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ब्राह्मण वोटबैंक- दिखावा ज्यादा, हकीकत कम

उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण वोटबैंक खुद को भले ही चुनावों में जीत की कुंजी मानता हो पर सचाई कुछ और ही है. राज्य की राजनीति में ब्राह्मण वोटबैंक और जाति समीकरण की स्थिति का जायजा ले रहे हैं शैलेंद्र सिंह.

उत्तर प्रदेश में कुछ सालों से ऐसी भूमिका बनाई जा रही है कि ब्राह्मण एक मजबूत वोटबैंक बन गया है. वह जिस की तरफ झुक जाता है वह पार्टी चुनाव जीत जाती है. दरअसल, ब्राह्मण वोटबैंक की यह राजनीति दिखावा है हकीकत नहीं. उत्तर प्रदेश में जब अगड़ी जातियों की बात होती है तो ठाकुर, ब्राह्मण और बनिया बिरादरी का नाम आता है. बनिया बिरादरी में कुछ उप जातियां पिछड़ी जातियों के करीब मानी जाती हैं. इन में से 11 उप जातियां तो पिछड़ी जातियों में शामिल भी हो चुकी हैं. मोटेतौर पर देखें तो ठाकुर, ब्राह्मण और बनिया बिरादरियां अगड़ी जातियों में गिनी जाती हैं. अगर इन जातियों की भागीदारी की बात करें तो सभी जातियों की संख्या करीबकरीब एक जैसी ही है. ये सभी जातियां 8 से 9 फीसदी के बीच ही हैं. बनिया और कायस्थ बिरादरी को अगड़ी जातियों में एक ही वर्ग में माना जाता है.

आबादी में सभी अगड़ी जातियों के बराबर होने के बावजूद ब्राह्मण वोटबैंक बन गया और दूसरी जातियां पीछे छूट गईं. इस का अपना एक खास कारण है. अगड़ी जातियों में ब्राह्मण सब से ज्यादा शिक्षित और मुखर हैं. ऐसे में अपनी उपयोगिता बनाए रखने के लिए बड़ी चतुराई से वह वोटबैंक बन कर उभर आई. 

राजनीतिक समीक्षक हनुमान सिंह सुधाकर कहते हैं, ‘‘1990 से पहले जब राजनीति में मंडल कमीशन का उभार नहीं था तब ब्राह्मण कांग्रेस के साथ खड़े थे. इस के पीछे कांग्रेस के प्रमुख नेताओं का ब्राह्मण बिरादरी से होना माना जा रहा था. मंडल कमीशन आने के बाद जातीय राजनीति में जो बदलाव आया उस ने उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे प्रमुख हिंदी भाषी क्षेत्रों से अगड़ी जातियों को हाशिए पर ला खड़ा किया. भाजपा ने धर्म की राजनीति को शुरू कर के जातीयता को हाशिए पर ढकेलने की कोशिश की पर सफलता नहीं मिली.

उत्तर प्रदेश में दलित और पिछड़ी जातियां एकदूसरे के मुकाबले खड़ी हो गईं. दलित जातियां बहुजन समाज पार्टी और पिछड़ी जातियां समाजवादी पार्टी के साथ आ खड़ी हुईं. दलित और पिछड़ी जातियों के सामने ठाकुरब्राह्मण जैसी जातियां सत्ता की दौड़ में पिछड़ गईं. ऐसे में ब्राह्मण बिरादरी ने अपनी शिक्षा और मुखर होने के गुण का लाभ उठाते हुए इन दलित और पिछड़ी जातियों के बीच अपनी जगह बनानी शुरू कर दी. सब से पहले ब्राह्मण बिरादरी ने समाजवादी पार्टी को अपने निशाने पर लिया. वर्ष 2002 के विधानसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी ने बड़ी संख्या में कुछ ब्राह्मण नेताओं को जुटा कर ब्राह्मण सम्मेलन कराने शुरू किए. सपा ने कुछ ब्राह्मण नेताओं के जमावडे़ को पूरी बिरादरी का जमावड़ा मान लिया ़

समाजवादी पार्टी को लगा कि अब उस की जीत तय है. विधानसभा चुनाव के परिणाम आए तो सरकार बहुजन समाज पार्टी की बन गई. यह बात और है कि तोड़फोड़ की राजनीति के बाद 2003 में समाजवादी पार्टी ने अपनी सरकार बना ली. देखा जाए तो ब्राह्मण बिरादरी के नेता अलगअलग पार्टियों में बिखरे हुए हैं. विश्व शूद्र महासभा के अध्यक्ष चौधरी जगदीश पटेल कहते हैं, ‘‘वर्ष 2007 के विधानसभा चुनावों में बहुजन समाज पार्टी को लगा कि वह केवल दलित वोटो के बल पर अपनी सरकार नहीं बना सकती, उस ने दलित और अगड़ी जातियों के बीच गठजोड़ तैयार किया. जिस के तहत हर जाति में बहुजन भाईचारा कमेटी का गठन किया गया. यह भाईचारा कमेटी बसपा का प्रचार करने में लग गई. इस का लाभ बसपा को हुआ.’’

2007 के विधानसभा चुनावों में बसपा को बहुमत हासिल हो गया.  ब्राह्मण वर्ग ने बड़ी चतुराई से बसपा की इस सोशल इंजीनियरिंग में सेंधमारी करते हुए यह साबित करने की कोशिश की कि दलित ब्राह्मण गठजोड़ से ही बसपा को पूर्ण बहुमत हासिल हुआ है. चौधरी जगदीश पटेल सवाल उठाते हैं, ‘‘अगर ब्राह्मणों ने बसपा का साथ दिया तो सपा के ब्राह्मण नेता चुनाव कैसे जीते? 2012 में जब दोबारा विधानसभा चुनाव हुए तो बसपा के इस ब्राह्मणदलित गठजोड़ की पोल खुल गई. बसपा विधानसभा चुनाव में सत्ता से बाहर हो गई. पिछड़ों की अगुआई वाली सपा की सरकार बन गई. मजेदार बात यह है कि जो ब्राह्मण नेता बसपा की जीत का सेहरा अपने सिर बांध रहे थे, वे हार का ठीकरा किसी और के सिर पर फोड़ने लगे.’’

2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की कमान ब्राह्मण जाति की रीता बहुगुणा जोशी के हाथ थी. भाजपा की कमान लक्ष्मीकांत वाजपेई के हाथ थी. समाजवादी पार्टी की अगुआई पिछड़ी बिरादरी के अखिलेश यादव कर रहे थे और बसपा की कमान मायावती के हाथ में थी. इस चुनाव में सफलता सपा को हासिल हुई. 

अगर ब्राह्मण एकजुट था तो कांग्रेस और भाजपा की इतनी बुरी हार क्यों हुई? इन दलों की अगुआई का काम तो ब्राह्मण जाति के लोग कर रहे थे. ये ऐसे तथ्य हैं जो पूरी दुनिया के सामने हैं. इस से समझा जा सकता है कि ब्राह्मण वोटबैंक का जो होहल्ला मच रहा है, सही मानों में वह दिखावा ज्यादा और हकीकत कम है. चौधरी जगदीश पटेल का तो मानना है कि ब्राह्मण एकजुटता का जो दिखावा किया जा रहा है वह सत्ता में हिस्सेदारी बनाए रखने का एक जरिया भर है. मजेदार बात यह है कि इस होड़ में केवल वे दल ही जुटे हैं जिन की जमीन दलित और पिछड़ों के वोटों पर टिकी है.

2014 के लोकसभा चुनावों के पहले एक बार फिर सपा और बसपा में ब्राह्मण मतदाताओं को अपनी ओर खींचने की होड़ मच गई है. 12 मई को समाजवादी पार्टी कार्यालय में बड़ी धूमधाम से परशुराम जयंती मनाई गई. इस में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव शामिल हुए.  इस मौके पर अयोध्या से कुछ धार्मिक नेता बुलाए गए थे. समाजवादी पार्टी के नेता अयोध्या और मथुरा से आए संतों के सामने अपना सिर झुकाए खड़े थे. ऐसा लग रहा था जैसे महज संतों के सामने सिर झुकाने से ही लोकसभा चुनावों में सपा की जीत तय हो जाएगी. मीडिया और प्रचार के दूसरे माध्यम ब्राह्मण वोटबैंक को तो 12 फीसदी तक साबित करने में लग गए हैं. यही नहीं, यह भी प्रचारित किया जा रहा है कि सपा के राज में ब्राह्मणों का सब से अधिक हित हो रहा है.

दलित चिंतक रामचंद्र कटियार कहते हैं, ‘‘मंडल कमीशन और सरकारी नौकरियों में आरक्षण लागू होने के बाद ब्राह्मण सरकारी नौकरियों से दूर होता जा रहा है. आरक्षण का प्रभाव वैसे तो सभी जातियों पर पड़ा है पर ब्राह्मण इस से ज्यादा प्रभावित हुआ. ऐसे में उस ने राजनीति को सत्ता तक पहुंचने का माध्यम बनाने की पहल की. ब्राह्मण दूसरों के मुकाबले ज्यादा शिक्षित और मुखर हैं. वे भविष्य के बदलाव को पहले से भांपने में भी माहिर हैं इसलिए जिन दलितपिछड़ों का साथ उसे कभी गवारा नहीं था, आज वह उन के साथ एकजुट होने का दावा कर रहा है.’’

समाजवादी पार्टी ब्राह्मण सभा के अध्यक्ष डा. मनोज कुमार पांडेय एक तरफ ब्राह्मण बिरादरी को सपा से जोड़ने का काम कर रहे हैं तो दूसरी ओर सतीश मिश्रा और ब्रजेश पाठक  जैसे ब्राह्मण नेता ब्राह्मण बिरादरी को बहुजनसमाज पार्टी से जोड़ने में लगे हैं.

लोकसभा चुनाव में जीत किस की होगी, यह तो पता नहीं, पर जीत के बाद तथ्यों को नए तरह से प्रस्तुत करने का काम किया जाएगा. वोटबैंक की अगुआई करने वाले नेता यह नहीं मानेंगे कि हार का कारण उन की रणनीति थी. जीत का सेहरा अपने सिर और हार का ठीकरा दूसरे के सिर फोड़ने का काम चलेगा. परशुराम जयंती के अवसर पर समाजवादी पार्टी कार्यालय में जब कार्यक्रम का आयोजन किया गया तो सभा के ही 2 ब्राह्मण नेताओं की खींचतान सामने दिख रही थी.  ऐसे में सरलता से समझा जा सकता है कि जब 2 नेता एकजुट नहीं हो सकते तो इतनी बड़ी बिरादरी को एकजुट कैसे किया जा सकता है. जातिबिरादरी की इस लड़ाई में उत्तर प्रदेश ने इन के अगुआ नेताओं को आगे बढ़ते और बिरादरी को पीछे होते देखा है. अगर जाति बिरादरी को छोड़ कर विकास की राजनीति हो तो ही प्रदेश का भला हो सकता है.

