16वीं लोकसभा के चुनाव प्रचार के दौरान देशभर में जिस शख्स के नाम की सुनामी का दावा किया जा रहा था, आखिर वह नरेंद्र दामोदरदास मोदी भारतीय जनता पार्टी यानी भाजपा को पहली बार पूरे बहुमत के साथ सत्ता तक पहुंचाने में कामयाब हो गए हैं. तमाम चुनावी सर्वेक्षणों, भविष्यवाणियों और अनुमानों पर खरा उतरते हुए भारतीय जनता पार्टी अप्रत्याशित तौर पर 282 सीटें जीत कर 3 दशक बाद अकेले सरकार बनाने के काबिल बन गई. भाजपा को खुद इतने बंपर बहुमत की उम्मीद नहीं थी. राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए को 336 सीटों का छप्पर फाड़ कर बहुमत मिला है.

सोनिया गांधी और उन की पार्टी कांग्रेस को भ्रष्टाचार, कुशासन और तानाशाही रवैया ले डूबे. पार्टी के परिवर्तन और सशक्तीकरण के तमाम दावे धरे के धरे रह गए. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली ढीली सरकार की उसे जो सजा मिली है वह तो मिलनी ही चाहिए थी. कांग्रेस को मात्र 44 सीटें हासिल हो सकी हैं. उस के इतिहास का यह उस का सब से बुरा प्रदर्शन है. भारीभरकम नेताओं के किले ढह गए. दूसरे छोटे दलों के दिग्गज भी मोदी लहर में बह गए जो अपनी जीत के दावे कर रहे थे. उत्तर भारत के जातीय, मजहबी क्षत्रपों के गढ़ों में मोदी ने पूरी सेंध लगा दी.

9 चरणों में 36 दिन तक चली लंबी चुनावी प्रक्रिया में कई रंग देखे गए. प्रचार का काम तो सालभर पहले ही शुरू हो गया था. जीत के लिए राजनीतिबाजों की कलाबाजियां, पार्टियों की पैंतरेबाजी, एकदूसरे की टांगखिंचाई के दृश्य दिखे.  मोदी के प्रचार की जबरदस्त ताकत और रणनीति कामयाब रही. मोदी ने भगवा जैकेट पहन कर विकास और सुशासन की बातें कीं और इसी वजह से भाजपा उन जगहों पर भी जीती है जहां वह अब तक जीत से वंचित रही है.

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जे जयललिता, ओडिशा में नवीन पटनायक  के सामने मोदी लहर का ज्यादा असर नहीं हुआ पर यह भी इन राज्यों के नेताओं की कर्मठता का कमाल है.

उत्तर प्रदेश में बड़बोले मुलायम सिंह यादव, मायावती, बिहार में नीतीश कुमार, तमिलनाडु में एम करुणानिधि की अपनेअपने राज्यों में बुरी गत हुई है. इन तीनों ही राज्यों के इन नेताओं के जातीय और मजहबी किले ढह गए.        

2 साल पहले दिल्ली के जंतरमंतर पर उमड़े जनाक्रोश के वक्त ही यह बात तय हो गई थी कि अब केंद्र में कांग्रेस नेतृत्व की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यानी संप्रग सरकार का जाना तय है. अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में जन लोकपाल बिल और मौजूदा भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था को बदलने के लिए उमड़े जनाक्रोश ने केंद्र की संप्रग सरकार को हिला दिया था. बाद में केजरीवाल द्वारा बनाई गई आम आदमी पार्टी यानी ‘आप’ की दिल्ली विधानसभा चुनाव में मिली जबरदस्त सफलता से घबराए दलों को अपनी रणनीति बदलनी पड़ी. 

मोदी की जीत में देश के सब से बड़े राज्य उत्तर प्रदेश व दूसरे राज्य बिहार के नतीजे चौंकाने वाले रहे. मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार के साथ मायावती की सोशल इंजीनियरिंग का भी उत्तर प्रदेश में नामोनिशान मिट गया.

