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रामपाल पर कहर, बाकी पर रहम

सरकार अगर नाराज हो जाये तो क्या कुछ नहीं हो सकता ? बडे से बडे रसूखदार को पल भर में नेस्तनाबूद किया जा सकता है. उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले की बिसंवा विधनसभा के विधयक रामपाल यादव इसकी ताजा मिसाल है. रामपाल यादव समाजवादी पार्टी के ही विधयक है. जाति से भी यादव है. ऐसे में जब उनके लखनउ और सीतापुर जिलों में बने अवैध् निर्माण को जेसीबी और पोकलैंड मशीनों से गिराया गया. जिसका विरोध् करते हुये विधयक रामपाल यादव, उनके संबंध्ी और समर्थको ने पुलिस और दूसरे लोगों पर पिस्तौल से हमला करने का दुस्साहस भरा कदम उठा लिया. तब पुलिस ने विधयक रामपाल सहित आध दर्जन लोगों पर मुकदमा लिखा कर जेल भेज दिया था.अ पनी ही पार्टी के राज में किसी विधयक के खिलाफ ऐसे कदम से पता चला है कि सरकार कितनी सख्त और न्यायप्रिय है.

रामपाल के मसले को थोडा करीब से देखे तो मामला इतना सख्त नही है जितना दिखता है. दरअसल रामपाल यादव सीतापुर में समाजवादी पार्टी से जिला पंचायत चुनाव में बगावत कर चुके थे. जिसकी वजह से समाजवादी पार्टी का जिला पंचायत प्रत्याशी चुनाव हार गया था. रामपाल को उम्मीद थी कि जिला पंचायत चुनाव जीतने के बाद वह पार्टी के साथ वापस आ जायेगा. सपा ने रामपाल की बगावत को गंभीरता से लिया. रामपाल के लखनउ में जियामउ में अवैध् निर्माण का मसला पुराना चल रहा था. कई बार लखनउ विकास प्राध्किरण की टीम वहां से खाली हाथ वापस आ चुकी थी. रामपाल को इस बार भी उम्मीद थी कि इस बार भी ऐसा ही हो जायेगा. अपने पुराने रूतबे के गुरूर में रामपाल के करीबी लोगों ने लखनउ विकास प्राध्किरण के लोगों पर पिस्तौल तान दी. सरकार के अफसरों को पता चल चुका था कि रामपाल यादव का रसूख टूट चुका है.

रामपाल और उनके समर्थको के विरोध् को दरकिनार करते हुये लखनउ और सीतापुर में उनके अवैध् निर्माण को ढहा दिया गया. विरोध् करने वालों को जेल भेजने के साथ ही साथ पार्टी से भी निकाल दिया गया. इस पूरे प्रकरण को मुख्यमंत्राी के सख्त कदम और आने वाले विधनसभा चुनावों में उनकी स्वच्छ छवि के रूप में पेश किया जा रहा है. पेंच यह है कि अगर मामला केवल अवैध् निर्माण का था तो केवल रामपाल पर यह कहर क्यो ? राजधनी लखनउ में ही समाजवादी पार्टी के 3 और विधयको पर अवैध् कब्जे का आरोप है. भारतीय जनता पार्टी ने अवैध् कब्जा करने वाले विधयकों के खिलाफ मुहिम भी चला रखी है. इसके बाद भी अखिलेश सरकार ने इन विधयको के खिलाफ कोई कदम नहीं उठाये. ऐसे में साफ लगता है कि रामपाल पर कहर और दूसरो पर रहम का फलसफा कुछ और ही है.

लुभा रहा है फौंडेंट केक

केक खाने वालों में बहुत सारे लोगों को क्रीम वाला केक कम पंसद आता है. ऐसे लोगों के लिये फौंडेंट केक ज्यादा पसंद आता है. विदेशो में तों केक खाने के बाद प्रयोग होने वाली डिश में शुमार किया जाता है. किसी भी तरह की खुशी के मौके पर स्पेशल केक तैयार कराये जाते है. अब भारत में भी यह चलन बढने लगा है. जन्मदिन, शादी की सालगिरह और दूसरे मौको के लिये खास तरह के केक तैयार होने लगे है. कुछ लोगों को खाने में क्रीम वाले केक पसंद नहीं आते यह ज्यादा कैलोरी के भी होते है. ऐसे लोगों के लिये बिना क्रीम वाले पफाउडेंट केक तैयार होने लगे है. लखनउ में कस्टमाइज्ड केक बनाने वाली शुभी वालिया कहती है ‘केक कल्चर बदल रहा है. केक में तरह तरह के डिजाइन बनने लगे है. किसी शौप का उदघाटन होता है तो वह अपने बिजनेस के हिसाब से केक तैयार कराता है. वंेडिग केक अलग तरह से होते है और बर्थडे केक अलग तरह से. खुशियों के दूसरे मौको पर भी केक काट कर जश्न मनाया जाता है.’