सड़कों पर बेबस जिंदगियां

दिल्ली में यमुना किनारे बसी अवैध झुग्गियों में रहने वाले परिवार बाढ़ के चलते एक अदद आशियाने को तरस रहे हैं. वोटबैंक की शक्ल में पल रहे ये लोग आज भले ही सरकार को कोस रहे हैं पर अपनी इस हालत के लिए ये खुद ही जिम्मेदार हैं. पढि़ए बुशरा का लेख.

सड़क किनारे फुटपाथ पर काली बरसाती, तिरपाल को कुछ लकड़ी के बांसों के सहारे टिका कर बनाई गई उस झोपड़ी के भीतर झांकने के लिए जैसे ही हम ने अपना सिर थोड़ा नीचे झुकाया तो भीतर से मैले कपड़ों, पसीने, गोबर और कचरे की दुर्गंध नथुनों से हो कर मेरे दिमाग को सुन्न कर गई. दिल्ली में यमुना नदी मेंआए उफान के कारण उस के किनारों पर बसे सैकड़ों झुग्गीवासी सड़कों पर नजर आते हैं. मैं ने धीरेधीरे सांस लेते हुए उस बदबू को इग्नोर करने की कोशिश की और अंदर पड़ी लकड़ी की चौकी के एक किनारे पर टिक गई. चौकी पर ढेर सारा सामान बिखरा हुआ था. चारों ओर रस्सी बांध कर उस पर कपड़े लटकाए गए थे, जिन में कुछ साफ तो कुछ मैले थे. कुछ कपड़े व सामान छोटीछोटी गठरियों में बांध कर चौकी के नीचे रखा हुआ था. बची जगह में बड़ेबड़े कद्दू रखे हुए थे जिन पर एक अधफटा कपड़ा ढका था. 

कुछ स्टील व ऐल्यूमिनियम के बरतनों को धो कर उन का पानी सूखने के लिए उन्हें जमीन पर पलट कर रखा गया था. इस अस्थायी झोंपड़ी के बाहर मिट्टी का एक डबल चूल्हा बनाया गया था जिस पर एक ओर बड़ा सा तवा रखा था और दूसरी ओर का चूल्हा खाली पड़ा था. चूल्हे के पास ही पेड़ के सूखे झाड़ रखे थे.

झोंपड़ी के भीतर बैठी 3 महिलाओं में नसीबन नाम की महिला उम्र में बाकी 2 महिलाओं से बड़ी थी. उस के शरीर पर मौजूद कपड़े बता रहे थे कि वह पिछले कई दिनों से नहाई नहीं है. इस महिला की उम्र 60 के आसपास रही होगी. उस ने मुंह खोला तो साफ हुआ कि वह पान खाने की शौकीन है. शायद बहुत लंबे समय से वह पान खाती आ रही थी, इसलिए दांत काले पड़ चुके थे. हालांकि सामने की तरफ ऊपर व नीचे के कुछ दांत टूट चुके थे, कुछ अधटूटी अवस्था में थे.

इस महिला से बात करने के दौरान उस का सूखा हुआ मुंह देख कर ही मैं ने भांप लिया था कि आज उस ने अभी तक  एक  भी पान नहीं चबाया था. इतना सोचना भर था कि उस ने पास रखे अधभरे प्लास्टिक के लोटे में हाथ डाल कर कपड़े की एक कतरन में लिपटे बनारसी पानों को निकाला और उन्हें दोबारा लपेटने लगी. पास बैठी लगभग 45 वर्ष की जमीला नाम की महिला नसीबन की बड़ी बेटी है. और जमीला के पास बैठी रुखसार उस की भाभी.

यहीं जमीन पर बिछे एक टाट पर लगभग 1 साल का बच्चा बिलकुल नग्न हालत में बैठा मुझे टकटकी लगाए देख रहा था. दोपहर का समय और जून माह का सूरज अपनी पूरी गरमी उगल रहा था. झोंपड़ी के भीतर मौजूद सभी महिलाएं पसीने से सराबोर हो रही थीं.

मेरे सवाल करने से पहले ही वे अपना दुखड़ा सुनाने लगीं, ‘‘इस बाढ़ ने हमारा सबकुछ छीन लिया. सारा सामान बह गया. ये कद्दू जो आप देख रही हैं, इसलिए बच गए क्योंकि उस समय इन्हें ठेले पर लाद कर मंडी ले जाने की तैयारी कर रहे थे. बाकी कुछ नहीं बचा हमारे पास. जो कुछ बोया था वह कम्बख्त पानी अपने साथ बहा ले गया. कोई सरकारी मदद नहीं मिल रही सिवा पानी के टैंकर के. कभीकभार कोई थोड़ाबहुत खाना दे जाता है.’’

दिल्ली में यमुना किनारे बसी सैकड़ों झुग्गीझोपडि़यों में रहने वाले इन हजारों लोगों की कहानी कमोबेश एक जैसी है. ये लोग बिहार, उत्तर प्रदेश आदि के गांवोंकसबों से यहां आ कर बस गए हैं. यमुना किनारे की जमीन पर ही इन में से अधिकतर खेती कर अपना व परिवार का पेट पालते हैं और बाकी मेहनतमजदूरी करते हैं. बाढ़ ने इन सब को सड़क पर ला पटका है.

दिल्ली में इस तरह की अवैध झुग्गियों की भरमार है. मदनपुर खादर, जैतपुर, बटला हाउस, उस्मानपुर, गढ़ी मंडू, सराय काले खां, खेलगांव व यमुना के तटीय क्षेत्रों की झोंपडि़यों में हजारों लोग रह रहे हैं.

इस का प्रमुख कारण है इन की खस्ता आर्थिक स्थिति. गांवों में रोजगार के अभाव के चलते ये लोग दिल्ली में दो वक्त की रोटी की आशा लिए आते हैं और यहांवहां झुग्गियां डाल कर अपना जीवन निर्वाह करते हैं. धीरेधीरे इन्हें समझ आ जाता है कि यह सौदा तो आम के आम गुठलियों के दाम वाला है, क्योंकि सरकार आएदिन अवैध कालोनियों (खाली पड़ी सरकारी जमीन पर झुग्गियां डाल कर कब्जा किया जाता है और बाद में झुग्गियों की जगह पक्के मकान बना लिए जाते हैं) को वैध करार दे देती है और मुफ्त की झुग्गी वाले रातोंरात लाखों रुपए की कीमत वाले मकानों के मालिक बन जाते हैं.

शुरुआत में सिर छिपाने के उद्देश्य से डाली गई इन झुग्गियों को बाद में पैसा कमाने का साधन बना लिया जाता है और वैध करार दे दिए  गए अपने मकानों को ये लोग किराए पर चढ़ा कर नई जगह पर झुग्गी डाल लेते हैं.

ऐसा नहीं है कि सरकार इन अवैध कब्जों को रोक पाने में सक्षम नहीं है. कई बार इन्हें हटाया जाता है, लेकिन वापस ये लोग फिर अवैध कब्जा जमा कर बैठ जाते हैं. वैसे भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया का भी यही तकाजा है कि जनता के साथ किसी तरह की जोरजबरदस्ती न की जाए. जिन के पास सिर छिपाने को जगह न हो उन्हें सरकार भी बारबार खदेड़ कर सड़क पर नहीं ला सकती.

राजनीतिक पार्टियां इन्हें अपने वोटबैंक की तरह उपयोग करने में लगी रहती हैं. जो राजनीतिक पार्टी सत्ता में आती है वह अपना वोटबैंक छिटक जाने के डर से इन्हें खदेड़ने के लिए कभी बल का प्रयोग नहीं करती. यही कारण है कि दिल्ली में अवैध झुग्गियों वाली जेजे कालोनियों मेंलगातार इजाफा हुआ है.

गौरतलब है कि यमुना में हथनीकुंड बांध से छोड़ा गया लाखों क्यूसेक पानी यमुना के आसपास बसी हजारों झुग्गियों को बहा ले गया. 

जब भी ऐसा होता है अक्षरधाम मंदिर से ले कर उस्मानपुर, गढ़ी मंडू आदि के बीच सड़कों पर बड़ी संख्या में शिविरों में बाढ़ प्रभावित लोग अस्थायी रूप से रहते नजर आते हैं. यमुना रिवर बैंक में रहने वाले लोगों को जब भी बाढ़ बेघर कर देती है ये सरकार को कोसने लगते हैं. जबकि जिन स्थानों पर ये लोग अपना बसेरा बना कर रह रहे होते हैं, वह वास्तव में यमुना के सिकुड़ जाने के बाद बचा हुआ खाली स्थान होता है.

निसंदेह जब भी यमुना में पानी बढ़ता है तो वह अपना आकार बढ़ा कर अपने वास्तविक रूप में आ जाती है. यदि कोई यमुना के सूखने पर उस के आसपास के स्थान पर अपना बसेरा बना कर रहने लगेगा तो दोषी स्वयं वह है न कि सरकार या प्रशासन. 

बारूद के ढेर पर बैठ आगआग चिल्लाने की क्या तुक है? हर बार बाढ़ से बेघर हुए लोगों को सरकार, वोटबैंक के लालच में ही सही, राहत शिविरों में सहीसलामत पहुंचा कर इन के लिए खानेपीने का प्रबंध तो करती है. मुख्यमंत्री ने दावा किया है कि उन की सरकार ने बाढ़ की वजह से प्रभावित हुए लगभग 10 हजार लोगों को 1153 टैंटों में ठहराया है और उन के खानेपीने के व्यापक प्रबंध किए हैं. उन्होंने स्वयं जा कर राहत शिविरों में बाढ़ से बेघर हुए लोगों का हालचाल जाना.

गौरतलब यह है कि अवैध रूप से झुग्गियां डाल  कर रहने वाले इन लोगों के वोटर आईडी कार्ड मौजूद हैं और चुनावों केसमय राजनीतिक दल विशेष रूप से यहां बसें भेज कर इन्हें वोट डलवाने के लिए मतदान स्थल पर ले कर जाते हैं. इन के सिर पर राजनीतिक पार्टी का हाथ होता है जो इन के वोट के बदले इन्हें संरक्षण देती है. बाढ़ के खतरे से जूझने वाले तटीय क्षेत्रों में इन्हें बड़े आराम से बसेरा बनाने दिया जाता है. शायद यही वजह है कि मुसीबत के समय इन लोगों का गुस्सा सरकार पर ही निकलता है जो इन्हें वोटों के लालच में इन स्थानों पर जमे रहने में रोड़ा नहीं अटकाती. कारण व निवारण चाहे जो भी हों, इतना तय है कि हायहाय करने वाले ये लोग अपनी इस हालत के लिए स्वयं दोषी हैं.

सरकार को भी खेलगांव और अक्षरधाम सहित उन तमाम तथाकथित वैध लेकिन नितांत अनैतिक स्थानों पर बने सभी वैधअवैध मकानों को ढहाना चाहिए जो अवैध कब्जा कर के शासनप्रशासन को कोसते नजर आते हैं. इस संबंध में बाढ़ नियंत्रण विभाग के एक अधिकारी का कहना है कि इन्हें निकाल फेंक देना चाहिए और बहुत बड़ी संख्या में इन्हें निकाला भी जा चुका है. इसलिए अब ये उतनी संख्या में नहीं हैं जितने पहले हुआ करते थे.

