ऊंची जाति में पैदा होना किसी मुसीबत से कम नहीं है. मैं पैदाइशी लैफ्ट हैंडर था, नैसर्गिकता छीन ली गई. व्यर्थ का मेहनत करवाया गया. सीधे हाथ से लिखना तो सीख गया लेकिन था वह पूर्णतया कृत्रिम जिस में हैंडराइटिंग सुधरने की बजाय बिगड़ती चली गई. सुंदर हस्तलिपि के लिए अलग से कठोर श्रम करना पड़ा. बावजूद इस के मैं भोजन करना नहीं सीख सका, सीधे हाथ से. नतीजा यह हुआ कि ब्राह्मणों के सार्वजनिक भोज में मुझे तिरस्कार की दृष्टि से देखा जाने लगा. नसीहतें दी जाने लगीं.
मैं ने सार्वजनिक भोज में जाना ही छोड़ दिया. मेरा अपना तर्क था कि कुदरत ने 2 हाथ दिए हैं. अब दाएं से खाऊं या बाएं से क्या फर्क पड़ता है. लेकिन शास्त्रों को मानने वाले तर्क से कहां सहमत होते हैं. वे इसे विद्रोह और पाप समझते हैं.
जब कुछ बड़ा हुआ, स्कूल जाने लगा तो मेरे दोस्त भी बने. दोस्ती और प्रेम किया नहीं जाता, बस हो जाता है. कोई व्यक्ति अच्छा लगने लगता है और आप का खास दोस्त बन जाता है. बाद में पता चला कि दोस्त की जाति क्या है, उस का धर्म क्या है. मुझे क्या लेनादेना इन सब बातों से. लेकिन समाज को लेनादेना है. जब रविवार को अवकाश पर दोस्त ने खेलने के लिए घर बुलाया तो मैं चला गया. खेलतेखेलते प्यास लगी. दोस्त से पानी मांगा. दोस्त की मां ने यह कह कर पानी देने से मना कर दिया कि तुम ब्राह्मण हो, हमारे यहां का पानी कैसे पी सकते हो. तुम्हारे घर वालों को पता चलेगा तो हम लोगों की मुसीबत हो जाएगी. दोस्त की मां ने यह भी कहा कि तुम हमारे घर खेलने मत आया करो. स्कूल में ही मिल लिया करो. मुझे बहुत बुरा लगा. मेरा मन उदास हो गया.
मैं खिन्न मन से घर आया तो यहां भी मुसीबत. मुझे पहले तो स्नान करने को कहा गया. फिर डांट अलग से पड़ी. लेकिन इस से हमारी दोस्ती पर कोई असर नहीं पड़ा. हां, इतना जरूर हुआ कि हम एकदूसरे के घर नहीं आतेजाते थे.
जब कालेज जाने लगे तो नए फैशन के रोग भी लग गए. मेरे लिए शौक लेकिन घर वालों के लिए रोग. मैं ने शानदार कंपनी के जूते, बेल्ट और चमड़े की एक जैकेट खरीदी. पिताजी ने देखा तो गुस्से में कहा,”शर्म नहीं आती, ब्राह्मण हो कर चमड़े की चीजें पहनते हो. जूते तक ठीक था कि चलो बाहर उतार दिए. तुम जैकेट, बेल्ट, पर्स चमड़े का इस्तेमाल करते हो. घर अशुद्ध कर दिया. चलो बाहर फेंको इन्हें और कल वापस कर के आना.’’ वापस तो खैर नहीं देने गया, न दुकानदार लेता, मैं ने अपने दोस्त कमल को दे दिए.
उस ने पूछा,‘‘क्यों?’’
मैं ने उसे कारण बताया तो उस ने कहा,‘‘बड़े चोंचले हैं तुम्हारे घर वालों के.’’
मैं ने कहा,‘‘घर वालों के नहीं, ऊंची जाति के. उच्च कुल में पैदा होने के नुकसान भी बहुत हैं.’’
उच्च समाज में पैदा होना बहुत बड़ी मुसीबत है. रहनसहन, पहनावा, बोलचाल, खानपान सब पर पाबंदी होती है. दायां हाथ शुद्ध है. बायां हाथ अशुद्ध. दुनिया चांदतारों तक पहुंच रही है और ये हैं कि आदमीआदमी में फर्क करते हैं. सुबह स्नान करो, गायत्री मंत्र की माला जपो. जनेऊ धारण करो, तिलक लगाओ, चोटी रखो. मुझे बड़ी शर्म आती है दोस्तों के सामने. मजाक बनता हूं लेकिन फिर भी घर में रहना है तो यह सब करना पड़ेगा. क्या करें, मजबूरी है.