नरेंद्र मोदी ने अपने समूचे चुनावी अभियान में यह बताने की सफल कोशिश की कि वे मेहनत के बल पर आगे बढ़ने वालों में से हैं. हालांकि विपक्ष ने मोदी के शादीशुदा जीवन को ले कर उन्हें कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की.

यह तय रहा कि समूचे चुनाव प्रचार अभियान में मोदी दूसरे दलों के निशाने पर रहे. कांग्रेस के काम की तो बात ही कम हुई. पर वहां तो बस भ्रष्टाचार और निकम्मापन था. ‘आप’ के नेता अरविंद केजरीवाल ने मोदी और राहुल गांधी दोनों पर कौर्पोरेट घरानों से सांठगांठ के आरोप लगाए. कहा गया कि मोदी अंबानी और अडाणी के हवाईजहाजों में घूमते हैं. मोदी के चुनाव प्रचार में फूंके जा रहे करोड़ों रुपए भी यही अमीर घराने दे रहे हैं.

उलट इस के, भाजपा ने अपने हमलावर तेवर बरकरार रखे और देशभर में ताबड़तोड़ मेहनत की, सीधे मतदाताओं से संवाद व संपर्क रखे और लोगों को भरोसा दिलाया कि उसे वोट दो, अच्छे दिन आएंगे. लोग महंगाई और भ्रष्टाचार से तो आजिज आ ही गए थे लेकिन सब से बड़ी समस्या थी रोजमर्राई जिंदगी का दिनोंदिन कठिन होते जाना.

ले डूबा भ्रष्टाचार

सियासी लिहाज से देखें तो चुनाव में कांग्रेस अति आत्मविश्वास और भ्रम का शिकार दिखाई दी. सोनिया गांधी थकीहारी और बीमार सी दिखीं तो राहुल गांधी अपने भाषणों में मुद्दे की बातों के बजाय दार्शनिकों सी भारीभरकम, आम आदमी को न समझ आने वाली बातें करते रहे. ‘हर हाथ शक्ति हर हाथ तरक्की’ व ‘कट्टर सोच नहीं युवा जोश’ के नारे लोगों को छलावा लगे.

जनता, जो कांग्रेस सरकार के दौरान लगातार बढ़ती महंगाई व भ्रष्टाचार से आजिज आ चुकी थी, ने इन नारों को गंभीरता से नहीं लिया. इस लोकसभा चुनाव में कोई राष्ट्रीय मुद्दा नहीं था, न ही कोई लहर थी. इस का पूरा फायदा संघ ने उठाया और नरेंद्र मोदी को ही मुद्दा बना डाला. कांग्रेस के खिलाफ पनपते जनाक्रोश और ऊब को वोटों में तबदील करने के लिए जरूरी था कि मंदिर निर्माण की बात ज्यादा न की जाए क्योंकि लोग इतना तो समझते हैं कि नरेंद्र मोदी का मतलब ही हिंदुत्व होता है.

दरअसल, नरेंद्र मोदी की 3 मोरचों पर जीत हुई है. एक, मोदी 2002 में हुए गुजरात दंगों के दाग छिपाने में कामयाब रहे. इस जीत ने मोदी पर लगे दंगों के दाग धो दिए. गोधरा कांड के बाद गुजरात में हुए दंगों में कई हजार लोग मारे गए थे और उस में मोदी सरकार का हाथ बताया गया था. हालांकि कुछ मामलों में अदालत और जांच कमेटियों ने उन्हें बरी कर दिया था. वे लगातार गुजरात के विकास को प्रचारित करते रहे. गुजरात को विकास का आदर्श मौडल मान लिया गया.

दूसरे, उन्होंने भारतीय जनता पार्र्टी के बूढे़, थके नेताओं को बाहर कर भाजपा पर विजय पाई.

तीसरे, उन्होंने अकेले दम पर पूरे बहुमत के साथ विजय पाई और अपने साथ उन दलों का भी उद्धार कर दिया जो उन के साथ आ मिले थे.