एक नर्सरी के नाम पर भी एक व्यक्ति यहां कईकई झुग्गियां डाल लेता है. इन्हें कई बार हटाया जाता है लेकिन ये वापस फिर उसी स्थान पर आ बसते हैं. लेकिन हर साल यमुना में आने वाली बाढ़ एक सवाल छोड़ जाती है कि इन झुग्गियों में रहने वाले कितने लोग भारतीय नागरिक हैं व कितने अवैध घुसपैठिए?

हमारी बेड़ियां

मेरे ननिहाल में एक गृहस्थ सज्जन रहते थे. उन्होंने भोजन के समय मौनव्रत रख रखा था. भोजन में उन्हें अपेक्षाकृत अधिक समय लगता था. इसलिए उन्हें भोजन परोस कर लोग अलगथलग हो जाया करते थे.

एक दिन की बात है. प्रथम ग्रास लेते ही उन को हरी मिर्च खाने की इच्छा जगी. पास में कोई नहीं था इसलिए न बोलने की स्थिति में लोटाथाली पटकने लगे. आहट पा कर मां दौड़ी आईं. पूछा, क्या लोगे? उन्होंने इशारे से जो बतलाया तो मां समझ नहीं पाईं. मां बारीबारी से गुड़, चटनी, अचार लाला कर रखती थीं, वे उठाउठा कर सबकुछ थाली से बाहर फेंकते जाते. अंतत: उन की पत्नी ने हरीमिर्च ला कर दी तब जा कर उन का गुस्सा शांत हुआ. तब तक वे प्रचुर मात्रा में क्रोधभक्षण कर चुके थे. ऐसा मौनव्रत किस काम का.

 एन ठाकुर, दरभंगा (बिहार)

 

मेरे परिचित के एकमात्र पुत्र के विवाह के 5 वर्ष बाद भी कोई संतान नहीं हुई. डाक्टर से इलाज चल रहा था. उन की पत्नी धर्मभीरु प्रवृत्ति की हैं. कैसी भी स्थितिपरिस्थिति हो, वे वर्ष में एक बार नाथद्वारा दर्शन करने अवश्य जाती हैं.

कुछ समय बाद जब उन की बहू गर्भवती हुई तो वे खुशी से फूली नहीं समाईं, कहने लगीं, ‘‘मैं ने श्रीनाथजी से मन्नत मानी थी, फलस्वरूप, बरसों बाद यह खुशखबरी मिली है.’’

कुछ समय बाद वे जिद करने लगीं कि दर्शन करने चलो क्योंकि मैं ने मन्नत मानी थी कि जैसे ही खुशखबरी मिलेगी, मैं अपनी बहू को दर्शन कराने लाऊंगी और उस से प्रसाद चढ़वाऊंगी. उन के पुत्र ने उन्हें समझाने की कोशिश की कि बच्चे के जन्म के बाद चलेंगे लेकिन वे कहने लगीं, जो मन्नत मानी जाती है उस का अक्षरश: पालन करना जरूरी है, वरना अनिष्ट हो जाता है. परिवार के लोग आखिरकार उन की जिद के आगे झुक गए और नाथद्वारा गए.

नाथद्वारा उदयपुर के निकट स्थित एक प्राचीन व पौराणिक मंदिर है. पूरे वर्ष वहां भीड़ रहती है. मंदिर के पंडेपुजारी दिनभर में कई बार मंदिर के पट बंद कर देते हैं. पूछने पर बताते हैं कि भगवान स्नान कर रहे हैं, शृंगार कर रहे हैं, भोजन कर रहे हैं, विश्राम कर रहे हैं आदिआदि. नतीजतन, दर्शन करने के लिए धक्कामुक्की की स्थिति बन जाती है. परिचित का परिवार भी इसी भीड़ में घंटों फंसा रहा व बड़ी मुश्किल से वे दर्शन कर पाए.

दर्शन के बाद उन की बहू की तबीयत खराब होने लगी. उदयपुर के अस्पताल में उसे भरती कराना पड़ा, जहां उस का गर्भपात हो गया. एक मूर्खतापूर्ण मान्यता के चलते संतान पाने हेतु वे अब फिर से डाक्टरों के चक्कर काट रहे हैं.

 सुधीर शर्मा, इंदौर (म.प्र.)

लोकतंत्र में हिंसा

नक्सली हमले, विरोध प्रदर्शन और दंगों के दरमियान सरकार और हिंसक गुटों के बीच की मारामारी में खून निर्दोष जनता का बहता है. हिंसा और सरकार की ज्यादती के खिलाफ जनता की प्रतिक्रिया किस तरह हिंसक आंदोलन को जन्म देती है, बता रहे हैं कंवल भारती.

क्या लोकतंत्र में हिंसा उचित है? शायद ही कोई इस का जवाब हां में देना चाहेगा. लेकिन फिर भी हिंसा लगातार जारी है. भारत का कोई भी राज्य हिंसा से अछूता नहीं है. यह अब आम समस्या हो गई है. लेकिन लोकतंत्र के प्रहरियों ने कभी भी इस पर कारगर तरीके से विचार नहीं किया. यह विषय मुख्य रूप से चर्चा के केंद्र में तभी आता है जब हिंसा के शिकार बड़े नेता होते हैं.

यह हिंसा लाखों निर्दोष लोगों की जान ले चुकी है, कभी गोलियों से तो कभी बम विस्फोट से, कभी धर्म के नाम पर तो कभी भाषा के नाम पर और कभी जाति के नाम पर गुमराह लोगों की हिंसा से तो कभी उस के विरोध में सरकार की प्रतिहिंसा से. हिंसा की कुछ दिन चर्चा होती है, फिर सब शांत. किंतु अब जब शांति मार्च (सलवा जुडूम) के अगुआ कांग्रेसी नेता महेंद्र कर्मा और अन्य प्रतिनिधि नेताओं की नक्सलियों ने हत्या कर दी तो पूरा सत्तातंत्र विचलित नजर आने लगा है. सभी राजनीतिक पार्टियां नक्सलवाद और माओवादियों के खिलाफ लामबंद हो गई हैं कि बस, अब वे उन का खात्मा कर के ही रहेंगे. विडंबना यह है कि उन की यह खात्मायोजना भी प्रतिहिंसा के सिवा कुछ नहीं है.

आइए, कुछ सवालों पर विचार करें. राजनीतिक पार्टियां कह रही हैं कि छत्तीसगढ़ में माओवादियों का हमला लोकतंत्र पर प्रहार है. केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश कह रहे हैं कि वे आतंकवादी हैं और उन के विरुद्ध वैसी ही कार्यवाही होनी चाहिए जैसी आतंकवादियों के खिलाफ की जाती है, क्योंकि वे संविधान, लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थाओं में कोई आस्था नहीं रखते हैं. उधर, माओवादियों का कहना है कि लोकतंत्र और संविधान के नाम पर चलाया जा रहा महेंद्र कर्मा का सलवा जुडूम आदिवासियों की तबाही का मार्च था.

गांव के गांव पुलिस ने जला कर राख कर दिए थे, हजारों लोग घर से बेघर हो गए, पुलिस वाले लड़कियों और औरतों को घरों से खींच कर ले जाते थे, उन के साथ बलात्कार कर के उन की हत्याएं कर देते थे, बर्बरता की सारी हदें पार करते हुए पुलिस ने डेढ़ साल के एक बच्चे का हाथ काट दिया था और एक महिला के गुप्तांग में पत्थर भर दिए थे. क्या यह किसी आतंक से कम था? क्या इसी को लोकतंत्र कहते हैं? यह सब किस संविधान और लोकतंत्र के तहत किया गया था? यह कैसा शांति मार्च (सलवा जुडूम) था जो आदिवासियों पर कहर ढा रहा था? कल्याण और योजनाओं के नाम पर वहां शोषण और लूट का धंधा चल रहा था. महेंद्र कर्मा आदिवासी जनता के नहीं, पूंजीपतियों के हितैषी थे और उन्हीं के लिए आदिवासियों को जंगलजमीन से बेदखल करने का काम कर रहे थे.

सलवा जुडूम आदिवासियों के लिए आतंक का पर्याय बन गया था. कहते हैं कि महेंद्र कर्मा के इशारे पर लोग पुलिस की हैवानियत का शिकार होते थे. जब कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सारे सुबूत एकत्र कर के सलवा जुडूम के खिलाफ अदालत का दरवाजा खटखटाया और सुप्रीम कोर्ट ने हकीकत जानने के बाद सरकार को फटकार लगाई, तब जा कर सलवा जुडूम बंद हुआ पर पुलिस के आदिवासियों पर अत्याचार फिर भी बंद नहीं हुए. यह कहानी है महेंद्र कर्मा और उन के सलवा जुडूम की. क्या इसे जायज ठहराया जा सकता है?

निसंदेह, हिंसा का रास्ता गलत है. हिंसा में अकसर निर्दोष लोग ही मारे जाते हैं, दोषी और अपराधी लोग बहुत कम इस के शिकार होते हैं. इसलिए हिंसा का समर्थन कभी नहीं किया जा सकता. माओवादी भी एकदम हिंसा के रास्ते पर नहीं आए होंगे. नक्सलवादी भी शुरू में अहिंसक ही थे. हिंसा का रास्ता उन्होंने बाद में अपनाया होगा, जब वे मजबूर हुए होंगे. सवाल यह है कि लोग अहिंसक क्यों नहीं बने रह सकते? उन्हें कौन मजबूर करता है हिंसा के लिए? इस का एक ही जवाब है कि उन्हें हिंसा के लिए राज्य मजबूर करता है.

राज्य का मतलब सरकार. हमारे भारतीय लोकतंत्र में सरकार भले ही जनता के द्वारा जनता के लिए चुनी जाती है और कहा भी उसे जनता की सरकार ही जाता है पर जनता सब से ज्यादा असंतुष्ट अपनी इसी सरकार से होती है.

गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, अशिक्षा, आवास, बिजली, पानी और चिकित्सा आदि न जाने कितनी ढेर सारी समस्याएं हैं, जिन से जनता बराबर जूझ रही है. दूसरी तरफ जनता का खून चूसने वाले पूंजीपति, शोषक, दलाल, ठेकेदार और हर क्षेत्र के माफिया दिनदूनी रातचौगुनी रफ्तार से बढ़ते जा रहे हैं.

जब जनता अपनी समस्या के समाधान के लिए लोकतांत्रिक तरीके से मांग करती है, शांतिपूर्ण प्रदर्शन करती है तो पुलिस उन्हें रोकती है, उन्हें सरकार के मुखिया से नहीं मिलने देती और जब जनता मुखिया तक पहुंचने के लिए आगे बढ़ती है तो पुलिस उन पर बल प्रयोग करती है, उन पर लाठियां बरसाती है, जरूरत पड़ती है तो गोलियां भी चलाती है, जिस में जनता के हाथपैर टूटते हैं, सिर भी फूटते हैं और वे मरते भी हैं. तब जनता को पता चलता है कि उस ने जो सरकार चुनी है वह जनता के लिए काम ही नहीं करती, वह तो उन का खून चूसने वाले पूंजीपतियों, बड़े व्यापारियों, दलालों और माफियाओं के लिए काम करती है. तभी उसे यह भी पता चलता है कि पुलिस भी जनता की नहीं, उसी सरकार की रक्षा करती है जो उस का शोषण करती है.

