उपयुक्त मानी जाती हैं. आर्ट कालेज में अपने पहली लाइफ स्टडी के बारे में बताते हुए जोगेन चौधुरी अपनी फाइन आर्ट के तीसरे वर्ष की छात्रावस्था के दिनों में लौट जाते हैं. ‘न्यूड स्टडी की वह पहली क्लास थी. बहुत तनाव में थे सारे छात्र. क्लास में एक दुबलीपतली 14-15 साल की मौडल आई. क्लास के बाहर उस के मातापिता बैठे थे. हमारे प्रोफैसर थे देवकुमार राय चौधुरी, लाइफ स्टडी के विशेषज्ञ. हाल ही में इटली से लौटे थे. क्लास में केवल प्रोफैसर ही मौडल के बदन को हाथ लगा सकते थे. लड़की के बदन को छू कर प्रोफैसर ने उस के पोज को ठीक किया.’

जोगेन बताते हैं कि मौडल की मनोस्थिति को वे बखूबी समझ रहे थे. इसीलिए उन्हें उस की चिंता भी हो रही थी कि इतने सारे लड़कों के सामने बेचारी मौडल कैसे न्यूड बैठेगी? कितनी देर तक बैठना होगा? मन ही मन उस के प्रति बड़ी सहानुभूति हो रही थी. पर किया कुछ नहीं जा सका. 5 सालों के पाठ्यक्रम में बीचबीच में लाइफ  स्टडी चलती रही.

वे यह भी बताते हैं कि उस समय मौडल मिलना बहुत मुश्किल होता था. ज्यादातर बदनाम गलियों की लड़कियां या औरतें इस काम के लिए उपलब्ध हो पाती थीं. गौरतलब है कि जोगेन चौधुरी की एक विख्यात लाइफ  स्टडी है – सुंदरी. यह पेंटिंग ललित कला अकादमी से प्रकाशित हुई थी. पर आज यह आउट औफ  प्रिंट है. बंगाल के बहुत सारे पेंटर न्यूड स्टडी में महारतप्राप्त हैं. उन की न्यूड स्टडी की शैली भी अलगअलग हैं. प्रकाश कर्मकार ‘इरोटिक’ न्यूड पेंटिंग के लिए जाने जाते हैं तो परितोष सेन क्युबिस्टिक शैली के लिए.

एलिना बनिक कोलकाता की जानीमानी पेंटर हैं. आर्ट कालेज में अपने शुरुआती दिनों को याद करते हुए कहती हैं कि यह उन दिनों की बात थी जब उन्होंने स्कूल से सीधे आर्ट कालेज में दाखिला लिया था. लाइफ  स्टडी की क्लास में महिला और पुरुष मौडल के बीच होने वाले भेदभाव को ले कर वे अकसर मुखर हो जाया करती थीं. वे कहती हैं कि पुरुषदेह के बारे में ज्यादा कुछ पता नहीं था. समझ भी नहीं थी. लेकिन एक बार बहस के दौरान सहपाठी मित्र ने आ कर कान में झल्लाते हुए कहा कि पुरुष मौडल पूरी तरह से न्यूड नहीं हो सकता है. अरे, पुरुषांग कभी भी हिलडुल सकता है. एलिना को बात समझ नहीं आई और वे अपनी बात पर अड़ी रहीं कि महिला मौडल की तरह पुरुष मौडल को भी पूरी तरह से न्यूड रहना होगा और वह दिन तकरार में ही बीत गया. आज इस बात को याद कर के वे मुसकरा देती हैं.

बहरहाल, यह तो हुई लाइफ स्टडी में एक महिला पेंटर के सामने आने वाली दिक्कतों की बात. इसी तरह महिला मौडल भी कई तरह की परेशानियों से जूझती हैं. यहां कुछेक घटनाओं का जिक्र जरूरी समझती हूं ताकि समझा जा सके कि ये मौडल किस तरह की विपरीत परिस्थितियों में काम करती हैं.

