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‘‘यह खोली मैं ने 8 हजार रुपए पगड़ी पर ली थी और 100 रुपए महीना किराया देता हूं. फिलहाल कोई भी मुझे इस के 10 से 15 हजार रुपए दे सकता है, परंतु यदि तुम्हें जरूरत हो तो मैं केवल 8 हजार रुपए ही लूंगा. यदि लेना हो तो मुझे 10-12 दिन में उत्तर दे देना.’’

‘8 हजार रुपए’ मित्र की बात सुन कर शकील सोच में पड़ गया था, ‘मेरे पास इतने रुपए कहां से आएंगे… फिलहाल तो मुश्किल से 2 हजार रुपए होंगे मेरे पास. यदि कमरा लेना तय भी किया तो बाकी 6 हजार रुपए का प्रबंध कहां से होगा.’

उस के बाद 2 दिन की छुट्टी ले कर वह घर गया तो दीबा ने उस से पहला प्रश्न यही किया था, ‘‘क्या कमरे का कोई प्रबंध किया?’’

‘‘देखा तो है, परंतु पगड़ी 8 हजार रुपए है. 10-12 दिन में 6 हजार रुपए का प्रबंध संभव भी नहीं है.’’

उस की बात सुन कर दीबा का चेहरा उतर गया था.

बहुत देर सोचने के बाद दीबा ने उस से कहा था, ‘‘क्यों जी, मुझे जो विवाह में अपने मायके से सोने के बुंदे मिले थे, यदि हम उन्हें बेच दें तो 6 हजार रुपए तो आ ही जाएंगे और इस तरह हमारे लिए कमरे का प्रबंध हो जाएगा.’’

‘‘तुम पागल तो नहीं हो गई हो. कमरा लेने के लिए मैं तुम्हारे बुंदे बेचूं… यह मुझ से नहीं हो सकता. फिर तुम्हारे घर वाले मुझ से या तुम से पूछेंगे कि बुंदों का क्या हुआ तो क्या जवाब दोगी?’’

‘‘वह मुझ पर छोड़ दीजिए, मैं उन्हें समझा दूंगी. यदि उन के कारण हमारी कोई समस्या हल हो सकती है तो हमारे लिए इस से बढ़ कर और क्या बात हो सकती है. देखिए, जो परिस्थितियां हैं, उन को देखते हुए हम कभी मुंबई में अपने लिए किराए के एक कमरे का भी प्रबंध नहीं कर पाएंगे. तो क्या आप सारा जीवन अपने मित्रों के साथ एक कमरे में सामूहिक रूप से रह कर गुजार देंगे? जीवन भर होटलों का बदमजा खाना खा कर जीएंगे? जीवन भर आप अकेले मुंबई में रहेंगे? हमारे जीवन में महीने दो महीने में एकदो दिन के लिए मिलना ही लिखा रहेगा?’’ दीबा ने डबडबाई आंखों से पति की ओर देखा.

दीबा की किसी भी बात का वह उत्तर नहीं दे पाया था. सचमुच जो परिस्थितियां थीं, उन से तो ऐसा लगता था कि उन का जीवन इसी तरह से चलता रहेगा. कभीकभी उसे अम्मी और घर वालों पर बहुत क्रोध आता था.

‘‘मैं बारबार कहता था कि जब तक मुबंई में एक कमरे का प्रबंध न कर लूं, विवाह के बारे में सोच भी नहीं सकता, परंतु उन्हें तो मेरे विवाह का बड़ा अरमान था. इस विवाह से उन्हें क्या मिला? उन का केवल एक अरमान पूरा हुआ, परंतु मेरे लिए तो जीवन भर का रोग बन गया.’’

वह डिगरी ले कर मुबंई आया था. उस समय भी मुबंई में नौकरी मिलना इतना आसान नहीं था. परंतु उसे अपने ही शहर के कुछ मित्र मिल गए, उन्हीं ने उस के लिए प्रयत्न और मार्गदर्शन किया, कुछ उस की योग्यताएं भी काम आईं. उसे एक निजी कंपनी में नौकरी मिल गई. वेतन कम था, परंतु आगे बढ़ने की आशा थी और काम उस की रुचि का था.

उस के बाद उस का जीवन उसी तरह गुजरने लगा, जिस तरह मुबंई का हर व्यक्ति जीता है. उस के मित्रों ने कुर्ला में एक छोटा सा कमरा ले रखा था. उस छोटे से कमरे में वे 5 मित्र मिल कर रहते थे. वह छठा उन में शामिल हुआ था.

कमरा थोड़ी देर आराम करने और सोने के ही काम आता था क्योंकि सभी सवेरे से ही अपनेअपने काम पर निकल जाते थे और रात को ही वापस आते थे.

सभी होटल के खाने पर दिन गुजारते थे. कभीकभी मन में आ गया तो छुट्टी के किसी दिन हाथ से खाना पका कर उस का आनंद ले लिया. बहुत कंजूसी करने के बाद वह घर केवल 200 या 300 रुपए भेज पाता था.

जब भी वह घर जाता, घर वाले उस पर विवाह के लिए दबाव डालते. उन के इस दबाव से वह झल्ला उठता था, ‘‘यह सच है कि मेरे विवाह की उम्र हो गई है और आप लोगों को मेरे विवाह का भी बहुत अरमान है. मैं नौकरी भी करने लग गया हूं, परंतु मैं विवाह कर के क्या करूंगा. अभी मुबंई में मेरे पास सिर छिपाने का ठिकाना नहीं है. विवाह के बाद पत्नी को कहां रखूंगा? फिर मुबंई में इतनी आसानी से मकान नहीं मिलता है, उस पर मुबंई के खर्चे इतने अधिक हैं कि विवाह के बाद मुझे जो वेतन मिलता है, उस में मेरा और मेरी पत्नी का गुजारा मुश्किल से होगा. मैं आप लोगों को एक पैसा भी नहीं भेज पाऊंगा.’’

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