यहां हिंसा की शुरुआत किस ने की? स्पष्ट है कि सरकार ने की. अब जनता को लगता है कि वह ठगी गई है. सरकार और जनता की समस्याओं के बीच में पुलिस, पीएसी, सीआरपीएफ और फौज खड़ी है. वह हरगिज जनता को सरकार तक नहीं पहुंचने देगी. अगर ये न रहें तो जनता एक मिनट में सरकार  से निबट ले. लेकिन जनता डरती है पुलिस से जो उस की लाशें बिछा देगी.

इसलिए यह सच है कि जनता की हिंसा में इतने लोग नहीं मरते जितने ज्यादा लोग राज्य की हिंसा में मरते हैं. 1987 में पीएसी ने मेरठ में 27 लोगों को हिंडन नदी के किनारे ले जा कर गोलियों से भून दिया था. उन का क्या कुसूर था? राज्य की ऐसी दरिंदगी की प्रतिक्रिया में लोगों को हिंसक होने से कैसे रोका जा सकता है?

राज्य की हिंसा का एक और खतरनाक रूप है, सिविलियन जनता को आत्मरक्षा के नाम पर निजी हथियार रखने का अधिकार यानी लाइसैंस देना. इस अधिकार के तहत धनाढ्य और दबंग वर्ग को कमजोरों को दबा कर रखने का लाइसैंस मिल गया. इसी ने सत्ता पक्ष के लिए वैकल्पिक पुलिस का भी काम किया. चुनावों के समय यह वैकल्पिक पुलिस क्या नहीं करती?

बूथ कैप्चरिंग से ले कर, अपहरण और हत्याएं तक करती है. सरकार के इसी सामंती निर्णय से गांवगांव में पक्षप्रतिपक्ष में खून की होली खेली जाने लगी. इस से आतंकित जनता भेड़ की तरह सत्तापक्ष के दबंगों के पीछे चलती है और उन को आश्रय देने वाले नेता उन के बल पर अपना किला मजबूत करते हैं. बहुत से लोगों ने तो शौकिया ही बंदूकें ले ली हैं, जिन की जरूरत उन्हें कभी नहीं पड़ती. वे घर में पड़ेपड़े जंग खाती हैं या शादीविवाह के मौकों पर ‘हर्षफायरिंग’ में चलती हैं, और कभीकभी निशाना चूकने पर ये फायरिंग भी निर्दोष लोगों की जान ले लेती है.

किसी भी नेता ने यह सवाल नहीं उठाया कि सिविलियन को हथियार देने की क्या जरूरत है? वे क्यों उठाएं?  विधायकसांसद को तो छोडि़ए, छुटभैये नेता तक हथियारों से लैस रहते हैं और मंत्रियों का तो कहना ही क्या? वे तो सशस्त्र कमांडो के घेरे में ही चलते हैं. यह सारा उपक्रम इसलिए है कि जनता के प्रतिनिधि जनता से दूर रहें. जब प्रतिनिधि ही जनता से दूरी बना कर रहेंगे तो फिर सवाल है कि लोकतंत्र में वे किस का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं? तब क्या वे जनाक्रोश और हिंसा को रोक पाएंगे? और रोकेंगे, तो हिंसा से ही.

मैं यहां एक उदाहरण अपने शहर का देता हूं. पिछले 50 सालों में हमारी जनसंख्या में इस कदर वृद्धि हुई है कि छोटे शहरों में भी घनी आबादी हो गई है. चप्पेचप्पे पर मकान बन गए हैं. जहां खेत हुआ करते थे वहां भी इमारतें खड़ी हो गई हैं. फुटपाथों पर सब्जियां बिकती हैं, अब से नहीं, 25-30 साल से बिकती हैं.

10 साल पहले नगरपालिका परिषद ने नाले पर 22 दुकानें बनवा दी थीं, हालांकि नाला पाटा नहीं गया था, उस पर स्लैब डाला गया था. सत्तापलट में अब समाजवादी पार्टी की सरकार बन गई. शहर के एक विधायक सरकार में दूसरे दरजे के कद्दावर मंत्री बन गए. मंत्री बनते ही उन्हें शहर को खूबसूरत बनाने की सनक सवार हो गई. इसलिए शहर में तोड़फोड़ शुरू हो गई. अवैध कब्जों के नाम पर तमाम गरीबों के मकान तोड़ दिए गए, नाले पर बनी 22 दुकानें तोड़ दी गईं, और 25-30 साल पुरानी सब्जीमंडी उजाड़ दी गई. रोती आंखों से वे

गरीब, असहाय, मजलूम लोग अपने आशियाने, अपने रोजगार उजड़ते हुए देखते रहे, वे विरोध में कुछ कर नहीं सकते थे, क्योंकि उन की लाशें बिछाने के लिए वहां सरकार की सशस्त्र पुलिस मौजूद थी.

मजलूमों की उस भीड़ में क्या किसी का भी मन बगावत करने का न हुआ होगा? जरूर हुआ होगा, पर पुलिस बल के डर ने उसे चुप करा दिया होगा. क्या यही लोकतंत्र है? यही समाजवाद है? एक समाजवादी सरकार का यही काम है कि वह लोगों के घर और रोजगार उजाड़े? सरकार की तरफ से तो हिंसा हो ही गई, जिसे ‘अतिक्रमण औपरेशन’ का वैधानिक नाम भी दे दिया गया पर यदि इस तथाकथित औपरेशन के वक्त कोई मजलूम एक पत्थर भी हाथ में उठा लेता, तो क्या होता? सरकार की हिंसा इस कदर भयानक हो जाती कि पता नहीं कितने मजलूम उस की गिरफ्त में आते और पता नहीं वे कितनी संगीन धाराओं में जेल में सड़ रहे होते. सरकार की हिंसा के खिलाफ जनता का उठाया गया पत्थर ही तो नक्सलवाद जैसे हिंसक आंदोलनों की आधारशिला रखता है.      

उत्तराखंड – प्रकृति की भयंकर मार भक्त धंधेबाजों के शिकार

उत्तराखंड में हजारों लोग धर्म की बलि चढ़ गए. पूजापाठ और तीर्थयात्रा के लोभ में जकड़े धर्मभीरु लोग अब भले ही अपनों को खोने से गमजदा हो कर सरकार को कोस रहे हों पर शायद ही उन्हें धर्म का व्यापार करने वाले पंडेपुरोहितों की सुनियोजित साजिश समझ में आए कि किस तरह से ये लोग पापपुण्य का जाल बिछा कर अपने स्वार्थ के लिए जनता को इन खतरनाक जगहों पर जाने के लिए उकसाते हैं. पढि़ए भारत भूषण श्रीवास्तव की रिपोर्ट.

उत्तराखंड में पहाड़ों पर आई प्रलय सैकड़ों जानें लील गई. सरकार अभी तक जानमाल का सही अनुमान नहीं लगा पाई है. मरने वालों की तादाद हजारों में है. बचाव कार्यों के लिए जहां तक प्रशासन पहुंचा है हर ओर तबाही का मंजर है. 17 जून की देर शाम और 18 जून की सुबह ऐसी प्रलय उठी कि पानी के साथसाथ पहाड़ की मिट्टी और पत्थरों के मलबे का बहाव तेजी से सबकुछ तबाह कर गया. देखते ही देखते जिंदा लोग मलबे में बहने लगे.

प्रत्यक्षदर्शियों को ऐसा लग रहा था मानो पहाड़ पिघल कर तेजी से इंसानों को रौंदता हुआ चल रहा हो. इस वीभत्स कहर से चारों ओर हाहाकार मच गया. इमारतें रेत के महल की तरह भरभरा कर गिर गईं. चारों ओर लाशों के ढेर नजर आने लगे. शाम की आरती के वक्त भक्तों की भीड़ से गुलजार दिख रहा केदारनाथ मंदिर और आसपास का समूचा इलाका श्मशान दिखने लगा.

तबाही का मामला गंभीर दिखने लगा तो सरकार को राहत और बचाव के लिए सेना, आईटीबीपी को तैनात करना पड़ा. फंसे हुए लोगों को बाहर निकालने के लिए सेना के 20 हैलिकौप्टर लगाए गए. पर्याप्त राहत न मिल पाने के चलते चार धाम यात्रा पर गए लोगों और अन्य जगहों पर बैठे उन के परिजनों का गुस्सा सामने आने लगा. नेताओं के हवाई दौरे शुरू हुए. फंसे हुए लोगों को हर संभव मदद के आश्वासन दिए गए.

1 हजार से ऊपर मौतें बताई जा रही हैं पर वास्तव में सरकार के पास मारे गए लोगों के ठीकठीक आंकड़े नहीं हैं. सरकारी आंकड़ों से कई गुना अधिक मौतें हुई हैं. मंदिर समिति का कहना है कि जून माह में रोजाना औसतन 25-30 हजार यात्री केदारघाटी के अलगअलग पड़ावों में होते हैं. यानी केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्तरी और यमुनोत्तरी चारों धामों के यात्रियों की संख्या जोड़ी जाए तो जानकारों का अनुमान है कि तबाही के वक्त यहां 70 से 80 हजार यात्री थे. सब से अधिक तबाही केदारनाथ धाम में हुई. यहां मंदिर समिति का दफ्तर, भंडारगृह, धर्मशालाएं सबकुछ नष्ट हो गया. भगवान शिव तेज बहाव से अपने मंदिर का मुख्यद्वार नहीं बचा पाए. मंदिर के भीतर पानी और मलबा घुस आया.

केदारनाथ के अलावा मंदाकिनी नदी ने रामबाड़ा, सोनप्रयाग को नक्शे से ही मिटा दिया. गौरीकुंड तबाह हो गया. अगस्त्य मुनि का आधा बाजार नदी में समा गया. रुद्रप्रयाग के कई घर और पुल नदी बहा कर ले गई. होटल, धर्मशालाएं, गेस्ट हाउस पानी के तेज बहाव में बह गए. पानी का बहाव ऋषिकेश के परमार्थ निकेतन से नीलकंठेश्वर की प्रतिमा बहा ले गया.

फिर भी अंधविश्वासियों की आस्था की पराकाष्ठा तो देखिए, कह रहे हैं, देखो, भगवान केदारनाथ की मूर्ति का कुछ नहीं बिगड़ा. वह सहीसलामत है. जो बच कर आ रहे हैं, वे कहते फिर रहे हैं कि मौत ने पीछा किया पर भगवान की कृपा से बच गए.

हद है अंधविश्वास की, किस कदर पत्थरों के भगवानों के प्रति लोगों में विश्वास कूटकूट कर भर दिया गया है. क्या भगवान तबाही ला कर खुश होता है? अगर त्रासदी आ ही गई तो भगवान को बचाव के लिए आना चाहिए था. लोग सरकार और सेना से सहायता के लिए क्यों अपेक्षा कर रहे हैं? राहत में कमी के लिए क्यों कोस रहे हैं? भगवान पर भरोसा करिए न. असल में लोगों की बुद्धि पर पंडोंपुजारियों ने पूरी तरह से कब्जा कर लिया है, इसलिए हर बात में उन्हें भगवान की मरजी नजर आती है.