नारीदेह की समस्याएं

कोलकाता आर्ट कालेज. एक बड़े कमरे में बहुत सारे आर्ट स्टूडैंट्स अपनेअपने कैनवस के साथ तैयार बैठे हैं. यह क्लास न्यूड स्टडी की है. क्लास में केवल एक स्टूडैंट लड़की के अलावा बाकी सभी लड़के हैं. क्लास चालू है. क्लास में एक नग्न महिला एक खास भावभंगिमा में बैठी है. उसे देखदेख कर स्टडी करने के साथ स्केचिंग की क्लास जारी है. अचानक क्लास में मौजूद लड़की ने देखा कि मौडल के लिए अपनी भावभंगिमा के साथ बुत बन कर बैठे रहना संभव नहीं हो पा रहा है. वह कुछकुछ सकुचा सी रही है, सिमटती चली जा रही है.

आमतौर पर स्टडी क्लास में नियमानुसार मौडल को बुत बन कर बैठे रहना होता है. कहीं कुछ तो था कि मौडल सामान्य आचरण नहीं कर पा रही थी. और उस के सकुचानेसिमटने से क्लास में बैठे स्टूडैंट्स एक हद तक परेशान व नाराज हो रहे थे. पर मौडल थी कि बारबार भावभंगिमा से डिगती चली जा रही थी. ऐसे में तमाम स्टूडैंट्स के साथ क्लास में बैठी लड़की उठती है और मौडल के पास जाती है. कुछ देर मौडल के साथ फुसफुसाने के बाद वह लौट कर आती है और क्लास के तमाम स्टूडैंट्स से मुखातिब हो कर कहती है, ‘तुम लोग जरा क्लास से बाहर जाओ.’

क्लास के स्टूडैंट्स भौचक रह जाते हैं और कुछ तो झल्ला तक जाते हैं. ‘क्यों, अब क्या हुआ? पहले ही इतना समय बरबाद हो चुका है.’

क्लास की वह स्टूडैंट बौखला कर अपने साथी स्टूडैंट को डपटते हुए कहती है, ‘मैं ने कहा, तुम लोग अभी क्लास से बाहर जाओ, तो बाहर जाओ, बिना बहस किए.’ धीरेधीरे क्लास खाली हो गई. इस के बाद उस लड़की ने क्लास का दरवाजा बंद किया.

दरअसल, निर्वस्त्र मौडल का अचानक पीरियड शुरू हो गया था. और ऐसे में वह अपनी लज्जा को भला कैसे ढकती. वहीं, क्लास में मौजूद इतनी सारी निगाहें केवल उस पर और उसी पर टिकी हुई थीं. इस कारण वह अपनी भावभंगिमा के साथ बुत बन कर बैठी नहीं रह पा रही थी. जाहिर है, उस दिन न्यूड स्टडी की क्लास नहीं हुई. मौडल अपने घर लौट गई.

मुश्किलभरा पेशा

एक न्यूड मौडल को अपने पेशे के लिए काम करते हुए क्याक्या नहीं करना पड़ता है. वाकेआ ऋतुपर्णो घोष की फिल्म ‘चोखेर बाली’ का भी है. कहानी की मांग पर शूटिंग के दौरान एक न्यूड मौडल की जरूरत पड़ी. दरअसल, फिल्म का सहनायक महेंद्र डाक्टरी पढ़ रहा था. एनोटौमी के क्लास का एक दृश्य था, जिस में एक मृतक महिला को टेबल पर सोना था. फिल्म के सहयोगी कला निर्देशक को एक न्यूड मौडल की व्यवस्था करने की जिम्मेदारी दी गई. एक मौडल मिली, पर इस शर्त पर कि फिल्म में किसी भी सूरत में उस का चेहरा न दिखाया जाए और वह मौडल थी कांचन मित्रा (बदला हुआ नाम). कांचन कहती है कि मृत शरीर यानी मृतक को मेकअप की कोई जरूरत नहीं थी लेकिन एनोटौमी की क्लास दिखानी थी तो मौडल के लिए मृतक का मेकअप जरूरी था. मृत दिखाने के लिए मौडल के शरीर का मेकअप करवाया गया. यह मौडल के लिए सब से कठिन काम था. वहीं, फिल्म में लाइट की एक अहम भूमिका होती है. किस एंगल से कितनी रोशनी मृतक के शरीर पर पड़नी चाहिए, ताकि फिल्मांकन अच्छा हो, इस की जांच के लिए मौडल को बारबार मेकअप कर के एनोटौमी टेबल पर सोना जरूरी था. उस के नग्न शरीर को बारबार टचअप करना जरूरी हो जाता था. जाहिर है न्यूड मौडल को बहुत परेशानी पेश आ रही थी.