बडे शहरों की तर्ज पर छोटे शहरों में भी केक का चलन बढने से यह बिजनेस बढ गया है. वैसे तो ज्यादातर केक लोग बेकरी से ही लेते है. बेकरी में केक खास डिजाइन के नहीं होते है. ऐेसे में केक को बनाने का शौक रखने वाले अपना अलग बिजनेस चला रहे है. लखनउ के कृष्णानगर इलाके में ‘पौश पूफ रेस्ंत्रा’ चलाने वाली शुभी वालिया लोगों की जरूरतों को ध्यान में रखते हुये उनके मनपंसद डिजाइन के केक तैयार करती है. फौंडेंट केक उनकी खासियत है.वह कहती है ‘केक और बेकरी  के प्रोडक्ट्स बनाने में रूचि रखने वाली महिलाये खुद भी केक बना कर अपना बिजनेस कर सकती है. जरूरत होती है कि केक बनाने की सही ट्रेनिंग लेने के बाद ही इसकी शुरूआत करे.’

शुभी कहती है फौंडेंट केक में आइसिंग शुगर के जरीये डिजाइन तैयार किये जाते है. डिजाइन के सूखने में समय लगता है. जिस कारण ऐसे केक बनने में समय लगता है. आज कस्टमर अपनी मनपंसद डिजाइन के केक पसंद करता है. ऐसा केक 1250 रूपये किलो से बिकना तैयार होता है. डिजाइन के हिसाब से कीमत बढती जाती है. इस तरह के 1 किलो से 3 किलो के बीच बनने वाले केक ज्यादा पसंद किये जाते है. बडे शहरों में जहां 20 से 30 हजार वाले केक बिकने लगे है वहीं लखनउ जैसे शहरों में भी 5 हजार तक के केक पसंद किये जाने लगे है. ’ शुभी केक स्टूडियों बनाना चाहती है जहां पर कस्टमर को हर उस तरह के केक मिल सके जो वह सोच सके. शुभी के काम में उनके पति सोमित उनकी मदद करते है. दोनो को ही फूड में तरह तरह के प्रयोग करना पसंद है. जिसकी वजह से वह अपने बिजनेस के साथसाथ ‘पौश पूफ रेस्ंत्रा’ भी चलाते है.

मुझे अलग-अलग किरदार पसंद है – शुभांगी अत्रे पूरे

‘कस्तूरी’ धारावाहिक से चर्चा में आई अभिनेत्री शुभांगी अत्रे इन दिनों ‘भाभीजी घर पर है’ धारावाहिक में अंगूरी भाभी की भूमिका निभा रही हैं. यह मौका उन्हें तब मिला जब पहले शो पर काम कर रही शिल्पा शिंदे ने शो के बीच में प्रोडक्शन हाउस से झगडा कर शो को छोड़ दिया . शुभांगी इस चरित्र को लेकर काफी खुश हैं. शुभांगी ने इससे पहले कई धारावाहिको मे काम किया है .जिसमें ‘कसौटी जिंदगी की’,’दो हंसो का जोड़ा’ ,’चिड़ियाघर’ आदि प्रमुख है. इस भूमिका के बारे मैं शुभांगी कहती है कि यह शो मेरे लिए चुनौती है मुझे आशा है कि कुछ ही दिनों मे मैं दर्शको का दिल जीत लूंगी. जब प्रोडक्शन हाउस का मुझे कॉल आया तो मैं उत्साहित हो गई, क्योंकि यह एक अच्छा शो है.