सरकारी इमदाद का ऐलान हुआ और देशभर में जगहजगह सामाजिक संस्थाएं राहत सामग्री इकट्ठा करने में जुट गईं. हमेशा की तरह कुछ धार्मिक संस्थाएं राहत के नाम पर चंदा जुटाने में लग गईं. खास बात यह है कि इस तबाही में स्थानीय लोगों के बजाय बाहरी तीर्थयात्रियों को ज्यादा नुकसान हुआ है.

राज्य सरकार का कहना है कि 300 से अधिक गांवों का संपर्क पूरी तरह टूट चुका है. पहाड़ों में बसे गांव, कसबे और शहरों को जोड़ने वाली सैकड़ों सड़कें और पुल पानी के बहाव से चट्टानों के टूटने से नष्ट हो गए. ऋषिकेश से बद्रीनाथ, केदारनाथ और गंगोत्तरी व यमुनोत्तरी मार्ग पर जगहजगह पहाड़ दरक कर सड़क पर आ गए. जानकारों का कहना है कि कुदरती आपदाओं के पिछले 300 सालों के इतिहास में इतनी बड़ी त्रासदी नहीं आई.

चार धाम यात्रा हर साल होती है. यात्रियों की संख्या बढ़ रही है. धर्मस्थलों पर चढ़ावे के रूप में भारी रकम आती है. हमारे देश में धर्मस्थलों, धामों के प्रति लोगों की अपार श्रद्धा है. हर साल लाखों की संख्या में लोग वहां पहुंचते हैं.

पिछले डेढ़ दशक से चार धाम में आने वाले लोगों की संख्या बढ़ने लगी तो गेस्ट हाउस, होटल, धर्मशालाएं, मंदिर बना लिए गए. सरकारों ने भी तीर्थयात्रियों की सुविधाओं का पूरा खयाल रखा. पंडों के आगे वे समर्पित रहीं. सरकारी खजाने से इन की सुखसुविधाओं के लिए खुल कर पैसा बहाया गया. पहाड़ों को तोड़ कर सड़कें, पुल बनाए गए बिना यह सोचे कि इस से पहाड़ों पर दबाव पड़ सकता है. लेकिन इस में दोष सरकारों का नहीं, वह तो पर्यटन के नाम पर धर्म के धंधे को बढ़ावा दे रही है.

प्राकृतिक आपदाओं को पंडे दैवीय प्रकोप कह कर प्रचारित करते हैं पर यह असल में दैवीय नहीं, पुरोहिताई आपदा है. धर्र्म के धंधेबाजों द्वारा आमंत्रित आपदा है क्योंकि उन केद्वारा धर्र्म के प्रचार के कारण इतनी बड़ी तादाद में लोग तीर्थस्थलों पर जुटते हैं. अगर ये लोग यहां नहीं आते तो इतनी जानें नहीं जातीं और सरकार को राहत व बचाव कार्यों में भारी धन खर्च नहीं करना पड़ता.

उत्तराखंड में धर्म के धंधे का जितना तेजी से विकास हो रहा है उतना दूसरे क्षेत्र में नहीं. यहां आपदा के समय साधुओं के कमंडलों व मंदिरों से लाखों रुपए बाहर निकल आए. अंदाज लगाया जा सकता है कि यह पैसा कहां से आ रहा है और किस के लिए आ रहा है. यानी देशभर से तीर्थयात्रा के नाम पर भोलेभाले यात्री मौत की घाटियों की ओर पंडों द्वारा धकेले जा रहे हैं. इस आशय के तकरीबन हर शहर में ‘अमरनाथ चलो’, ‘चलो चार धाम यात्रा’ जैसे बैनर और होर्डिंग्स लगे देखे जा सकते हैं.

उत्तराखंड में जितनी बड़ी तादाद में लोगों के मरने की खबरें आ रही हैं इस के लिए काफी हद तक धार्मिक तीर्थयात्रियों की विशाल संख्या जिम्मेदार है. इस वक्त यहां चार धाम यात्रा चल रही थी. देशभर से लोगों को यहां हांकहांक कर भेजा जा रहा था. दिल्ली, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, गुजरात, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार और यहां तक कि दक्षिण के राज्यों से भी चार धाम तीर्थों का पुण्य लूटने लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा था. हजारों की संख्या में लोग केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्तरी, यमुनोत्तरी के मंदिरों में और इन के पहाड़ी रास्तों में थे.

प्राकृतिक संसाधनों का दोहन धर्म के विकास के लिए किया जा रहा है. किस का विकास हो रहा है? अकेले केदारनाथ मंदिर की सालाना आय 165 करोड़ रुपए है. इस के अलावा राज्य सरकार भी मंदिर को सालाना 80 करोड़ रुपए अलग से देती है. यह पैसा किस के लिए है? कहां से आता है? स्पष्ट है आम आदमी की मेहनत का पैसा धर्म के धंधेबाजों की सुखसुविधाओं के लिए जा रहा है.

केदारनाथ मंदिर को ही लीजिए. रावल भीमराव लिंगम केदारनाथ मंदिर के मुख्य पुजारी हैं. 21 जून को महाराष्ट्र से दिल्ली होते हुए वे देहरादून पहुंचे थे. इस के पहले उन्होंने 4 मई को पूरे विधिविधान से पूजापाठ कर केदारनाथ मंदिर के द्वार खुलवाए थे और तुरंत एक धार्मिक अनुष्ठान में भाग लेने बेंगलुरु उड़ गए. देहरादून के सहस्रधारा हैलीपेड पर उन्होंने बातचीत में पत्रकारों को बताया कि वे केदारनाथ मंदिर का पूजास्थल बदलने पर विचार कर रहे हैं, इस के लिए बद्रीकेदारनाथ मंदिर समिति व स्थानीय लोगों से बात की जाएगी. इसी बातचीत में उन्होंने एक और संक्षिप्त बात, जो बेहूदी दलील थी, कही कि देवताओं की पूजा का महत्त्व इंसानों की सुरक्षा से ही है.

जाहिर है उन्हें चिंता मरे और मारे जा रहे लोगों की नहीं, एक सधे व्यापारी की तरह धर्म की दुकान चलाए रखने में अपनी भूमिका बताने की थी. इस दिन केदारनाथ से पानी में बहीं सैकड़ों लाशें हरिद्वार और ऋषिकेश में मिली थीं. भीमराव जैसे लाखों महंत, पुरोहित और पंडेपुजारी अपने कारोबार की चिंता यह जताते कर रहे थे कि आदमी का क्या है, उस की जिंदगी तो नश्वर है पर धर्म का व्यापार शाश्वत है, यह बंद नहीं होना चाहिए.

इसे चलाए रखने की साजिश धर्माचार्यों ने किस अमानवीय और बेहूदे तरीके से रची इस की मिसाल एक शंकराचार्य स्वरूपानंद और भीमराव लिंगम का वाक्युद्ध था. मसला पूजा निदान था. स्वरूपानंद ने अप्रत्यक्ष रूप से हादसे की वजह पूजा दोष बताया तो भीमराव ने उन्हें मुंहतोड़ जवाब देते हुए कहा कि शंकराचार्य क्या जाने कि केदारनाथ में पूजापाठ किस पद्धति और निदान से होता है.

यह न समझें कि इन दोनों गुरुओं में कोई मतभेद या बैर है या था बल्कि इन दोनों का मकसद एक बेवजह का विवाद पैदा कर लोगों में फैल रहे इस अंधविश्वास को पुख्ता करना था कि यह हादसा दैवीय प्रकोप था बादलों का फटना तो बहाना था.

उत्तराखंड के हादसे पर छाती पीटने वाले लोगों को शायद ही धर्म का व्यापार करने वाले पंडेपुजारियों की साजिश और मंशा समझ आए कि कैसेकैसे कुचक्र रच कर ये ऐश करते हैं, मुफ्त के मालपुआ उड़ाते हैं और लोगों को मरने के लिए बेरहमी से केदारनाथ जैसी भट्ठी में झोंक देते हैं.

केदारनाथ मंदिर का रावल किस कमाई से देहरादून से हवाई जहाज से बेंगलुरु जाता है और किस कमाई से देशभर में हवाई जहाजों में सफर करता है, इस बात पर कोई विचार नहीं करता. और उस से निचले दरजे के पंडेपुजारी किस की कमाई पर पल रहे हैं, यह सोचने में आम और खास दोनों तरह के लोगों को परेशानी महसूस होती है. वजह, धर्म की पोल जब खुलने लगती है तो वे घबरा जाते हैं और उसी घबराहट से बचने के लिए वे फिर पंडेपुजारियों और न दिखने वाले भगवान की शरण में चले जाते हैं. जिस के बारे में धर्म के कारोबारियों का सारा वक्तव्य यह होता है कि सब ‘प्रभुइच्छा’ है.

हिंदू धर्म के इन 4 शब्दों को अंतिम सत्य मान लिया जाए तो उत्तराखंड के भीषण हादसे पर किसी बात या चर्चा की गुंजाइश नहीं रह जाती. मगर जो बवाल मचा और अभी तक मच रहा है, वह साबित करता है कि लोग कतई आस्तिक या आस्थावान नहीं हैं बल्कि पाखंडों के चलते भाग्यवादी और भयभीत हैं. सारा फसाद एक नपातुला षड्यंत्र है जो सदियों से चल रहा है. उस का अगला चरण जो सामने आना शुरू हो गया है, वह है केदारनाथ मंदिर और धाम को दोबारा बसाया जाएगा. फिर भले ही इस के लिए गांवगांव, गलीगली जा कर भक्तों से चंदा क्यों न लेना पड़े. सरकार पर तो यथासंभव दबाव बनाया ही जाएगा लेकिन पहले लाशों का मसला सुलझ जाए.

रावल भीमराव लिंगम दरअसल यह बता रहे थे कि ईश्वर बसता नहीं है बल्कि बसाया जाता है. उसे मंदिरों में बिठा कर व्यापार किया जाता है और फिर पैसे वसूले जाते हैं. लोगों को भगवान, नर्क, मोक्ष और मुक्ति का डर प्रलोभन दिखा कर ठगा जाता है, जिस से ब्राह्मण वर्ग के लिए बैठेबैठाए मुफ्त में देशी घी की रोटी और पकवान मिलते रहें.