कांचन को 4 बजे घर जाना था. लेकिन शूटिंग अभी पूरी नहीं हुई थी. और उस के बेटे के स्कूल से आने का समय हो रहा था. कांचन ने सोचा था कि मृत शरीर की शूटिंग होनी है, इस में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा पर सुबह से ले कर 4 बज गए. ऋतुपर्णो घोष को जब पता चला कि मौडल घर जाना चाहती है तो वे एकदम से उखड़ गए. आखिर मौडल को छुट्टी नहीं मिली. काम पूरा होने के बाद ही उसे घर जाने दिया गया.

कुल मिला कर मौडलिंग पेशे की यह लाइन यानी न्यूड मौडलिंग अपना कर पैसा कमाना बहुत ही मुश्किलभरा काम है. वैसे, प्रकाशन या प्रसारण में मौडल का चेहरा तो नहीं दिखाया जाता लेकिन शूटिंग के दौरान स्टूडैंट्स, संबंधित विज्ञापन या फिल्म की यूनिट के सदस्य तो मौडल को साक्षात देखते ही हैं. बहरहाल, महिलाओं के लिए यह भी एक पेचीदा व अजीबोगरीब पेशा है.      

 

एक साल से चल रही थी नोटबंदी की तैयारी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जल्दबाजी और बिना तैयारी के नोटबंदी की घोषणा की लेकिन हकीकत यह है कि इस की तैयारी एक साल से पहले से चल रही थी. विपक्षी दलों का आरोप है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जल्दबाजी और बिना तैयारी के नोटबंदी की घोषणा की लेकिन हकीकत यह है कि इस की तैयारी एक साल से पहले से चल रही थी. यह अत्यंत गोपनीय ढंग से चल रही थी. इस की तैयारी राजस्व सचिव हंसमुख अधिया और 5 अन्य लोग प्रधानमंत्री कार्यालय में एक कमरे में बैठ कर कर रहे थे, वहीं रणनीति बनाई गई कि किस तरह से इस योजना को अंजाम देना है.

टीम के सदस्यों को पहले गोपनीयता की शपथ दिलाई गई. उन पर कोई संदेह नहीं करे, इस संबंध में उन्हें अत्यधिक सावधानी बरतने को कहा गया. यह टीम तय कर रही थी कि किस तरह से नए नोटों को छापा जाना है, नोटबंदी की घोषणा के बाद नए नोटों को कैसे बैंकों तक पहुंचाना है, जन सामान्य को पुराने नोट बदलने के लिए किस तरह की व्यवस्था की जानी है आदि. अत्यधिक सावधानी बरतने के बावजूद 2,000 रुपए के नए नोट के बाजार में आने की खबर मई में आ गई थी और अगस्त में इस की मंजूरी मिलने की मीडिया ने खबर दे दी थी.

मीडिया में खबरें आने के बाद अक्तूबर से 2,000 रुपए के नोट की छपाई शुरू हो गई थी. तब तक यह अनुमान लगाना कठिन था कि सरकार नोटबंदी की घोषणा करने जा रही है. नवंबर में दल के सदस्यों से सलाह करने के बाद 18 नवंबर को नोटबंदी की घोषणा करने की तारीख तय की गई लेकिन यह आशंका बढ़ गई थी कि नोटबंदी की योजना लीक हो सकती है, इसलिए 10 दिन पहले यानी 8 नवंबर को रात 8 बजे प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम संबोधन में अचानक नोटबंदी की घोषणा कर दी.

योजना में सीमित लोगों के ही शामिल होने की वजह से कई खामियां रह गईं. इसलिए घोषणा के बाद नई नई दिक्कतें सामने आती रहीं और उन से निबटने के लिए समय समय पर नियम बदलने पड़े.

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