कालेज में पढ़ते समय एक गोरी सी सुंदर लड़की मुझे भाने लगी. मैं उस के नजदीक जाने का हरसंभव प्रयास करता. उसे अपनी ओर आकर्षित करने के लिए घर से निकलने के बाद कमल के घर जा कर चमड़े के जूते, बेल्ट, लैदर वाली जैकेट पहन कर जाता. जनेऊ तो कपड़े में छिप जाता लेकिन कमबख्त चोटी को छिपाने के लिए क्या करता. एक ही उपाय था कि जब उस के सामने जाता तो फैशनेबल टोपी पहन कर जाता, देवानंद की तरह. वैसे, मैं ने अपनी चोटी को इतना छोटा तो कर लिया था कि आसानी से नजर नहीं आती थी.
मैं ने बड़ी हिम्मत कर के उसे प्रोपोज किया जिस का उस ने कोई उत्तर नहीं दिया. लेकिन मैं ने हार नहीं मानी. मैं कालेज के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेने लगा. मुझे इतनी जानकारी तो हो गई थी कि उसे साहित्य, नाटकों में रुचि है. फिर क्या था, जिस नाटक में वह नायिका बनती, मैं हरसंभव प्रयास कर के उस में नायक बनता. इस के लिए मुझे क्याक्या पापड़ बेलने पड़ते मैं ही जानता हूं. हिंदी के प्रोफैसर को खुश करने के लिए उन्हें नएनए मंहगे गिफ्ट देता ताकि वे मुझे नाटक में रख लें. वह शकुंतला बनती तो मैं दुष्यंत.
वादविवाद प्रतियोगिता में मैं ने जो मत रखा, उस से वह मेरी तरफ आकर्षित हुई. मंच पर मैंं ने कहा कि जब चर्मकार के हाथ से बनाए मरे जानवर की खाल से बनी ढोलक से मंदिर अपवित्र नहीं होता जोकि मंदिर में भजनकीर्तन में बजाई जाती है तो बनाने वाले चर्मकार के मंदिर जाने से मंदिर कैसे अपवित्र हो सकता है? जब तथाकथित ईश्वर ने कहा है कि सभी जीवित प्राणियों में मैं ही हूं तो फिर हम कौन होते हैं भेदभाव करने वाले. यह ईश्वर का अपमान है. जातिगत भेदभाव मानने वाले तो नास्तिक हुए. वे कैसे मंदिर और ईश्वर को अपनी जागीर मान सकते हैं? मेरी इस प्रतियोगिता में एक तरफ तो खूब तालियां बजीं लेकिन कुछ लोग मुझ पर इस बात से नाराज भी दिखे. फिर भी मुझे भी प्रथम घोषित किया गया.
दूसरे प्रतियोगी ने धर्मशास्त्रों का हवाला दिया. पूर्वजों की बनाई परिपाटी का वास्ता दे कर उसे उचित ठहराया. लेकिन मेरे तर्क भारी पड़े उस पर. मैं ने कहा, ‘‘राम ने शबरी के जूठे बेर खाए. उन्हीं राम को आप ईश्वर मानते हैं तो जब ईश्वर फर्क नहीं करता तो आप कौन होते हैं फर्क करने वाले? फिर त्रेता, द्वापर में क्या हुआ, इस से क्या लेनादेना. यह कलयुग है. इस में कर्म के आधार पर जातियां बनती हैं,’’ जोरदार तालियां बजीं.
मैं अपनी जीत की ट्राफी लिए उसे तलाश रहा था. तभी पीछे से आवाज आई,‘‘सुनिए.’’
मैं मुड़ा. सामने मेरी सपना खड़ी थी.
‘‘मुझे आप की स्पीच पसंद आई. जीत के लिए बधाई.’’
मैं ने धन्यवाद दे कर कहा,‘‘और मेरा प्रणय निवेदन. उस का क्या हुआ? क्यों ठुकरा दिया आप ने?’’
उस ने कहा,‘‘नहीं, मुझे कुबूल है.’’ और मैं जैसे आसमान में उड़ने लगा.