वह आगे कहती है कि मैं मेंटली तैयार हूँ कि मेरी तुलना शिल्पा से होगी पर मैं इसे सकारात्मक रूप में ले रही हूँ. इसमे भोजपुरी शब्द थोड़े मुश्किल है ,जिसे मैं प्रोडक्शन हाउस की मदद से सीख रही हूँ .इसमे कुछ शब्द नुक्ता लहजा थोड़ा कठिन है ,जिसे मुझे ध्यान रखना पड़ता है .यह मेरा दूसरा कोमेडी शो है. और मैं खुश हूँ कि इसमे मुझे काम मिला .

शुभांगी को बचपन से ही अभिनय का शौक था. जिसमें साथ दिया था उनके माता पिता और अब पति ने. वह बताती हैं कि मेरी माँ मेरी सबे बड़ी क्रिटिक हैं. वह पहले दिन से मेरी अभिनय देख रही हैं. कहाँ क्या गलती हो रही है. वह बताती है जिसे मैं सुधारने की कोशिश कर रही हूँ. वैसे किसी भी काम को करने में समय लगता है, मैं कोई कंप्यूटर तो नहीं की ‘फीड’ कर दिया और हो गया. क्रिएटिव वर्क है तो अधिक समय लगता है. इस चरित्र में अंगूरी भाभी की चाल छम्मक-छल्लो जैसी है. मम्मी ने एडवाइस दिया कि कैसे करना है. इसके अलावा ‘हाय दैया’ और ‘सही पकड़े है’ ये मेरी बातचीत का हिस्सा बन रहे है. मैं इसमे खूब मेहनत कर रही हूँ. थोड़े दिनों में दर्शक मुझे भी पसंद करने लगेंगे .

कुलदीप की बेअसर ‘घर वापसी’

'घर वापसी' धर्म के नाम पर दंगल करने वालों को बेशक रास नहीं आ रहा हो, लेकिन नेताओं को इस शब्द से कोई परहेज नहीं है. तभी तो हरियाणा जनहित कांग्रेस (भजनलाल) के प्रमुख कुलदीप बिश्नोई की तकरीबन 9 साल के बाद कांग्रेस में घर वापसी हुई है.

हरियाणा जनहित कांग्रेस का गुरुवार, 28 अप्रैल को सोनिया गांधी और राहुल गांधी की मौजूदगी में कांग्रेस पार्टी में विलय कर दिया गया. हजकां प्रमुख कुलदीप बिश्नोई ने दिल्ली में इस विलय की घोषणा की.

यह विलय बड़े नेताओ की मौजूदगी में हुआ, जिस में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी, कांग्रेस नेता रणदीप सुरजेवाला, कुमारी शैलजा, अशोक तंवर, किरण चौधरी और कांग्रेस के हरियाणा प्रभारी शकील अहमद मौजूद रहे.

याद रहे कि हजकां को कुलदीप बिश्नोई के पिता और हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भजनलाल ने साल 2007 में कांग्रेस से अलग होने के बाद बनाया था. कांग्रेस पार्टी की ओर से साल 2005 में जाट नेता भूपेंदर सिंह हुड्डा को प्राथमिकता दिए जाने से नाराज हो कर भजनलाल ने यह पार्टी बनाई थी. 3 जून, 2011 को भजनलाल की मृत्यु हो जाने के बाद कुलदीप बिश्नोई ने पार्टी की कमान संभाल ली थी.

उन्होंने इस विलय का ऐलान करते हुए कहा कि वे कभी कांग्रेस से अलग नहीं हुए थे. कांग्रेस उन के खून में है और मतभेद अब दूर हो चुके हैं.

क्या वाकई ऐसा ही है? दरअसल, साल 2014 के संसदीय चुनावों के लिए हजकां ने भाजपा के साथ गठबंधन किया था. पिछले हरियाणा विधानसभा चुनाव में यह पार्टी अलग से लड़ी थी और इसे कुल 2 सीटें ही मिली थी. कुलदीप बिश्नोई आदमपुर, हिसार से जीते थे, जबकि उन की पत्नी रेणुका बिश्नोई हांसी से जीती थीं.

कुलदीप बिश्नोई ने कहा कि वे कांग्रेस को मजबूत करने के लिए काम करेंगे. वे पार्टी के एक आम कार्यकर्ता की तरह काम करेंगे और उन्होंने कोई शर्त नहीं रखी हैं, न ही वे किसी पद के लालच में वापस आए हैं. 