मोदी ने चतुराई से सीधे न राम मंदिर निर्माण की बात की और न ही ज्यादा हिंदुत्व की. मोदी सुशासन और विकास के नाम पर चुनावी प्रचार करते रहे. वे समूचे देश को साथ ले कर चलने की बात भी करते रहे. भगवा जैकटों और रंगबिरंगी टोपियां जरूर लगाईं ताकि उन के मूल समर्थक साथ रहें. यह मोदी की कर्मठता की वजह से संभव हो पाया है. उन का जज्बा, उत्साह औरों के मुकाबले कहीं अधिक ऊंचा रहा है. बाकी सारे नेता थकेहारे लगते रहे, चाहे उन की अपनी पार्टी के थे या दूसरे विरोधी दलों के.

भाजपा पिछले दिनों दिल्ली में हुए विधानसभा चुनावों में सत्ता का रास्ता रोके जाने पर नई पार्टी ‘आप’ से थोड़ा डरी रही पर ‘आप’ दिल्ली की तरह देश में करिश्मा नहीं दिखा पाई. उस ने सब से ज्यादा 426 सीटों पर चुनाव लड़ा था लेकिन जीत पाई केवल 4 सीटें. ये चारों सीटें उसे पंजाब से मिली हैं. अपने दिल्ली के गढ़ में वह सारी सीटें हार गई. पार्टी मुखिया अरविंद केजरीवाल, योगेंद्र यादव, कुमार विश्वास, आशुतोष, शाजिया इल्मी हरियाणा और उत्तर प्रदेश की सीटों पर हार गए.

भाजपा ने गुजरात की सभी 26, राजस्थान की सभी 25, दिल्ली की सभी 7, उत्तराखंड की सभी 5, छत्तीसगढ़ की 11 में से 10, झारखंड में 14 में से 12, कर्नाटक में 28 में से 17, बिहार की 40 में से 31,  महाराष्ट्र में 48 में से 23 सीटों पर विजय पाई.

अगर मुसलमानों की बात करें तो देश की मुसलिम असर वाली 92 सीटों में से मोदी को 41 सीटें मिली हैं. क्या इस का अर्थ यह माना जाए कि मुसलमानों के भी बड़ी तादाद में वोट मोदी के खाते में गए हैं? अभी इस पर विश्लेषण चल रहा है.

मोदी से उम्मीदें

देश के सब से बड़े सूबे उत्तर प्रदेश की बात करें तो यहां की जनता सत्ताधारी दलों के निकम्मेपन से पूरी तरह से ऊब चुकी थी. राज्य की कुल 80 में से भाजपा को मिली 73 सीटें इस बात का सुबूत हैं कि जनता ने मोदी के विकास, सुशासन के नारे पर भरोसा किया है. इस चुनाव में भाजपा नेता नरेंद्र मोदी ने खुले मन से हिंदुत्व की बात नहीं की और न अल्पसंख्यकों के खिलाफ किसी तरह का आक्रोश दिखाया. मोदी से अधिक विरोधी दल सपा, बसपा और कांग्रेस ही मोदी के मुसलिम विरोध को मुद्दा बनाते रहे. जनता इस बात को समझ चुकी थी कि ये दल मोदी विरोध की हवा दे कर सुशासन, भ्रष्टाचार, विकास और महंगाई जैसे मुद्दों से जनता का ध्यान भटकाना चाहते हैं. यहां बस कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी रायबरेली और राहुल गांधी अमेठी से सीट बचाने में सफल रहे.

सब से बड़ा झटका सपा, बसपा और राष्ट्रीय लोकदल को लगा है. तीसरे मोरचे के सहारे प्रधानमंत्री बनने का सपना देखने वाले मुलायम सिंह मैनपुरी और आजमगढ़ से जीते और पुत्रवधू डिंपल को कन्नौज से जिता ले गए. भतीजा अक्षय यादव फिरोजाबाद, दूसरा भतीजा धर्मेंद्र्र बदायूं से कामयाब हुए. बसपा को कोई भी सीट नहीं मिली. दलित की बेटी का प्रधानमंत्री बनने का सपना हमेशा के लिए टूट गया.