वादविवाद प्रतियोगिता का हारा हुआ प्रतियोगी मेरे घर के पास ही रहता था. उस ने मुझ से कहा,‘‘तुम जीत कर भी हार गए. जीत के लिए बधाई. लेकिन मुझे अपने हारने पर भी गर्व है. मैं ने व्यवहारिक बातें कहीं. धर्मगत बातें कहीं और तुम ने किताबी.’’
मैं ने कहा,‘‘मुझे जो कहना था वह कह चुका हूं मंच पर. और वही मेरा सत्य है. मेरे विचार हैं. उन पर मैं अडिग हूं.’’ वह मुझ पर आग्नेय दृष्टि बरसाता हुआ चला गया.
सपना से मेरी मुलाकातों का सिलसिला आगे बढ़ चुका था. हम दोनों ही अपने प्रेम का इजहार कर चुके थे. साथ मरनेजीने की कसमें खा चुके थे. कालेज में हम हर समय साथ में नजर आते सब को. क्लास में भी एक ही साथ बैठने लगे थे.
‘‘तुम्हारा सरनेम क्या है?’’ उस ने पूछा.
मैं ने बताया तो उस ने माथा पीट लिया,‘‘सत्यानाश.’’
‘‘क्यों, क्या हुआ?’’ मैं ने आश्चर्य से पूछा.
‘‘मैं दलित हूं यार,’’ उस ने कहा.
‘‘तो क्या हुआ?’’ मैं ने पूछा.
‘‘अपने मांबाप को बताओ कि तुम एक छोटी जाति की लड़की से प्यार करते हो, तब समझ में आ जाएगा कि क्या हुआ?’’ उस ने कहा.
‘‘प्रेम व्यक्तिगत मामला है,’’ मैं ने सहज भाव से कहा.
‘‘तो क्या बस प्रेम ही करना है, आगे नहीं सोचा?’’ उस ने प्रश्न किया.
‘‘आगे शादी…’’ मैं ने कहा.
‘‘और शादी व्यक्तिगत मामला नहीं होती जनाब,’’ उस ने समझाया.
‘‘प्रेम का रोग सिर चढ़ कर बैठा है. अब उतरने से रहा,’’ मैं ने कहा.
‘‘जूते पड़ेंगे दोनों तरफ से. खुद भी मरोगे और मुझे भी मरवाओगे,’’ उस ने डराने वाले अंदाज में कहा.
‘‘तुम डरती हो?’’ मैं ने प्रश्न किया.
‘‘नहीं,’’ उस ने सहज उत्तर दिया.
‘‘तो फिर प्रेम हमारा है. प्रेम में व्यक्ति 2 नहीं एक होते हैं जो मेरी जात सो तुम्हारी जात,’’ मेरे कहने पर वह झल्ला उठी और उस ने कहा,‘‘अपनी किताबी दुनिया से बाहर निकलो.’’
‘‘तुम चाहो तो पीछे हट जाओ,’’ मैं ने कहा.
‘‘यही मैं तुम से कहती हूं,’’ पलट कर उस ने कहा.
‘‘मैं नहीं हट सकता,’’ मैं ने कहा.
‘‘तो आगे क्या सोचा है?’’ उस ने जिज्ञासा से पूछा.
‘‘पहले अपनी बात रखेंगे. नहीं माने तो बगावत,’’ मैं ने दृढ़ स्वर में कहा. वह चुप रही.
मैं ने जब घर में यह बात रखी तो घर में तूफान आ गया. मुझे खरीखोटी सुनाई गई. डांटाफटकारा गया. कुल की मानमर्यादा का वास्ता दिया गया. न मानने पर पिताजी ने दोटूक स्वर में कहा,‘‘तुरंत इस घर से निकल जाओ. आज से तुम मेरे लिए मर चुके हो.’’ पिता के क्रोध को मैं जानता था. इस से पहले कि वे कोई अस्त्रशस्त्र मुझ पर चलाते, मैं घर से बाहर निकल गया.
पिताजी यदाकदा मां से कहते भी रहते थे, ‘‘पूत नहीं कपूत पैदा किया है. एक दिन यह सब मिट्टी में मिला देगा, इस की बातों से जाहिर होता है.’’