इस घर वापसी पर हरियाणा के स्वास्थ्य मंत्री अनिल विज ने ट्वीट कर के कहा कि हजकां का कांग्रेस में विलय तो हो गया है, लेकिन इस का कोई फायदा नहीं होने वाला. उन्होंने अंग्रेजी में लिखा कि एचजेसी मर्जिज विद कांग्रेस. इट इज लाइक जीरो प्लस जीरो, इज इक्वल टू जीरो.

इस बात में दम भी दिख रहा है, क्योंकि हाल ही में हरियाणा में जाट बनाम गैरजाट के नाम पर जो राजनीति हुई है, उस से कांग्रेस का कुलदीप बिश्नोई को अपने साथ लेना ज्यादा फायदे का सौदा लग नहीं रहा है. कांग्रेसी नेता भूपेंदर सिंह हुड्डा को यह विलय रास नहीं आ रहा है, क्योंकि वे कभी नहीं चाहेंगे कि कांग्रेस में उन का कद छोटा हो.

भविष्य में इस विलय का जो भी अंजाम हो लेकिन हरियाणा की राजनीति में इस 'घर वापसी' से कोई हलचल मची हो, ऐसा लग नहीं रहा है.

ऐसे सूखे में तर जलसे के माने क्या

पुरानी कहावत है कि जब रोम जल रहा था तब नीरो चैन की वंशी बजा रहा था इधर देश जल तो नहीं रहा है पर सूखे की मार ऐसी है कि 33 करोड़ लोग पानी के लिए त्राहि त्राहि कर रहे हैं और चिंता की बात यह आशंका है कि मई के आखिर पानी पीड़ितों की तादाद 50 करोड़ तक पहुँच जाएगी । देश भर में पानी के लिए मारा मारी मची है हालत यह है कि कई हिस्सों मे लोग पानी पर चौबीसों घंटे पहरा दे रहे हैं, एक त्रासद बात यह भी है कि पानी की छीना छपटी के चलते हत्याए तक होने लगी हैं ।

अभी बहुत ज्यादा वक्त नहीं हुआ बीती 6 अप्रैल को मुंबई हाइ कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट मे जल संकट पर सुनवाई हुई थी और इन अदालतों ने जम कर लताड़ केंद्र सरकार को यह कहते लगाई थी कि, दस राज्य सूखे की मार झेल रहे हैं ,पारा 45 डिग्री के पार पहुँच रहा है । लोगों के पास पानी नहीं है । हालत खराब होती जा रही है । ऐसे में आप आँखें कैसे मूँदे रह सकते हैं ? उन्हे मदद पहुंचाने के लिए कुछ तो करिए । केंद्र सरकार ने इस फटकार को बेहद गंभीरता से लिया और पानी पीड़ितों का गम भुलाने एक भव्य समारोह के आयोजन का फैसला ले डाला, मौका है मोदी सरकार की दूसरी सालगिरह को समारोह पूर्वक मनाने का जिसमे करोड़ों रु पानी की तरह फूंके जाएंगे । उम्मीद है कि इस रंगारंग जलसे का उदघाटन महानायक अमिताभ बच्चन के कर कमलों द्वारा होगा इस जश्न मे तीन खान आमिर , सलमान और शाहरुख तो खासतौर से बुलाये ही जा रहे हैं पर सूचना प्रसारण मंत्रालय ने तमाम फिल्मी हस्तियों को इस तर समारोह में पधारने आमंत्रण भेज दिया है  इस जलसे का नामकरण होना अभी  बाकी है लेकिन तैयारियों पर नजर रखने सरकार ने सियासी दिग्गजों की एक पेनल बना दी है जिसमे शहरी विकास मंत्री वेंकैया नायडू के अलावा केबिनेट मंत्री नितिन गडकरी पीयूष गोयल और सूचना प्रसारण राज्य मंत्री राज्यवर्धन सिंह राठोर शामिल हैं ।