जहां तक देवताओं की पूजा से मानव जीवन की रक्षा की बात है तो शायद ही कोई महंत या पंडापुजारी बता पाएगा कि क्या केदारनाथ में नियमित पूजापाठ नहीं होता था? क्या 4 मई का पूजन दोषपूर्ण तरीके से कराया गया था और लाख टके की बात यह कि ईश्वर इतना क्रूर क्यों है कि अपने हजारों भक्तों को देखते ही देखते मौसम के कहर का शिकार बना कर मार डालता है? धर्म के व्यापार का एक बड़ा कड़वा सच यह है कि इस में न तो कोई सीधे रास्ते पर चलता है न सीधेसीधे सोचता है. अगर कारोबार चलाने की शर्त दोषपूर्ण पूजन, जो बेमतलब की बात है, मानी जाए तो यकीन मानें कि एक नहीं, हजारों रावल यह जिम्मा अपने सिर लेने को तैयार हो जाएंगे और हादसे से ज्यादा अफसोसजनक बात यह है कि ऐसा होना शुरू भी हो गया है. हिंदूवादी नेता, पंडेपुजारी और व्यापारी कैसे यह खेल खेल रहे हैं और कैसे मीडिया उन का साथ जानेअनजाने में दे रहा है इस से पहले यह जान लेना जरूरी है कि आखिरकार उत्तराखंड का हादसा क्या था और हुआ कैसे?

उन्मादी भीड़

16 जून को हरिद्वार रेलवे स्टेशन पर भारी बारिश में तकरीबन 10 हजार लोग जमा थे. शहर में इस से 20 गुना ज्यादा बाहरी लोग थे. इन में से अधिकांश को ऋषिकेश होते हुए केदारनाथ जाना था. चूंकि सड़क मार्ग भारी बारिश के चलते बंद कर दिया गया था, इसलिए सारी भीड़ स्टेशन पर आ रही थी. हालत यह थी कि प्लेटफौर्म पर पांव रखने की जगह न थी. जो जहां आ कर खड़ा हो गया, उस का हिल पाना मुश्किल था. सिख समुदाय के भी हजारों लोग थे जो पवित्र तीर्थ हेमकुंड साहिब जा रहे थे यानी तीर्थयात्रा की संक्रामक बीमारी सभी धर्मों में पसरी है.

भीड़ में हर तरह के लोग थे. देशभर के गांवदेहातों से आए लोगों के जत्थे जयजय भोले के नारे लगा रहे थे तो शहरी पढ़ेलिखे लोग सपरिवार एकलौती पैसेंजर ट्रेन का इंतजार करते उन्हें हिकारत से देख रहे थे. जब हम ने चंडीगढ़ से आए एक गुप्ता परिवार से बातचीत की तो पता चला कि वे सपरिवार केदारनाथ जाने का कार्यक्रम बना कर आए हैं. इस परिवार के मुखिया एक बुजुर्ग थे जो जैसेतैसे प्लेटफौर्म पर बैठ पाए थे. 2 छोटेछोटे बच्चे भीड़ और शोरशराबे से घबरा कर रो रहे थे, जिन्हें महिलाएं कभी समझा कर तो कभी डांट कर चुप कराने की असफल कोशिश कर रही थीं.

‘‘ऐसे मौसम में परेशान होने से क्या फायदा?’’ यों ही बातचीत में हम ने उन से सवाल, जो सुझाव ज्यादा था, किया तो उस परिवार के मुखिया तकरीबन भड़क कर बोले, ‘‘अब आए हैं तो भोले बाबा के दर्शन कर के ही जाएंगे. यह मौसम तो इम्तिहान भर है. हम भागने वालों में से नहीं.’’

इस परिवार का क्या हुआ, पता नहीं पर यह जरूर साफ हो गया कि यह सोच और मानसिकता सिर्फ इन की नहीं बल्कि उन हजारों, लाखों लोगों की भी है जिन की बुद्धि धर्मस्थलों पर पहुंचते ही उन्माद की वजह से भ्रष्ट हो जाती है. ‘भगवान ने बुलाया है तो वही हिफाजत करेंगे’ जैसी पीढि़यों और सदियों से चली आ रही धर्मांध आस्था ने आखिरकार हजारों लोगों को बेवक्त मौत की नींद सुला ही दिया.

25 जून तक बच कर आए और मृतकों के परिजनों के इंटरव्यू न्यूज चैनल्स पर दिखाए जाते रहे. अखबारों में फोटो सहित उन की आपबीती और आंखोंदेखी छपी. लेकिन किसी ने अपनी गलती या बेवकूफी नहीं मानी कि हम खामखां एक जनून और उन्माद के चलते क्यों गए थे. उलटे यह कह रहे थे कि भगवान ने बचा लिया, यह उस की कृपा है. यानी जो मरे वे भगवान की कू्ररता के शिकार हुए. किसी ने यह न सोचा कि यह कैसा भगवान है जिस ने अपने हजारों भक्तों की जान ले ली जबकि वे तो उस का ही पूजनदर्शन करने केदारनाथ आए थे.

असल फसाद की जड़

18 जून को जब हम देहरादून से दिल्ली वापस आए तो नई दिल्ली के पहाड़गंज इलाके में देशबंधु गुप्ता रोड पर एक मंच सा दिखा जो तखत जोड़ कर बनाया गया था. इस स्टेज पर दर्जनभर खाने के तेल के पीपे, कुछ बोरियां जिन में अनाज व चीनी भरी थी और भी छोटीमोटी खाद्य सामग्री लोग चढ़ा गए थे. दरअसल, यह अमरनाथ यात्रा के लिए चंदा था. इस आशय का बोर्ड भी वहां लटका था. वहां मौजूद इकलौते तकरीबन 35 साल के युवक से जब यह पूछा कि ऐसे कितना सामान इकट्ठा हो जाता है तो वह केदारनाथ के हादसे को कोसता हुआ बोला, ‘‘इस साले मौसम ने काम बिगाड़ दिया नहीं तो अब तक तेल के 100 पीपे जमा हो जाते.’’

सिर्फ दिल्ली ही नहीं बल्कि देश के हर छोटेबड़े शहर में ऐसे नजारे आम हैं. ये लोग तीर्थयात्रा के लिए लोगों को उकसाते हैं. टूर एंड ट्रैवल्स के नाम पर धंधा करते हैं, होटलों, लौजों से कमीशन खाते हैं और लंगर के नाम पर चंदा व खानेपीने का सामान इकट्ठा करते हैं. धर्म के नाम पर सड़क पर सरेआम चंदे का धंधा करने पर कोई एतराज नहीं जताता. आखिरकार, यह धर्म का काम है जिस में सब जायज होता है.

15 जून तक हरिद्वार, ऋषिकेश, केदारनाथ, प्रयाग, चमोली, उत्तरकाशी जैसी धार्मिक नगरियों में लाखों लोग यों ही इकट्ठा नहीं हो गए, हकीकत में उन्हें तीर्थयात्रा के लिए उकसाया जाता है. बताया यह जाता है कि ‘एक ही जिंदगी मिली है उस में भी तीर्थ नहीं किया तो क्या फायदा’, ‘पाप धोने और लोकपरलोक सुधारने का मौका मत गंवाओ नहीं तो तुम में और कीड़ेमकोड़ों में क्या फर्क रह जाएगा’ जैसी अनगिनत सैकड़ों बातें धर्मग्रंथों का हवाला दे कर कही और समझाई जाती हैं.

तीर्थयात्रा करवाने के धंधे ने 70 के दशक से बड़े पैमाने पर जोर पकड़ा था. धर्म के धंधेबाजों को इस से चौतरफा फायदा होता है. पहला बड़ा फायदा पैसे का है व उसे दूसरा अंधविश्वासी माहौल बनाए रखने और बढ़ाने का होता है.

पंडेपुजारियों ने जब देखा कि लोग कुछ खास मौकों पर दानदक्षिणा देते हैं तो उन्होंने लोगों को तीर्थयात्रा के माहात्म्य बताने शुरू कर दिए. शुरुआत गांवदेहातों से की गई. अपनी घरेलू जिम्मेदारी पूरी कर चुके लोगों को धर्म का सार बताया जाने लगा कि उम्र के इस पड़ाव में अब करने को रखा क्या है, चलो चारों धाम का पुण्य ले लो. पुण्य कमाने वालों के लिए जरूरी यह भी था कि वे जाने से पहले गांव या जाति भोज दें और सकुशल वापस आ जाएं तो भी पुएपकवान खिलाएं. जाते वक्त पूजापाठ करवाने वाले पंडित को खासी दक्षिणा और यजमान अगर मालदार हो तो सोना, गाय और जमीन वगैरह भी दान में मिल जाती थी. तीर्थयात्री की हिम्मत बंधाए रखने के लिए उसे दूल्हों की तरह फूलमालाओं से सजा कर गाजेबाजे के साथ जुलूस की शक्ल में गांव की सीमा तक लोग बिदा करने जाते थे.

गांव व देहातों में ऐसा आज भी होता है, फर्क इतना भर आया है कि अब एकदो नहीं बल्कि दर्जनों की तादाद में लोग जत्थे की शक्ल में जाते हैं. उम्र की शर्त भी खास हो गई है. इन की सहूलियत के लिए पंडे, जो दलाल ज्यादा हैं, दुर्गम रास्तों में खानेपीने और ठहरने का इंतजाम भी करते हैं और साथ जाते भी हैं, ताकि तीर्थस्थल में भी इन का सिर मूंडा जा सके.

दरअसल, ब्राह्मणों और व्यापारियों यानी बनियों का खतरनाक गठजोड़ था जिन का आपसी अनुबंध यह था कि पंडा दानदक्षिणा लेगा और बनिया तीर्थयात्रियों को घुमानेफिराने का इंतजाम करेगा. इस के बाद हिंदूवादी संगठनों के कार्यकर्ता भी इस गठजोड़ से जुड़ गए जो हकीकत में धर्म प्रचार के अलावा हिंदूवादी दलों का वोटबैंक भी पकाते हैं. गांवशहरों में बारहों महीने जो धार्मिक कार्यक्रम भागवत, रामकथा प्रवचन और यज्ञहवन होते हैं, उन में इन लोगों का खासा रोल रहता है. सब का मकसद समान है, धर्म का धंधा चमकाए रखना. और इस पर वे एकजुट भी हैं.

देहातों में किसान कर्जे में डूबते चले गए. बनिया टूर एंड ट्रैवल्स के धंधे से उन्हीं से पैसा कमा कर उन्हें तगड़े ब्याज पर कर्ज भी तीर्थयात्रा के लिए देने लगा. केदारनाथ जैसे 2 दर्जन तीर्थस्थलों के व्यापारियों से भी इन्हें भारी कमीशन मिलता है. आलसी और परजीवी होने के कारण ब्राह्मणों ने कभी व्यापार नहीं किया. वे मंदिरों के चढ़ावे और यजमान की दक्षिणा से पलते हैं. दान की गाय का दूध इस्तेमाल करते हैं और जब दूध देना बंद कर देती है तो उसे खुले में चरने और गाभिन होने के लिए छोड़ देते हैं यानी चारे का खर्च भी वे बचाते हैं.

आइडिया यानी धंधा चल निकला तो ऐसा बड़े पैमाने पर किया जाने लगा. पहले चमत्कारी किस्सेकहानियों के परचे बंटवाए गए, जिन का सार होता था कि शिरडी वाले साईंबाबा, तिरुपति बालाजी, अमरनाथ, केदारनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम या पुरी के शंकरजी ने फलां किसान या व्यापारी को सपने में नागरूप में दर्शन दिए और उन के दर्शन करने आने का आदेश  दिया. फलां ने बात मानते हुए तीर्थयात्रा की तो उस की बेटी की शादी मालदार घराने में हो गई, बेटे की अच्छी नौकरी लग गई और लौटरी भी खुल गई. फलां ने बात नहीं मानी यानी दर्शन करने नहीं गया और हजार परचे छपवा कर नहीं बांटे तो उस के जितने हो सकते थे उतने अनिष्ट हो गए, जिन में जवान लड़के की मौत खास है.