पहले जब भी कभी जातपात पर बहस होती, मैं पिताजी से वही कहता जो धर्मग्रंथों में लिखा है. जो तथाकथित ईश्वर ने कहा है. सार सजीवनिर्जीव सब में भगवान का अंश होता है. लेकिन अंतत: मुझे ही कुल का कलंक माना जाता था. मैं माना गया और मजबूरन घर छोड़ना पड़ा. अब घर छोड़ते ही मुझे अपने लिए सारे इंतजाम करने थे. रहने का, खानेपीने का. कमल ने इस में मेरी बहुत सहायता की.
उस ने मुझे समझाया भी,‘‘एक बार फिर सोच लो. एक बार शादी हो गई तो गए जात से बाहर, हमेशा के लिए. फिर तुम्हें रोजगार पहले तलाशना होगा.”
मैं ने कमल से कहा,”पहले तुम मेरी कोर्ट मैरिज की व्यवस्था करो.’’
उस ने सारी जिम्मेदारी अपने सिर पर ले ली. मेरी प्रेमिका सपना उस की हिम्मत नहीं पड़ी घर में बात करने की.
उस ने कहा,‘‘मना ही होना है तो फिर कहने से क्या होगा. तुम जब कहो मैं अपना सबकुछ छोड़ कर तुम्हारे पास आने के लिए तैयार हूं.’’
मैं ने उसे शादी की तारीख बताई. उस ने कहा,‘‘ठीक है, लेकिन फिर हमारा इस शहर में रहना ठीक नहीं है.’’
कमल ने अपने दोस्त के माध्यम से गुप्त रूप से हमारा विवाह आर्य समाज में करवाया और भोपाल जाने वाली ट्रेन में छोड़ने भी आया. उस ने कहा कि मैं ने एक कंपनी में तुम्हारे लिए नौकरी की व्यवस्था करवा दी है. तुम पहले जा कर नौकरी जौइन करना. ट्रेन चलने को हुई. कमल और मैं गले मिले. उस ने भरे गले से कहा,”अपना ध्यान रखना और मेरे लायक कुछ हो तो कहना.’’
हमें भोपाल आए काफी समय हो चुका था. इस बीच घर में कई बार फोन लगाया. लेकिन उधर से फोन बंद बता रहा था हर बार. मैं ने एक बार सपना को ले कर घर जाने का फैसला किया. लेकिन हमारे शहर पहुंचते ही हमें पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया. थाने जाने पर सारी बात सामने आई. सपना के पिता ने लड़की के अपहरण और बलात्कार की रिपोर्ट थाने में लिखवा दी थी. मेरे पिता से पूछताछ होने पर उन्होंने स्पष्ट लिख कर दे दिया था थाने में कि हमारा अपने पुत्र से कोई लेनादेना नहीं है. दोनों परिवारों में जातिगत झगड़ा भी हुआ. दलित समाज की तरफ से धरनाप्रदर्शन भी हुए. अखबारों में खबर भी प्रकाशित हुई, ‘दलित लड़की का अपहरण’ शीर्षक से.
सपना ने थाने में सारे आरोपों को निराधार बताते हुए आर्य समाज द्वारा जारी किया गया विवाह प्रमाणपत्र भी दिखाया. हमें छोड़ दिया गया. सपना अपने घर पहुंची तो उस के परिवार ने थोड़ा सा क्रोध दिखा कर उसे अपना लिया. मैं अपने घर पहुंचा तो पिता ने बाहर से जाने को कह दिया. उन्होंने कहा,‘‘तुम हमारे लिए मर चुके हो.’’
परिवार के बाकी सदस्य भी पिता के साथ थे. कमल का कुछ पता नहीं चला. मैं अपने दूसरे खास दोस्तों से मिला. किसी ने मेरे निर्णय को गलत ठहराया, किसी ने सही. रहीम ने कहा,‘‘तुम लोगों के शहर छोड़ने के बाद माहौल काफी बिगड़ चुका था. कमल को उसी के समाज के लोगों ने यह कह कर धिक्कारा था कि तुम ने अपनी जाति से गद्दारी की है. जात की लड़की को गैर जाति के लड़के के साथ भगवा दिया है. मुझे लगता है कि कमल की हत्या कर दी गई है.’’