सपा और बसपा दोनों को ही कांग्रेस का साथ देने की सजा मिली है. राजनीतिक रूप से देखा जाए तो पिछड़ी और दलित जातियों की अगुआई करने वाली सपाबसपा दोनों का अस्तित्व खत्म होता नजर आ रहा है.

राष्ट्रीय लोकदल के मुखिया अजित सिंह और उन के पुत्र जयंत दोनों को ही करारी हार का सामना करना पड़ा है. 

पहली बार भाजपा को यहां इतना बड़ा समर्थन मिला है तो युवाओं ने मोदी की सक्रियता और युवाओं के लिए कुछ करने के वादे पर भरोसा किया है. युवा चाहता है उन्हें रोजगार मिले, पढ़ाईलिखाई की दिक्कतें दूर हों. अमित शाह को जब यहां भेजा गया तो उन का टारगेट युवा मतदाता ही था.

फेल हुए सुशासन बाबू

बिहार की बात करें तो भाजपा ने तीसरे मोरचे की हवा निकाल दी. वैसे तो जातिवाद कमोबेश समूचे देश में है पर बिहार में इस का रंग कुछ ज्यादा ही गहरा रहा है. यहां हर चीज को जाति से देखने और आंकने की आदत रही है. कोई नया आदमी आप से मिलेगा तो नाम, गांव, जिला पूछेगा. उस से भी उसे अगर आप की जाति का पता नहीं चल पाता है तो तपाक से पूछ बैठेगा, ‘अरे, किस जाति के हो?’

लोकसभा चुनाव के दौरान बिहार में तरक्की और सुशासन के नारे पर जाति हावी होने की कोशिश करती रही. मुख्य रूप से 3 जातियों का समीकरण काम कर रहा था. एक के अगुआ रहे राष्ट्रीय जनता दल यानी राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव, जो कांगे्रस की मदद से यूपीए-3 का सपना देखते और दिखाते रहे. उन का दावा था कि यादव और मुसलमान उन के पक्के वोटर हैं और कांगे्रस के साथ गठबंधन करने से उन्हें ब्राह्मण और भूमिहार जाति का भी वोट मिल जाएगा. दूसरा समीकरण भाजपा और लोक जनशक्ति पार्टी यानी लोजपा प्रमुख रामविलास पासवान के तालमेल से बना. बनिया, राजपूत, कायस्थ, ब्राह्मण जातियां समेत शहरी आबादी भाजपा की कट्टर समर्थक रही हैं. पासवान के मिलने से भाजपा को दलितों और महादलितों का वोट मिलने की उम्मीद जगी थी. तीसरे समीकरण के मुखिया बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार रहे, जो वाम दलों, सपा, जेवीएम, बीजद, अन्नाद्रमुक आदि दलों को मिला कर तीसरा मोरचा बनाने की कवायद में लगे रहे. नीतीश को कुर्मी, कुशवाहा और पिछड़ी जातियों का पूरा सपोर्ट रहा है.

बिहार की कुल आबादी 10 करोड़ 50 लाख है और 6 करोड़ 21 लाख वोटर हैं. इन में 27 फीसदी अति पिछड़ी जातियां, 22.5 फीसदी पिछड़ी जातियां, 17 फीसदी महादलित, 16.5 फीसदी मुसलमान, 13 फीसदी अगड़ी जातियां और 4 फीसदी अन्य जातियां हैं.

भाजपा बिहार प्रभारी धर्मेंद्र प्रधान कहते हैं कि इस बार के चुनाव में अति पिछड़ों ने गेम चेंजर की भूमिका अदा की है. भाजपा को हर जाति का समर्थन मिला है पर सब से ज्यादा अति पिछड़ों ने गेमचेंजर की भूमिका अदा की है. भाजपा को हर जाति का समर्थन मिला है पर सब से ज्यादा अति पिछड़ों ने भाजपा और नरेंद्र मोदी में भरोसा जताया है. अति पिछड़ों को इस से पहले तक नीतीश और लालू पर यकीन था. नरेंद्र मोदी के बैकग्राउंड की वजह से अति पिछड़ों और पिछड़ों का वोट भाजपा को मिला है.