दिल्ली के इंडिया गेट पर होने जा रहे इस मेगा इवैंट में कोई 60 हजार लोगों को बॉलीवुड के इन नाचने गाने बालों के जरिये बताया जाएगा कि पिछले 2 सालों में देश ने जितनी तरक्की की है उतनी आजादी के बाद से अभी तक नहीं की थी इसलिए सूखा पानी जैसे क्षुद्र मुद्दों का शोक मत करो और नाचो गाओ झूमो कि सरकार तुम्हारे लिए क्या कुछ नहीं करती अगर इंडिया गेट तक नहीं आ सकते तो भी कोई बात नहीं इस तर जलसे का लुत्फ अपने घरों में बैठकर कोल्ड ड्रिंक पीते और आइस क्रीम खाते उठाओ क्योंकि इसका सीधा प्रसारण भी होगा । पहली सालगिरह के जलसे को सरकार ने नाम साल एक शुरुआत अनेक दिया था पर तब आम लोगों में मोदी को लेकर आस बाकी थी पर अब जब देश सूखे की चपेट में है तब मोदी बंसी नहीं बल्कि शहनाइयाँ बजबा रहे हैं जिनकी गूंज लगातार 8 घंटे सुनाई देगी । कोर्ट के बाहर सुप्रीम कोर्ट को जबाब दे दिया गया है कि केंद्र सरकार की आंखे खुली हुई हैं और वह सूखा पीड़ितों के मनोरंजन के लिए ही यह तर जलसा कर रही है ।

आखिर कितने पढ़े लिखे हैं हमारे प्रधानमंत्री

शायद ही कोई प्रामाणिक तौर पर बता पाये कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी कितने पढ़े लिखे हैं हालांकि पिछले लोकसभा चुनाव के नामांकन के वक्त दाखिल जानकारी मे नरेंद्र मोदी ने खुद को 1983 मे  गुजरात यूनिवेर्सिटी से एम ए और उससे पहले 1978 मे दिल्ली यूनिवेर्सिटी से बी ए होना बताया है । यह जानकारी कई वजहों के चलते शक के दायरे मे रही है जिसके पर्याप्त आधार भी हैं । ताजा हमला दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने किया है जिनका बहुत स्पष्ट आरोप यह है कि केंद्रीय सूचना आयोग ( सी आई सी ) ने प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की डिग्रियों से जुड़ी जानकरियों को सार्वजनिक करने पर रोक लगा रखी है ।

बक़ौल केजरीवाल आरोप लग रहे हैं कि नरेंद्र मोदी के पास कोई डिग्री नहीं है , ऐसे में पूरे देश की जनता सच्चाई जानना चाहती है फिर भी आपने ( सी आई सी ) उनकी डिग्री से संबन्धित जानकारी सार्वजनिक करने से मना कर दिया ,आपने ऐसा क्यों किया यह तो गलत है । हुआ यूं था कि सी आई सी ने अरविंद केजरीवाल से उनके बारे में जुड़ी जानकरियों को सार्वजनिक करने बाबत पूछा था जिसके जबाब मे केजरी वाल ने पत्र लिखते जबाब दिया था कि उन्हे उनके बारे मे जानकरियाँ सार्वजनिक करने मे कोई आपत्ति नहीं है लेकिन इसी जबाब मे उन्होने मोदी की डिग्रियों की जानकारी के बाबत सवाल खड़े कर दिये जिस पर हाल फिलहाल सी आई सी खामोश है । केजरीवाल ने सी आई सी की निष्पक्षता पर भी सबाल उठाए हैं ।

इस मामले को उदाहरण या आधार मानते यह अंदाजा सहज लगाया जा सकता है कि सी आई सी ने जब कभी नरेंद्र मोदी से भी यही सबाल पूछा होगा तो उन्होने अपनी डिग्रियों की जानकारी आम न करने कहा होगा इस अंदाजे का एकलौता आधार सी आई सी की संदिग्ध और रहस्यमय कार्यप्रणाली नहीं बल्कि खुद नरेंद्र मोदी का भी अपनी इन डिग्रियों के मुद्दे पर स्मृति ईरानी की तरह कतराना है । लोकसभा प्रचार अभियान में मोदी खुद को चाय बेचने बाला बताते अघाते नहीं थे न ही यह कहने में उन्हे कोई संकोच होता था कि उनकी माँ दूसरों के घरों मे काम करती थीं बिलाशक अपना संघर्ष बताना मोदी का हक था जिस पर फिदा होकर मतदाताओं ने उन्हे देश की सब से बड़ी कुर्सी पर बैठा भी  दिया पर मोदी ने जाने क्यों इस बात कि चर्चा नहीं की कि वे इतना पढ़े कैसे और इस दौरान किन कठिनाइयों का सामना उन्हे करना पड़ा ।