मैं हिम्मत कर के सपरा के घर पहुंचा. सपना के परिवार ने मेरा स्वागत किया. उस के पिता ने कहा,‘‘भागने की क्या जरूरत थी. मुझ से कहते मैं शादी करवा देता तुम दोनों की. तुम्हारे घर के लोग तो तुुम्हें कभी स्वीकारेंगे नहीं. हां, एक शर्त पर स्वीकार सकते हैं. यदि तुम दोनों में से, दोनों ही, खासकर सपना किसी ऊंची सरकारी जौब पर पहुंच जाए तब वे गर्व से कहेंगे कि सपना मेरी बहू है और तभी मैं तुम्हारे इस विवाह को संपूर्ण समझूंगा.’’
‘‘कमल के बारे में कुछ पता है?’’ मैं ने पूछा.
‘‘जो नहीं रहा उस की बात मत करो. भूतकाल को छोड़ भविष्य के लिए जीना सीखो.’’
‘‘लेकिन कमल मेरे बचपन का दोस्त था,’’ मैं ने प्रतिवाद किया.
‘‘रिपोर्ट लिखी है उस की थाने में,’’ सपना के पिताजी ने गुस्से से कहा.
‘‘क्या आप ने उसे मारा?’’
‘‘तुम दोनों के प्रेम ने बलि ली है उस की.’’
‘‘आप कातिल हैं.’’
‘‘जब सिद्ध हो जाएगा तो जेल जाने को भी तैयार रहूंगा.’’
माहौल में गरमाहट आ चुकी थी. मैं सपना के साथ वापस भोपाल आ गया. सपना की इच्छा थी कि वह घरेलू महिला बन कर रहे. उसे अपने घर को सजानासंवारना अच्छा लगता था. अपने पति के लिए खाना बनाना भी. पति की सेवा करने को ही वह अपना जीवन मान कर जीना चाहती थी. मेरे पास छोटी सी नौकरी थी. मैं एक कंपनी में सुपरवाइजर की पोस्ट पर था. प्राइवेट नौकरी थी. समय अधिक देना पड़ता था. इसलिए मेरा आगे पढ़ना और किसी बड़ी नौकरी की तैयारी करने के लिए समय निकालना संभव नहीं था. मुझे सपना के पिता की बात याद आई,”तुम्हारा परिवार मेरी बेटी को अपनी बहू तभी स्वीकारेगा, जब वह किसी बड़ी पोस्ट पर होगी. तब गर्व होगा उन्हें अपनी बहू पर. इस शादी पर. तभी तुम्हारा विवाह संपूर्ण मानूंगा. दूसरी बात है कि कमल तुम दोनों के प्रेम की बलि चढ़ गया.
मैं ने सपना को आगे पढ़ने के लिए कहा. उस ने कहा, ‘‘कर तो लिया ग्रैजुएट. और कितना पढ़ना है…’’
‘‘अभी बहुत पढ़ना है.’’
‘‘क्यों?’’
‘‘ताकि हमारी शादी संपूर्ण हो सके.’’
‘‘आप भी मेरे बाबूजी की बातों में आ गए. मैं गृहिणी बन कर खुश हूं.’’
‘‘तुम इसलिए पढ़ो ताकि मेरा परिवार गर्व कर सके तुम पर, मुझ पर, हमारे विवाह पर.’’
‘‘हमारी शादी हो चुकी है और मुझे अपनी शादी पर गर्व है. आप 2 परिवारों के जातीय अहम को संतुष्ट करने का साधन न बनाएं मुझे और न खुद बनें. मैं सीधीसादी गृहस्थन बन कर संतुष्ट हूं.’’
‘‘तुम्हें मेरी खातिर पढ़ना भी होगा और नौकरी की तैयारी भी करनी होगी.’’
‘‘आप मुझ से मेरी घरगृहस्थी क्यों छीनना चाहते हैं?’’ सपना ने गुस्से में कहा.
‘‘मैं तुम्हें सफल होते, आगे बढ़ते और ऊंचाइयों पर जाते देखना चाहता हूं,’’ मैं ने कहा.
सपना ने मेरा मन रखने के लिए स्वीकृति दे दी लेकिन सशर्त पर कि वह प्राइवेट परीक्षा देगी. सपना प्राइवेट परीक्षा देती रही और अच्छे नंबरों से पास भी होती रही. मैं ने जोर दे कर आईएएस की कोचिंग में उस का दाखिला करवा दिया जहां उसे मात्र 2 घंटे जाना होता था पढ़ने के लिए. मैं बीचबीच में कमल की मौत की जांच के लिए पुलिस अधिकारियों को पत्र भी लिख रहा था. कभीकभी गुमनाम खत लिख कर संदिग्ध व्यक्ति का नाम भी लिख देता था. सपना, जोकि पहले पढ़ना नहीं चाहती थी, न नौकरी करना चाहती थी, धीरेधीरे पढ़ाई और नौकरी के प्रति गंभीर हो रही थी. मैं ने एक दिन उस से मजाक में कहा, ‘‘पक्की गृहस्थन, अब पक्की पढ़ाकू हो गई है.’’