नीतीश कुमार अपनी खामियों और कमजोरियों पर परदा डालने के लिए इस मसले पर केवल राजनीति ही करते रहे.

नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी के बीच की खींचतान का पिछला रिकौर्ड बताता है कि नीतीश अपनी खुन्नस छिपा नहीं पाते हैं और मोदी बड़ी चालाकी से खामोश रह कर नीतीश की खुन्नस का जवाब देते रहे हैं. नीतीश के करीबी रहे जदयू के एक नेता बताते हैं कि नीतीश कभी मोदी की तारीफ में कसीदे पढ़ा करते थे. मोदी गुजरात की पिछड़ी घांची (धानुक या तेली) जाति से और नीतीश बिहार की पिछड़ी कुर्मी जाति से आते हैं. पहली बार जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे तो नीतीश का मानना था कि मोदी ही भाजपा को ब्राह्मणवाद के चोले से बाहर निकाल सकते हैं.

2002 के गुजरात के गोधरा कांड के बाद नीतीश ने बड़ी ही खामोशी और चालाकी से मोदी से दूरी बनानी शुरू कर दी थी और पिछले साल 16 मई को तो नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के तौर पर प्रोजैक्ट करने के विरोध में नीतीश ने भाजपा को राज्य सरकार से बाहर का रास्ता दिखा दिया था.

जाति की बात पर और ज्यादा सोचने की जरूरत है. सीधेसीधे कहा जाए तो जमाना अब पिछड़ों का है. अधिकांश राज्यों के मुख्यमंत्री पिछड़े वर्ग के हैं और पूरी ठसक से हैं. कुल आबादी और वोटों का आधा हिस्सा पिछड़े वर्ग का है जो हर राज्य में अलगअलग समीकरणों के चलते 2 से ज्यादा दलों में बंटता रहा था, यानी एकजुट नहीं था.

पिछड़ों का है जमाना

इत्तेफाक से राजनीति का यह वह दौर है जिस में जमीनी व वजनदार ठाकुर और ब्राह्मण नेता किसी दल के पास नहीं हैं. संघ ने इस हालत पर पूरा शोध व विश्लेषण किया और फैसला लिया कि ब्राह्मणों के हित में और अपनी विचारधारा यानी हिंदूवादी एजेंडे को लागू करने में बेहतर है कि अब किसी पिछड़े को ही अपग्रेड कर उसे आधुनिक ब्राह्मण बना दिया जाए.

संघ और भाजपा के रणनीतिकारों ने नैशनल इलैक्शन स्टडी के पेश आंकड़ों को भी ध्यान में रखा जिन के मुताबिक 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को पिछड़े वर्ग के 22 फीसदी ही वोट मिले थे जबकि कांग्रेस को उस से महज 1 फीसदी ज्यादा वोट मिले थे. 2003 के चुनाव में भी लगभग ऐसी ही हालत थी. उत्तर प्रदेश जैसे सब से बड़े सूबे के आंकड़ों पर नजर डालें तो 2009 में भाजपा को महज 27 फीसदी पिछड़े वोट मिले थे जबकि 1996 और 1998 में यह प्रतिशत 45 था. गुजरात में 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 48 जबकि भाजपा को 46 प्रतिशत वोट मिले थे. राजस्थान में दोनों दल 42 फीसदी वोट ले कर बराबरी पर थे लेकिन मध्य प्रदेश में भाजपा को 46 फीसदी पिछड़े वोट 2009 में मिले थे जबकि कांग्रेस 17 फीसदी पर सिमट गई थी. छत्तीसगढ़ जैसे आदिवासी बहुल सूबे में भाजपा को हैरतअंगेज तरीके से 57 फीसदी वोट इस समुदाय के मिले थे. कांग्रेस यहां 28 प्रतिशत पर सिमट गई थी.