यह सहज मानव स्वभाव है कि जब कोई अपने आप को उद्घाटित करता है तो सब कुछ बता देना चाहता है लेकिन मोदी दो मुद्दों पर हमेशा चुप ही रहे पहला अपनी पत्नी जसोदा बेन से अलगाव जिसे व्यक्तिगत बात कहते मानते नजर अंदाज किया जा सकता है पर डिग्रियों का मुद्दा व्यक्तिगत नहीं कहा जा सकता क्योंकि यह अब संवैधानिक और कानूनी तौर पर अहम हो चला है । यह कतई जरूरी नहीं कि प्रधानमंत्री या कोई दूसरा मंत्री नेता शिक्षित हो ही लेकिन यह जरूरी है कि उसकी शिक्षा के बारे में उसे चुनने बालों को जानकारी हो क्योंकि अब जागरूकता के चलते चयन का एक आधार उम्मीदवार की पढ़ाई लिखाई भी हो चला है जिसके बाबत अगर कोई गलत जानकारी दी गई है तो यह मतदाता के साथ छल ही मना जाएगा ।

ऐसे में मोदी की डिग्रियों को कटघरे में खड़ाकर केजरीवाल ने अपने परिपक्व होते राजनैतिक कौशल का ही परिचय दिया है । आमतौर पर कोई नेता जब बहुत बड़े पद पर पहुँच जाता है तो वे स्कूल कालेज बाले भी गर्व छुपाते नहीं जहां वह पढ़ा होता है लेकिन मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद दिल्ली या गुजरात यूनिवेर्सिटी ने ऐसी कोई पहल नहीं की है न ही मोदी को पढ़ाने बाले किसी प्राध्यापक ने उनके बारे में कुछ कहा है और तो और  उनका कोई सहपाठी भी अब तक सामने नहीं आया है।  यहाँ गौरतलब है कि बीते दिनो जब काशी विश्वविदधालय ने उन्हे पी एच डी की मानद उयाधि देना चाही थी तो विनम्रता पूर्वक खुद को इसके लिए अयोग्य बताते मोदी ने इसे लेने से मना कर दिया था   । रेडियो पर मन की बात मे जब पिछले दिनो मोदी ने छात्रों को संबोधित किया था तब अपने छात्र जीवन के संस्मरण प्रसंगवश भी नहीं बताए थे यह एक अस्वभाबिक सी बात मौके के लिहाज से  थी । देखना दिलचस्प होगा कि मोदी और सी आई सी अरविंद केजरीवाल के आरोपों पर कोई काररवाई करते हैं या नहीं ।

सेंसर बोर्ड की ‘संस्कारी कैंची’ पर चल सकती है कैंची

सिनेमा मेकर्स और सिनेमा लवर्स दोनों के लिए अप्रैल का ये मौसम खुशखबरी लेकर आया है. उनकी खुशी की वजह है सेंसर बोर्ड को विवादमुक्त और बेहतर बनाने के लिए साल की शुरुआत में बनाई गई श्याम बेनेगल कमिटी की वो रिपोर्ट, जिसमें कमिटी ने फिल्मों में कांट-छांट न किए जाने की सिफारिश की है. हाल ही में सूचना एवं प्रसारण मंत्री अरुण जेटली को सौंपी इस रिपोर्ट में श्याम बेनेगल कमिटी ने साफ कहा है कि सेंट्रल बोर्ड ऑफ सर्टिफिकेशन यानी सेंसर बोर्ड को अपने नाम के अनुसार ही सिर्फ फिल्मों को उसके कंटेंट के मुताबिक सर्टिफिकेट देने का काम करना चाहिए, न कि उसमें कांट-छांट करनी चाहिए. उसे फिल्म को मूल रूप में दर्शकों तक पहुंचने देना चाहिए. इससे फिल्ममेकर्स खुश हैं कि अगर ये सिफारिशें मान ली गईं, तो उनकी सोच जस की तस दर्शकों से पहुंच पाएगी. वहीं पब्लिक इसलिए खुश है कि अब उन्हें एंटरटेनमेंट का ज्यादा डोज मिल पाएगा.