इस तरह के अनिष्टों के डर और चमत्कारों के लालच में लोग जमापूंजी दांव पर लगा कर व कर्ज ले कर तीर्थयात्रा करने लगे. शहरों के पढ़ेलिखे लोगों को भले ही फूलमाला पहना कर स्टेशन या बस अड्डे तक जाने में शर्म आती हो पर तीर्थयात्रा के मामले में उन की मानसिकता देहातियों सरीखी है. इन लोगों को भी बढ़ते और बदलते प्रचार माध्यमों ने सोचनेमानने पर मजबूर कर दिया कि अगर किसी तीर्थस्थल की यात्रा कर ली तो बेटी की शादी भी वक्त रहते अच्छे घर में हो जाएगी और लड़के को भी किसी नामी कंपनी में नौकरी मिल जाएगी. लौटरी खुले न खुले, चिंता की बात नहीं पर आने वाले कथित और काल्पनिक अनिष्टों से तो बचे रहेंगे.

कल तक परचे प्रिंटिंग प्रैस वाले थोक में छाप कर रखते थे. उन की जगह आज मीडिया ने ले ली है. धार्मिक चैनल्स जम कर अंधविश्वास फैलाते हुए लोगों को तीर्थयात्रा का झूठा महत्त्व बता कर उकसा रहे हैं तो पत्रपत्रिकाएं भी पीछे नहीं.

हादसे का सच

25-30 साल पहले तक केदारनाथ एक पहाड़ सा हुआ करता था. उस वक्त लोग केदारनाथ जाने के नाम पर घबराते थे, अब बेखौफ जाते हैं. वजह, रास्तों का बन जाना और वहां मिलने वाली सहूलियतें. अब तो लोगों ने इसे हनीमून स्पौट और ऐयाशी का अड्डा भी बना डाला है.

हकीकत में केदारघाटी में मौसम ने जो कहर ढाया उस की वजह मंदाकिनी से उठे बादलों का फटना था. तमाम मौसम विज्ञानी इस बात पर एक मत हैं कि बादलों के फटने का लंबा पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता. इस की जानकारी कुछ घंटों पहले ही मिल पाती है. हिमालय व उत्तराखंड इलाकों में बादलों का फटना एक नियमित और अपेक्षित घटना है. इस में सीमित स्थान पर तेज बारिश और भूस्खलन होता है.

उत्तराखंड सरकार को कोस रहे लोग इस विज्ञान से मतलब नहीं रखते. शायद ही धर्मांध लोग बता पाएं कि अगर मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा केदारनाथ न आने की अपील उन से करते तो क्या वे मानते? उलटे, ज्यादा तादाद में लोग पहुंचते. मकसद, ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध करना भर होता जो गलत साबित होता और हुआ भी. हिंदूवादी संगठन और दल तो इतनी हायतौबा मचा डालते कि हालात संभालना मुश्किल हो जाता.

आतंकी खतरा अमरनाथ यात्रा पर भी मंडरा रहा है. अगर जम्मूकश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला श्रद्धालुओं से  वहां न आने की अपील जानमाल की हिफाजत के मद्देनजर करें तो क्या लोग मान जाएंगे? इस पर हां कहने की कोई वजह नहीं क्योंकि देश के हजारों स्थलों पर अमरनाथ यात्रा के बोर्ड, फ्लैक्स लगे हैं और धर्मांध लोग उत्तराखंड के हादसे से सबक न लेते हुए अपनी जान जोखिम में डाल वहां जाने की तैयारियां कर रहे हैं.

इस हादसे की दूसरी वजह नियम, कायदेकानून तोड़ कर बनाई गई बेजा इमारतें हैं जिन में होटल, मठ, मंदिर, लौज और रैस्टोरैंट सैकड़ों की संख्या में खुले और गंगा किनारे ही बने जबकि कानून यह है कि गंगा तट से 150 मीटर की दूरी तक कोई निर्माण नहीं होना चाहिए. पहाडि़यों की इस जमीन पर गैर पहाड़ी लोगों यानी बनियों ने कानन तोड़ते   हुए पूरा गंगा किनारा निर्माण से पाट दिया.

अवैध निर्माण देशभर में हो रहे हैं. गंगा किनारे के तीर्थस्थल इस के अपवाद नहीं हैं. जाहिर है जिन्होंने ये निर्माण किए उन्होंने करोड़ों रुपए कमाए.

सरकार का कितना दोष

25 जून तक इस पहाड़ी पर फंसे लोग सरकार को पानी पीपी कर कोसते रहे कि उस ने ध्यान नहीं दिया, सहूलियतें मुहैया नहीं कराईं और हमें 1 रोटी 100 रुपए की मिल रही है. पानी की बोतल 200 रुपए की और चिप्स का 5 रुपए वाला पैकेट भी 100 रुपए में मिला. ये वही लोग थे जो अपनी गाढ़ी कमाई का लाखोंकरोड़ों नहीं बल्कि अरबों रुपया पंडों को दान में देते हैं और दान पेटियों में डाल देते हैं. तब इन के मुुंह से चूं भी नहीं निकलती. पेट भरने की कुछ ज्यादा कीमत अदा करनी पड़ी तो तिलमिला उठे.

यह रोनागाना अव्वल तो उस भगवान के सामने करना चाहिए था जिस के दर्शन का पुण्य लाभ लेने के लिए लोग वहां गए थे. सरकार को कोस कर खुद की गलती ढंकने की गलती या चालाकी श्रद्धालुओं ने जानबूझ कर की जिस से कोई उन के भगवान पर उंगली न उठाए.

केदारनाथ में कुछ इमारतें सलामत बच गईं यानी केदार के कणकण में शंकर नहीं पर बात श्रद्धालु सोचसमझ रहे हैं पर कहना तो दूर की बात है सोचने में भी डर रहे हैं.

जब भगवान कुछ नहीं कर पाया तो सरकारों से चमत्कारों की उम्मीद क्यों? एक दुर्गम पहाड़ी पर रातोंरात सुरक्षित मकान बनाना किसी सरकार के लिए नहीं बल्कि चमत्कारी भगवान के लिए ही मुमकिन था. छप्पन भोग वाली थाली देने की सामर्थ्य भी उसी की है. लिहाजा, उसी से मांगा जाना चाहिए था. नहीं दिया तो प्रभुइच्छा मानते हुए संतोष करना ही बेहतर रास्ता था. उत्तराखंड सरकार ने देशभर में न्यौते के पीले चावल नहीं बंटवाए थे, जो लाखों लोग मुंह उठा कर वहां पहुंच गए और सरकार पर एहसान जताते उसे कोसते रहे मानो कोई आकाशवाणी इस हादसे की बाबत हुई थी. लोग अपने जोखिम पर अनापशनाप तादाद में गए थे. लिहाजा, राज्य या केंद्र सरकार को इस बाबत दोष दिया जाना कतई तर्कसंगत नहीं लगता.

भगवान कहीं होता तो जरूर भूखे भक्तों के खाने का इंतजाम करता. उन्हें तड़पनेतरसने न देता और औरतों की इज्जत न लुटने देता. पर ऐसा हुआ तो साफ है कि ईश्वर एक परिकल्पना भर है जिस का खौफ दिखा कर धर्मांध लोगों से पैसे ऐंठे जाते हैं, उन्हें थोक में दुर्गम पहाडि़यों पर जानलेवा मौसम में जाने के लिए उकसाया जाता है. इन असल दोषियों की बात कोई नहीं कर रहा, इसलिए उन के हौसले बुलंद हैं और इसीलिए बेशर्मी से लाशों के ढेर पर अपनी दुकानदारी की बात करते नजर आए जो अमानवीय थी कि केदारनाथ का मंदिर फिर बनाया जाएगा या पूजास्थल बदला जाएगा. और तो और, असल बात से ध्यान भटकाने के लिए देशभर में ही फंसे तीर्थयात्रियों को बचाने को पूजापाठ, कीर्तन, हवन, यज्ञ जैसे सामूहिक कार्यक्रम शुरू हो गए. अक्ल के मारे ये धर्मांध शायद ही बता पाएं कि उस भगवान के सामने गिड़गिड़ाने से क्या फायदा जो अपनी नगरी में ही भक्तों को नहीं बचा पाया. दरअसल, यह पंडों, बनियों और हिंदूवादियों की चाल थी ताकि भविष्य में लोग हतोत्साहित हो कर तीर्थयात्रा करने से कतराने न लगें.

मीडिया और उमा भारती जैसी साध्वी नेताओं की भूमिका भी खलनायक की ही कही जाएगी. उमा ने इसे एक देवी की मूर्ति को हटाने का श्राप बताया तो उन की चालाकी उजागर हुई कि वे कैसे अंधविश्वास फैला रही हैं. इस हादसे पर राजनीति भी जम कर हुई. भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह को इसे बजाय राष्ट्रीय आपदा घोषित करने की मांग के दैवीय आपदा घोषित करने की मांग करनी चाहिए थी. उमा भारती के रास्ते पर चलने में न्यूज चैनल्स भी पीछे नहीं रहे जो कुछ रुकरुक कर यह साबित करने की कोशिश में लगे रहे कि यह इस या उस धार्मिक वजह से हुआ. कुछ चैनल वाले तो जाहिर है पंडेपुजारियों की मदद से किसी काल्पनिक गं्रथ से खोज लाए कि यह आपदा शंकर की फलां वजह से पेश आई नाराजगी से हुई. यह बात साबित करने के लिए पंडेपुजारियों को स्टूडियो में बुला कर उन के साक्षात्कार भी प्रसारित किए गए.

यह हादसा धर्म के मारों के अलावा देशभर को सबक है कि धर्म के नाम पर मूर्खतापूर्ण हरकतें और यात्राएं न की जाएं वरना ऐसे हादसे यों ही होते रहेंगे और अरबों रुपए जो विकास व जनहित कार्यों में इस्तेमाल होते, यों ही जाया होंगे. कठघरे में देशभर में फैले उन पंडेपुजारियों, संतोंमहंतों को खड़ा किया जाना चाहिए जो अपने धंधे, स्वार्थ और मौज के लिए आम लोगों को तीर्थयात्रा के लिए उकसाते हैं.

अमेरिका की एक और खासीयत

वर्ष 2008 में बैंकों की बेवकूफी के कारण अमेरिका को आर्थिक संकटों का सामना करना पड़ा था, अब वह उस से धीरेधीरे उबरने लगा है. अमेरिका का अपना उत्पादन बढ़ने लगा है. आयात पर हलकी सी रोक लगी है. तेल का आयात बंद सा होने लगा है क्योंकि वह भूमिगत गैस का इस्तेमाल ज्यादा करने लगा है. वहां सरकार ने अर्थव्यवस्था को डगमगाने से रोकने के लिए दिए जाने वाले डौलर कम कर दिए हैं जिस से डौलर मजबूत होने लगा और दूसरे देशों की मुद्राओं की हालत पतली होने लगी.