जाति का सियासी कार्ड

आजादी के बाद से अब तक देश में बहुत सारे बदलाव हो चुके हैं. 16वीं बार देश में लोकसभा के आम चुनाव हो चुके हैं. एक के बाद एक  कई दल सत्ता की कुरसी पर बैठ चुके हैं. सामाजिक समस्याओं, कुरीतियों और रूढि़वादी सोच के खिलाफ हर दल की सोच एक जैसी ही रही है.

1947 में जब देश में सरकार चलाने के लिए प्रधानमंत्री की कुरसी पर बैठने वाले का नाम तय करने का समय आया तो ऊंची जाति के पंडित जवाहरलाल नेहरू को आगे कर दिया गया था.

आजादी के बाद से ही देश ही नहीं हर प्रदेश में ऊंची जातियों का वर्चस्व लंबे समय तक बना रहा. उत्तर प्रदेश में 1947 से ले कर 1989 तक लगातार 42 साल तक ऊंची जातियों के नेताओं ने मुख्यमंत्री की कुरसी पर अपना कब्जा बनाए रखा. आजादी के बाद पंडित गोविंद वल्लभ पंत से शुरू हुआ यह सिलसिला संपूर्णानंद, चंद्रभानु गुप्ता, सुचेता कृपलानी, चरण सिंह, त्रिभुवन नारायण सिंह, कमलापति त्रिपाठी, हेमवतीनंदन बहुगुणा, नारायण दत्त तिवारी तक बिना किसी अवरोध के चलता रहा. यह सभी ऊंची जातियों का प्रतिनिधित्व करते थे.

1977 से 1979 के बीच ही रामनरेश यादव को मुख्यमंत्री की कुरसी मिली थी. पिछड़ी जाति के वह पहले नेता थे जिन को उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री की कुरसी नसीब हुई थी. कांग्रेस का दौर वापस आते ही मुख्यमंत्री की कुरसी पर एक के बाद एक ऊंची जातियों के नेताओं का कब्जा होने लगा. 

1989 में केंद्र में एक बड़ा सामाजिक बदलाव हुआ जिस के तहत कांग्रेस सत्ता से बाहर गई और जनता दल की केंद्र में सरकार बनी. भारतीय जनता पार्टी जनता दल सरकार का समर्थन कर सरकार चला रही थी. उस समय के प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने पिछड़ी जातियों की बेहतरी के लिए देश में मंडल कमीशन लागू करने का ऐलान किया. जनता दल की सरकार का बाहर से समर्थन कर रही भाजपा शुरू से ही ऊंची जातियों का समर्थन कर रही थी. ऐसे में उस ने मंडल कमीशन का विरोध किया और मंडल कमीशन को रोकने के लिए अयोध्या में राममंदिर का मुद्दा उठा दिया. राममंदिर की आड़ ले कर विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार को सत्ता से बाहर कर दिया. उस समय तक पिछड़ी जातियों के नेताओं का उदय हो चुका था. 

उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री की कुरसी पर पिछड़ी जाति के मुलायम सिंह यादव कब्जा कर चुके थे. मजबूर हो कर भाजपा को भी अपनी पार्टी के अंदर पिछडे़ वर्गों के नेताओं को महत्त्व देना पड़ा. उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह का नाम सब से प्रमुख था. काम निकल जाने के बाद कल्याण सिंह को हाशिए पर ढकेल दिया गया. कल्याण सिंह के बाद भाजपा में पिछड़ी जातियों के नेताओं की राजनीति का प्रभाव खत्म हो गया. सत्ता पर ऊंची जातियां फिर से काबिजहो गईं.

पिछड़ी जातियों के साथ ही साथ दलित जातियों का उभार भी शुरू हो चुका था. ऐसे में एक तरफ धर्म और ऊंची जातियों की राजनीति करने वाली भाजपा थी तो दूसरी ओर पिछड़ों की अगुआई करने वाली मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी और पूरे देश में अछूतों यानी दलितों की अगुआई बहुजन समाज पार्टी के मुखिया कांशीराम कर रहे थे. राममंदिर आंदोलन के उफान के बाद भी मुलायम और कांशीराम की जोड़ी ने 1993 के विधानसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश में भाजपा को सत्ता से बाहर कर दिया. बाकी राज्यों में इन दोनों पिछड़ों और दलितों के नेताओं की एक न चली.