बहुत जरूरी है ये बदलाव

सेंसर बोर्ड के सदस्य फिल्ममेकर अशोक पंडित कहते हैं, 'ये बहुत सही और जरूरी सुझाव हैं कमिटी के. मैं खुद यही बात बोर्ड मीटिंग्स में उठाता रहा हूं और इसके लिए लड़ता रहा हूं. बोर्ड का काम फिल्मों को सर्टिफिकेट देना ही है. उसे फिल्म को काटने का हक नहीं है. जो लोग फिल्म बनाते हैं, वो भी समझदार लोग हैं. उन्हें मत सिखाइए कि उन्हें क्या बनाना है! श्याम बेनेगल और उनकी कमिटी में शामिल राकेश ओम प्रकाश मेहरा, गौतम घोष, कमल हासन, ऐड गुरु पियूष पांडे, फिल्म जर्नलिस्ट भावना सोमाया सब लोग सिनेमा के प्रबुद्ध और जानकार लोग हैं. उन्होंने बिल्कुल सही कहा है.'

जब संस्कारी चेयरमैन ने उड़ाए होश

पिछले साल जनवरी में बोर्ड के चेयरमैन बने पहलाज निहलानी ने अपने विवादित फैसलों से पूरी फिल्म इंडस्ट्री को हिलाकर रख दिया. निहलानी के कुछ अजीबोगरीब फैसलों पर एक नजर:

1- डोंट बी मवाली, नहीं चलेगी गाली-

सेंसर बोर्ड का अध्यक्ष बनने के अगले ही महीने उन्होंने 28 शब्दों को एक लिस्ट जारी करके बैन कर दिया, जिसमें गालियों से लेकर बॉम्बे भी शामिल था. इस लिस्ट के खिलाफ पूरी फिल्म इंडस्ट्री एक हो गई. मुकेश भट्ट, करण जौहर, राजू हीरानी, अनुष्का शर्मा, दीपिका पादुकोण, विशाल भारद्वाज, अनुराग कश्यप, विद्या बालन आदि नामी फिल्मी हस्तियों ने सूचना एवं प्रसारण राज्य मंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौर से मिलकर इसका विरोध जताया. नतीजन इस सूची को रद्द कर दिया गया.

2- जेम्स बॉन्ड को बनाया संस्कारी-

पहलाज निहलानी के फिल्मों में कांट-छांट को लेकर भी खूब विवाद हुए. इसमें सबसे ज्यादा हंगामा जेम्स बॉन्ड सीरीज की फिल्म स्पेक्टर में किसिंग सीन को आधा किए जाने पर हुआ. यह मुद्दा सोशल मीडिया पर भी खूब उछला. इसके अलावा हेट स्टोरी 3 में भी भगवान को ऊपरवाला, संभोग को मिलन, बास्टर्ड को रास्कल कर दिया गया. एडल्ट कॉमेडी फिल्म मस्तीजादे में तो 350 और क्या कूल हैं हम में 200 कट्स लगाए गए. यही किस्सा जब महेश भट्ट की फिल्म लव गेम्स के साथ दोहराने की कोशिश हुई तो वो सेंसर बोर्ड पर खूब बरसे.

3- 'साला' नहीं 'साला खड़ूस' चलेगा-

बोर्ड अध्यक्ष पहलाज निहलानी ने कई फिल्मों से 'साला' और 'कमीना' जैसे शब्दों पर आपत्ति जताते हुए उन्हें हटवा दिया या म्यूट करा दिया, लेकिन आवाज तब उठी जब उन्होंने 'साला खड़ूस' टाइटल वाली राजू हीरानी की फिल्म को पास कर दिया. यही नहीं, लोगों ने उन्हें विशाल भारद्वाज की 'कमीने' टाइटिल वाली फिल्म भी याद दिलाई.

4- सूरज और शाहरुख भी नहीं बचे-

भारतीय परिवारों में संस्कार का बीच बोने वाले सूरज बड़जात्या की फिल्म में भी कट्स लग सकते हैं, इस बात पर शायद आपको यकीन न हो, लेकिन सेंसर बोर्ड के संस्कारी चेयरमैन ने सूरज बड़जात्या की पिछली रिलीज फिल्म प्रेम रतन धन पायो में भी कट्स लगाए. सूत्रों के मुताबिक, बोर्ड ने फिल्म में इस्तेमाल रखैल शब्द को म्यूट करा दिया. यही नहीं, फैमिली फिल्मों के लिए मशहूर शाहरुख खान की फिल्म फैन से भी उन्होंने कमीना और घंटा शब्द कटवाए.