अमेरिका की खासीयत यही है कि वहां की जनता चाहे जितना आपस में तूतू मैंमैं करती नजर आए, अपने काम और लक्ष्य को नहीं भूलती. अमेरिकियों की हिम्मत कभी कमजोर नहीं पड़ती. वे हर कठिन स्थिति स?े उबरने का हल ढूंढ़ लेते हैं.

पिछले 50 सालों से अमेरिका यदि दुनिया का चुंबक बना हुआ है तो इसीलिए कि उस का खुलापन, उस की साफगोई, उस की स्वतंत्रताएं और वहां के निवासियों की कर्मठता का कोई मुकाबला नहीं. अमेरिका ने सिद्ध कर दिया कि हजार खामियों के बावजूद उस की स्वतंत्रताएं ही उस का असली बल हैं और 2008 के संकट के बाद बजाय दूसरों के आगे भीख का कटोरा ले कर खड़ा होने के, उस ने अपने आप को खुद संकट से निकाल लिया.

दुनिया के बाकी देश आमतौर पर बाहरी मदद से, जिस में अमेरिका से ही ज्यादा मदद होती थी, ऐसे संकटों से निकल पाए हैं. जब दुनिया के दूसरे देश हायहाय करते अमेरिका की ओर भागते हैं तो अमेरिका ने अपने संकटों के बारे में एकएक करके सोचा, कुछ बलिदान किया, कुछ मेहनत की, कुछ कठोर कदम उठाए और आज वह न मुसलिम आतंकवाद से डरा हुआ है, न तेल उत्पादकों से.

यह वह अमेरिका है जिस ने एक अश्वेत को 1 बार नहीं 2 बार राष्ट्रपति चुना. यह अमेरिका ही है जो हर देश, हर धर्म, हर जाति और हर रंग के लोगों का तहेदिल से स्वागत करता है. अगर भारत को अमेरिका का मुकाबला करना है तो क्या हम में ऐसा कुछ करने का माद्दा है? हम तो आज भी हजारों साल की दुश्मनी पर देश को चलाने की कोशिश कर रहे हैं.

समलैंगिकों के अधिकार

अमेरिका की सुप्रीम कोर्ट ने 2 एकजैसे मामलों में एक ही दिन 2 निर्णय दे कर साबित कर दिया कि वह देश व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं को किस तरह सामाजिक, धार्मिक व सरकारी कट्टरपन से ज्यादा महत्त्व देता है और क्रांतिकारी परिवर्तन का मार्ग हर पल खोले रखने को तैयार है. ये  दोनों मामले समलैंगिकों के अधिकारों से संबंधित हैं.

अमेरिका के कुछ राज्यों में समलैंगिक विवाह काफी दिनों से वैध हैं और शेष में उन्हें वैध करने की मांग जोर पकड़ रही है. एक राज्य, जहां यह विवाह वैध है, वहां 2 विवाहित औरतों में से 1 की मृत्यु हो गई और मरने वाली ने सारी संपत्ति अपनी विधवा साथी को विरासत में दे दी. अमेरिकी फैडरल यानी केंद्रीय कानून के अनुसार, अगर पति या पत्नी अपने जीवनसाथी को विरासत में कुछ छोड़ें तो काफी कम कर लगता है. प्रश्न यह उठा कि केंद्र सरकार, जो अभी समलैंगिक विवाहों को मान्यता नहीं देती, क्या इस विवाह को मानेगी?

मामला अफसरों, अदालतों से होता हुआ सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और आश्चर्य की बात यह कि सुप्रीम कोर्ट ने फैडरल सरकार के कानून को बराबरी के सिद्धांत पर खरा न उतरने के कारण अवैध कर दिया.

दूसरा मामला कैलीफोर्निया का है जहां समलैंगिक विवाहों को अवैध कहने वाले एक कानून को राज्य की सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक करार दे दिया कि जो अधिकार पुरुष व स्त्री को सामान्य विवाह के लिए मिलते हैं, वही पुरुष पुरुष या स्त्री स्त्री विवाहों को मिलेंगे. इस निर्णय की अपील राज्य सरकार ने अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट में नहीं की पर कट्टरपंथियों के एक गुट ने अपील कर दी. परोक्ष रूप में कैलीफोर्निया की अदालत के निर्णय को पक्का करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि इस मामले में राज्य सरकार अपील करती तो सुना जाता.

समलैंगिकता अच्छी है या बुरी, यह छोडि़ए, सवाल निजी स्वतंत्रता का है. समलैंगिकता को बुरा केवल धर्म के कारण कहा जा रहा है. ईसाई, हिंदू, इसलाम धर्म इस पर नाकभौं सिकोड़ते हैं क्योंकि ये उन के पंडेपुजारियों के हितों पर आंच डालते हैं. पर ये सदियों से बन रहे हैं, चाहे कारण जो भी हों.

अमेरिका ने इन्हें विधिवत मान्यता दे कर सिद्ध किया है कि वह देश नई तरह से सोचने को तैयार है और चर्च के नियमों से बाध्य नहीं है. जो विरोध कर रहे थे वे केवल चर्च के इशारे पर कर रहे थे वरना बंद कमरे में क्या हो रहा है, इस से किसी दूसरे को फर्क नहीं पड़ता. निजी मामलों में सरकारों, समाज या धर्म का हस्तक्षेप करने का कोई नैतिक या सामूहिक अधिकार नहीं है. 

नए दलदल में फंसता समाज

बलात्कार पर देश का कानून तो सख्त बना ही दिया गया है, पुलिस व अदालतें भी आरोपियों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं रख रहीं. बलात्कार का आरोप लगने का अर्थ है कि महीनों की जेल तो पक्की ही है चाहे आरोप सही हो या न हो.

दिल्ली की एक अदालत ने एक अभियुक्त को निर्दोष करार देते हुए कहा कि बलात्कार के मामलों में झूठे मामलों के प्रति सचेत रहना होगा. इस मामले में प्लेसमैंट एजेंसी से आई 19 वर्षीया लड़की को जब चोरी करते पकड़ा गया तो उस ने पलट कर घर के एक सदस्य पर बलात्कार का केस जड़ डाला.

बलात्कार के मामलों में आरोप लगाने में कुछ ज्यादा तो करना नहीं होता. कहना ही काफी होता है और बाकी पुलिस, डाक्टर अपनेआप कर लेते हैं. इस में मोटी कमाई हरेक को दिखती है. अभियुक्त को छुटकारा 4 साल बाद मिला. उस ने क्या कीमत दी होगी यह कोई पता नहीं कर सकता.

बलात्कार की पीडि़ताओं को जो झेलना पड़ता है, वह लोमहर्षक है, वहीं अब झूठे आरोपों के चलते फंसते पुरुषों का दर्द भी तीखा होता जा रहा है. छेड़खानी, इज्जत हनन और बलात्कार जैसे आरोप आज समाज को एक नए दलदल में फंसा रहे हैं. औरतों को अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के नाम पर पुरुषों को कठघरों में खड़ा करना भी गलत होगा क्योंकि पुरुष के साथ उस के मातापिता, पत्नी, बच्चे सब समाज की निगाहों में ऐसे ही गिर जाते हैं जैसे बलात्कार की शिकार युवती गिर जाती है.

इस विडंबना का कोई आसान हल नहीं है पर कोशिश तो करनी चाहिए. इसीलिए इस मामले में न्यायाधीश निवेदिता अनिस शर्मा ने आदेश दिया कि निर्णय की प्रतियां कानून मंत्रालय, केंद्र सरकार, दिल्ली सरकार व महिला आयोग की अध्यक्ष को भेजी जाएं ताकि वे मामले के दूसरे पक्ष को भी देख सकें.

गुप्त सूचनाएं और लोकतंत्र

सरकार की गुप्त सूचनाएं जगजाहिर करना देशद्रोह है या नहीं, यह मामला अमेरिका में तूल पकड़ रहा है. अमेरिकी सरकार जनता पर लगातार नजर रख रही है और आम आदमियों से ले कर खास हस्तियों तक के ईमेल पढ़े जा रहे हैं, टैलीफोन वार्त्तालाप सुने जा रहे हैं और मैसेज कहां से आए व कहां गए, का रिकौर्ड रखा जा रहा है. इन गुप्त बातों को जानने के लिए कभी दूसरे देश के गुप्तचर भारी रकम देने को तैयार रहते थे पर आज उत्साही युवा बिना मूल्य के अपनी सरकार के गुप्त भेद जगजाहिर कर रहे हैं.

29 साल के एडवर्ड जोसेफ स्नोडेन ने आतंकियों को पकड़ने के नाम पर रिकौर्ड की गई बातों को अमेरिकी प्रैस को खुल्लमखुल्ला, बिना कुछ चाहे, बता दिया. अमेरिकी सरकार अब उन्हें पकड़ना चाहती है और वे एक देश से दूसरे देश भाग रहे हैं कि उन्हें कहीं शरण मिल जाए.

2 वर्ष पहले जूलियन असांजे ने विकीलीक्स के मारफत कुछ ऐसा ही कदम उठाया था जब गुप्त जानकारियां  इंटरनैट पर डाल कर हरेक तक पहुंचा दी थीं और दुनियाभर के नेताओं व सरकारों को सकते में डाल दिया?था. आस्ट्रेलियाई असांजे को स्वीडन में एक रेप में फंसा कर गिरफ्तार करने की कोशिश की जा रही है पर फिलहाल वे इक्वाडोर के लंदन स्थित दूतावास में छिपे हैं.

लोकतंत्र का तकाजा है कि सरकार कुछ भी छिपा कर न करे. शत्रुओं की बातें जानने के लिए की जा रही जासूसी भी इतनी गुप्त न हो कि उन का दुरुपयोग किया जाने लगे. तानाशाह देश पहले बोलने, सोचने व कुछ करने की स्वतंत्रता पर रोक लगाते हैं, फिर जल्दी ही तानाशाह अपना राज बनाए रखने के लिए विरोधियों की गतिविधियों पर नजर रखना शुरू कर देता है. अगर लोकतंत्र में भी यही हुआ तो फिर कैसा लोकतंत्र.

अमेरिकी सरकार का कहना है कि वह नागरिकों की बातें इसलिए सुन रही है ताकि आतंकवादियों की जानकारी पहले मिल जाए. पर इस बात की कौन गारंटी लेगा कि पूर्व राष्ट्रपति निक्सन की तरह कोई राष्ट्रपति अपने विरोधी दल की बात सुनना न शुरू कर दे जो वाटरगेट के नाम से कुख्यात हुआ.

स्नोडेन को सिरफिरा, फितूरी कहा जा सकता है पर ऐसे ही लोग असल में लोकतंत्र के रक्षक हैं और निरंकुश सरकार पर रोक लगा सकते हैं. स्नोडेन अमेरिका से भाग निकले वरना उन का वहां भारतीय शैली में एनकाउंटर करने में देर न लगती.

 

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