उस ने बुझे स्वर में कहा,‘‘मैं तो अपनी घरगृहस्थी में ही सुख और आनंद से थी. आप ने मुझे उलझा दिया. लेकिन अब अपनेआप को साबित करने के लिए पढ़ रही हूं. किसी को बताने के लिए कि मैं भी कुछ हूं. कुछ दिनों पहले कोचिंग के टीचर ने व्यंग्य किया था कि आप तो रिजर्व कैटेगरी में आती हैं, तो आप को नौकरी नहीं लगी? तो फिर लानत है आप पर. आप को तो लगनी ही है. और मैं ने तय कर लिया कि मैं रिजर्व से नहीं सामान्य उम्मीदवार के रूप में फौर्म भरूंगी.’’
मैं ने सपना को समझाने की कोशिश की. लेकिन उस ने समझने से इनकार करते हुए कहा,‘‘मेरा प्रण अटूट है. मैं साबित कर के रहूंगी, खुद को कि रिजर्वेशन नहीं मिलता, तब भी मैं क्षमता रखती हूं.’’ सपना के दृढ़ विश्वास के आगे मैं भी झुक गया.
सपना ने पीएचडी में भी प्रवेश ले लिया. आईएएस की तैयारी भी करती रही. कभी प्रथम परीक्षा पास करती तो दूसरे में रुक जाती. कभी दोनों पास करती तो इंटरव्यू में उत्तीर्ण न हो पाती. लेकिन उस से उस का आत्मविश्वास कम होने की बजाय बढ़ता गया. पीएचडी पूर्ण होतेहोते वह आईएएस अधिकारी बन चुकी थी. मेरा सपना साकार हो चुका था. ट्रेनिंग के बाद पहली नियुक्ति उसे अपने गृह जिले में ही मिली. मैं ने उस से वचन लिया कि वह हम दोनों के प्रेम में बलि चढ़ चुके कमल के हत्यारों की जांच करवाए. उस ने मुझे वचन दिया और कहा, ‘‘हां, वह तुम्हारा दोस्त था और मेरे भाई जैसा था, मैं उस के हत्यारों को पकड़ने के लिए पूरी कोशिश करवाऊंगी.’’
मुझे लगा कि अब अपने परिवार से मिलने का समय आ चुका है। एक दिन लालबत्ती की गाड़ी में मैं अपनी पत्नी के साथ अपने घर के दरवाजे पर उतरा. लालबत्ती की गाड़ी देख कर कुछ लोग अपने घरों से झांकने लगे. कुछ अपनेअपने दरवाजे पर खड़े हो गए. घर के दरवाजे खुले. पिता ने हाथ जोड़ कर कहा, ‘‘नमस्कार करते हैं. सौभाग्य है हमारा कि कलेक्टर साहिबा हमारे घर पर पधारी हैं,’’ पिता की बात में व्यंग्य सा छिपा था.
सपना ने चरणस्पर्श किए, अपने सासससुर के. उसे आशीर्वाद भी मिला. सपना के लिए मेरी मां चायनाश्ता बनाने के लिए उठी. सपना ने मां के काम में हाथ बंटाना चाहा तो मां ने मना करते हुए कहा,”आप बैठिए. आप को शोभा नहीं देता घरगृहस्थी का काम. आप तो जिला संभालिए,’’ मां की बात में भी तंज सा लगा.
मैं ने पिताजी से कहा,”अब तो आप खुश हैं कि आप की बहू कलैक्टर जैसी ऊंची पोस्ट पर है.”
पिता कुछ देर चुप रहे. फिर बोले, ‘‘यह सम्मान हम कलैक्टर साहिबा का कर रहे हैं. बड़े लोग, बड़ी पोस्ट. पता नहीं किस बात पर नाराज हो कर कौन सा केस बनवा दें.’’
सपना ने कहा,‘‘पापा, मैं आप की बहू पहले हूं, कलैक्टर बाद में.’’