हाशिए से मुख्यधारा की ओर

भाजपा के भेष में अब एक बार फिर से 1947 से 1989 तक के कांग्रेसी जमाने की ऊंची जातियों की सत्ता में वापसी हुई है. भाजपा की जीत में अचंभे वाली बात यह है कि हाशिए पर खड़ी अगड़ी जातियों को एक बार फिर से राजनीतिक रूप से जिंदा करने का काम किया है.    

मध्य प्रदेश में भी यही सब हुआ. लोकसभा की कुल 29 में से भाजपा 27 सीटें अपनी झोली में डालने में कामयाब रही. कांग्रेस को महज 2 सीटें मिलीं. केंद्रीय मंत्री कमलनाथ छिंदवाड़ा और ज्योतिरादित्य सिंधिया गुना से अपनी सीटें बचा पाए.

मध्य प्रदेश से सटा छत्तीसगढ़ कभी कांग्रेस का गढ़ माना जाता था लेकिन कांग्रेस की अंदरूनी कलह यहां बढ़ती गई. विद्याचरण शुक्ल और आदिवासी नेता अजीत जोगी के बीच राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई ने यहां भाजपा को पांव पसारने का मौका दे दिया. यही वजह है कि राज्य की रमनसिंह सरकार के कामकाज की बदौलत लोकसभा की 11 सीटों में 10 सीटें भाजपा ने अपने खाते में डाल लीं. नक्सली वारदातें राज्य की रोजमर्रा जिंदगी का हिस्सा बनते जाने के बाद भी पार्टी ने अपने बलबूते यहां कामयाबी पाई.

राजस्थान में पिछले दिनों हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा ने राजघराने के नेतृत्व में कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर के सरकार बनाई थी तब मोदी के दौरों ने राज्य के युवा वोटरों पर जादू सा असर किया. यहां मोदी लहर एकतरफा दिखाईर् दी. गुजरात की सीमा से सटे होने के कारण मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया और नरेंद्र मोदी के बीच अच्छा तालमेल दिखाई देता रहा. यही वजह है कि राज्य की सभी 25 सीटों पर भाजपा का परचम लहरा रहा है.

लगातार तीसरी बार गुजरात के मुख्यमंत्री रहे नरेंद्र मोदी अपने राज्य में सभी 26 सीटें ले गए. कांग्रेस के दिग्गज शंकर सिंह वाघेला हार गए. पर जहां दूसरे दल दमखम से काम कर रहे हैं वहां नरेंद्र मोदी का जादू कम चला. पश्चिम बंगाल में मोदी लहर के बावजूद ममता बनर्जी का जादू चला और वे अपनी तृणमूल कांग्रेस पार्टी को प्रदेश की कुल 42 में से 34 सीटें दिला ले गईं. फिर भी पहली बार भाजपा ने यहां से 2 सीटें जीत लीं.

यह कड़वी सचाई है कि बंगलादेशी घुसपैठ ने बंगाल के जनसांख्यिकी संतुलन में ऐसा परिवर्तन ला दिया कि राज्य की सत्ता में उलटफेर में अल्पसंख्यक मतदाता एक अहम कारक बन गए. बंगाल में काफी हद तक राजनीतिक पार्टियों के लिए सत्ता का रास्ता अल्पसंख्यक मतदाताओं की गलियों से हो कर गुजरता है. इस के बगैर कोई चारा भी नहीं.

वर्ष 2016 में राज्य में विधानसभा चुनाव होने हैं. ऐसे में राज्य में भाजपा के पैर पसारने से ममता बनर्जी को बड़ा झटका लगना तय है. अगर 16वीं लोकसभा के नतीजों की समीक्षा की जाए तो यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि पिछले विधानसभा चुनाव के बाद कांगे्रस और वाममोरचे का बड़ा हिस्सा तृणमूल कांगे्रस में शामिल हो गया था जो फिर छिटक कर अब मजबूत हुई भाजपा में जा सकता है.