5- ओएमजी! डरावना है 'जंगलबुक'-

हाल ही में बच्चों के लिए बनाई गई हॉलीवुड फिल्म जंगलबुक को यूए सर्टिफिकेट देने पर भी सेंसर बोर्ड की काफी खिंचाई हुई. बोर्ड अध्यक्ष पहलाज निहलानी के मुताबिक, फिल्म के कई सीन इतने डरावने हैं कि बच्चों को इन्हें अकेले नहीं देखने दिया जा सकता.

सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष पहलाज निहलानी के कार्यकाल में आए दिन इतने विवाद शुरू हो गए कि एक साल बाद ही जनवरी 2016 में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को बोर्ड को सुधारने और विवाद मुक्त बनाने के लिए फिल्म मेकर श्याम बेनेगल की अध्यक्षता में कमिटी बनानी पड़ी.

अशोक पंडित के मुताबिक चेयरमैन पहलाज निहलानी ने बोर्ड को अपनी बपौती मान लिया था. वो इसे अपने पर्सनल दफ्तर की तरह चलाने लगे थे. अभी हाल ही में उन्होंने दो फिल्मों के सर्टिफिकेट ही रिफ्यूज कर दिए. आप ऐसा कैसे कर सकते हैं. इसलिए ऐसे फैसलों पर कंट्रोल जरूरी हो गया था.

अपनी पहली ही फिल्म मसान से दुनिया भर में वाहवाही बटोरने वाले डायरेक्टर नीरज घेवान भी सेंसर की कैंची को फिल्मों के लिए खतरनाक बताते हैं. बकौल नीरज, 'सीबीएफसी का फुल फॉर्म ही सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन है, लेकिन सब उसे कहते सेंसर बोर्ड हैं, गड़बड़ यहीं शुरू हो जाती है. बोर्ड के मौजूदा चेयरमेन साहब ने सेंसर शब्द को कुछ ज्यादा ही सीरियसली ले लिया शायद. अब देखिए, हमारी फिल्म मसान को एडल्ट सर्टिफिकेट मिला. उस पर भी आपने 'साला' शब्द म्यूट करा दिया, जो कि बहुत ही सामान्य गाली है. अब ये तो बोर्ड की ज्यादती हो गई है.'

उनका कहना है, 'बोर्ड को फिल्म में अपनी पर्सनल विचारधारा नहीं घुसानी चाहिए. मैं गैंग्स ऑफ वासेपुर का उदाहरण दूं, वो कहानी ही माफिया डॉन की है. अब वो ऐसे तो नहीं बोलेगा कि देखिए, जी ये आप बहुत गलत कर रहे हैं…. वो गाली देकर ही बोलेगा. आप कहें कि हम ऐसे नहीं बोलते. ये सब हटाओ, तो ये कहां तक सही है? इसलिए श्याम बेनेगल कमिटी की सिफारिशें सिनेमा के हक में हैं.'

ज्यादा कैटेगरी, ज्यादा क्लैरिटी

श्याम बेनेगल कमिटी की रिपोर्ट में यू सर्टिफिकेट के बाद यूए को दो कैटेगरीज यूए12 प्लस और यूए15 प्लस में बांटा गया है. जबकि एडल्ट में भी एडल्ट और एडल्ट विद कॉशन (चेतावनी सहित) बनाई गई है.

इसकी जरूरत के बारे में कमिटी के चेयरमैन श्याम बेनेगल कहते हैं, 'ऐसा सर्टिफिकेशन में स्पष्टता लाने के लिए किया गया है. अभी यूए में 18 से कम उम्र के सभी बच्चे आ जाते थे. जबकि टीनऐज वाली उम्र में बच्चों में बहुत तेजी से बदलाव होता है. इस दोनों ग्रुप के बच्चों की समझ में फर्क होता है, इसलिए ये कैटेगरी बनाई गई है. ताकि पैरंट्स की गाइडेंस में वो अपनी उम्र और समझ का सिनेमा देख सकें. इसी तरह एडल्ट और एडल्ट विद कॉशन बनाया गया है, जिससे साफ हो सके कि अगर एडल्ट है तो उसमें कुछ गाली-गलौज, कुछ मारधाड़ होगा, लेकिन अगर एडल्ट विद कॉशन है तो उसमें न्यूडिटी, ज्यादा वायलेंस, सेक्स होगा. इससे ऑडियंस को फिल्म के बारे में सही इंफॉर्मेशन मिलेगी.'

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