तभी मां चायनाश्ता ले कर आ गई. मां ने कहा,‘‘हम सम्मान कलैक्टर का कर रहे हैं, बहू का नहीं.’’
‘‘मुझे आप का सम्मान चाहिए भी नहीं. मैं तो बहू बन कर ही खुश हूं. आप की सेवा मेरा सौभाग्य होगा. इन्होंने ही मुझे जबरदस्ती आगे पढ़ायालिखाया और नौकरी के लिए प्रेरित किया,’’ सपना ने मेरी ओर देखते हुए अपनत्व से कहा.
‘‘हां, हमें नीचा दिखाने की कोशिश में कामयाब रहा हमारा बेटा,’’ मां ने मेरी तरफ देखते हुए कहा. फिर बात को संभालते हुए बोली,‘‘खुशकिस्मत हो तुम जो ऐसा पति मिला.’’
मुझे एहसास हो गया और शायद सपना को भी कि अपनेआप को उच्च मानने वालों की मानसिकता, खासकर इस उम्र में बदलना नामुमकिन है. घर में खाने को दाना न हो लेकिन अपनी पैदाइशी उच्चता पर इतराएंगे जरूर. हम उठ खड़े हुए. सपना लौटते समय पैर नहीं पड़ी और जातेजाते कहा,‘‘आईएएस अधिकारी का पैर पड़ना आप को भी अच्छा नहीं लगेगा.’’
सपना गाड़ी में बैठ चुकी थी. पिता ने मुझे इशारे से बुला कर धीरे से कहा,”जात जन्म से आती है और मर कर ही जाती है. तुम कलैक्टर बनो या प्रधानमंत्री, इस से कोई फर्क नहीं पड़ता. अधिकारियों, नेताओं का सम्मान करना फर्ज है नागरिक का, सो निभा लिया.’’
मेरे कारण मेरी पत्नी का भी अपमान हुआ. इस बात से मैं आहत था. मैं ने सपना से कहा,‘‘सौरी.’’
उस ने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा,‘‘मैं आप के कहने पर आप की इच्छा का मान रखने के लिए कलैक्टर बनी हूं न कि अपने पिता के कहने पर, न आप के पिता को खुश करने के लिए.’’
इस के बाद हम सपना के घर पहुंचे. सपना के पिता ने कहा,‘‘गर्व से सीना चौड़ा ड़हो गया हमारा. अब आई समझ में बात ऊंची जाति वालों को.’’
सपना ने कहा,”पापा, मैं कलैक्टर किसी को ऊंचा या नीचा दिखाने के लिए नहीं बनी हूं.’’
सपना के पिता ने अहंकार भरा ठहाका लगाया. हम दोनों ही अपनेअपने परिवार की जातिवादी रूढ़ियों, अहंकार से तंग आ चुके थे. प्रेम, दोस्ती दो मन के एक होने के लिए होते हैं. सुखदुख के सच्चे साथी. लेकिन इन पिछड़े दिमाग वालों को कोई कैसे समझाए.
इस बीच एक अच्छी बात हुई कि कमल के कातिल पकड़ गए जिस में उस की ही जाति के कुछ युवा लड़के थे और हत्या की योजना बनाने में सपना के पिता भी गिरफ्तार हुए. मुझे समझ आ रहा था कि कैसे सम्राट अशोक के जमाने का अखंड भारत, जोकि अब केवल भारत रह गया था, उस में भी आज धर्मजाति की आग लगी हुई है. कभी खालिस्तान की मांग उठती है तो कभी पृथक कश्मीर की. हम एक धर्म के लोग जाति के कबीलों में बंट कर एकदूसरे में उलझे हुए हैं. दूसरे धर्म की तो बात ही छोड़ दें. व्यर्थ ही हम अंगरेजों का दोष देते हैं बंटवारे का. व्यर्थ ही हम राजनीतिज्ञों को कोसते हैं जाति के नाम पर बांटने का. हम स्वयं आपस में भाईचारे से रहें तो कौन हमें बांट सकता है. कौन हमें लड़ा सकता है. जो भी हो रहा है उस के लिए हम स्वयं दोषी हैं.
कहने को देश 1947 में आजाद हो गया लेकिन हम आज भी कैद हैं अपनी ही जंजीरों में. धर्मजाति, उपजाति, भाषा, प्रांत की कैद से हम कब आजाद होंगे, होंगे भी या नहीं, कह नहीं सकते.