तमिलनाडु में जयललिता ने न केवल राज्य की 39 में से 37 सीटें हासिल कीं, उन की अन्नाद्रमुक देश की तीसरी सब से बड़ी पार्टी भी बन कर उभरी. द्रमुक और कांग्रेस जोड़ी का सफाया ही हो गया.

कर्नाटक में 28 में से भाजपा को सब से अधिक 17 सीटें, कांग्रेस को 9 और जनता दल सैक्युलर को 2 सीटें मिलीं. दक्षिण के नए राज्य तेलंगाना के गठन का फायदा तेलंगाना राष्ट्र समिति यानी टीआरएस को मिला है. तेलुगूदेशम पार्टी यानी टीडीपी भाजपा से गठबंधन कर फायदे में रही. तेलंगाना में भाजपा से गठजोड़ कर टीडीपी के चंद्रबाबू नायडू ने 16 सीटें पा लीं. टीआरएस को 11 सीटें मिलीं लेकिन कांग्रेस दोनों राज्यों में खाली हाथ रही. सीमांध्र में वाईएसआरसी और टीडीपी में मुकाबला था, जहां किरण रेड्डी की पार्टी ने जगनमोहन को खासा नुकसान पहुंचाया.

असल में चुनाव प्रचार और प्रबंधन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपरहैंड की तरह से काम किया. जब कभी भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने नरेंद्र मोदी की राह रोकने का प्रयास किया, संघ बीच में आ गया. संघ प्रमुख मोहन भागवत एक तरफ यह कहते रहे–‘उन का काम नमोनमो करना नहीं है’, दूसरी तरफ वे भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज और जसवंत सिंह जैसे लोगों के विरोध को रोकते रहे. संघ प्रमुख ने सरकार से उम्मीद लगाते हुए कहा है कि ‘हमें न्याय करने वाला शासन चाहिए, जो सभी के साथ समान व्यवहार करने वाला नजरिया रखता हो. अच्छे शासन का मतलब है जिस में सभी लोगों की भागीदारी हो.’

मोदी सरकार या संघ की बात

जिस समय नरेंद्र मोदी को वाराणसी से चुनाव लड़ाने की योजना बनी थी उसी समय यह साफ हो गया था कि संघ अब विवादित मुद्दों को राजनीति के जरिए ही हल करना चाहता है. नरेंद्र मोदी के लिए इन मसलों को परदे के पीछे ढकेलना संभव नहीं होगा. नरेंद्र मोदी के रूप में संघ का सब से लाड़ला स्वयंसेवक प्रधानमंत्री की कुरसी पर बैठ चुका है. अब अपने को संघ की उम्मीदों पर खरा साबित करना मोदी का काम है.\

अटल सरकार के समय संघ ने खुल कर उन पर दबाव नहीं बनाया था. संघ ने लालकृष्ण आडवाणी के रूप में केवल अपना स्वयंसेवक तैनात किया था. संघ की उम्मीदों पर खरा न उतर कर लालकृष्ण आडवाणी ने उस समय जो गलती की थी उस का खमियाजा वे अब तक भुगत रहे हैं. आडवाणी का हश्र देख कर भाजपा को दूसरा कोई नेता संघ की अवहेलना करने की कोशिश करेगा इस की आशंका नहीं दिखती है.

नरेंद्र मोदी समूचे देश व देशवासियों को साथ ले कर चलने की बात कह रहे हैं लेकिन आशंका उठती है कि वास्तव में प्रचंड बहुमत पाने वाली यह सरकार मोदी की होगी या मोहन की. मोहन यानी मोहन भागवत की अर्थात भाजपा की या आरएसएस की.

-दिल्ली से जगदीश पंवार के साथ लखनऊ से शैलेंद्र सिंह, भोपाल से भारत भूषण श्रीवास्तव, पटना से बीरेंद्र बरियार ज्योति, कोलकाता से साधना शाह.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...