तो हुआ यों कि गरीबदास लाचारप्रसाद गए फ्लैट देखने श्यामनगर ऐक्सटैंशन में. गरीबदास उन का अपना नाम है और पिता का नाम लाचारप्रसाद. इस प्रकार उन का पूरा नाम है गरीबदास लाचारप्रसाद. कुछ परिवारों में नाम के साथ पिता का नाम रखने की परंपरा है. कुछ स्थानों पर गांव का नाम रखने की भी प्रथा है. ऐसे लोगों के लिए ऐसा फौर्म भरना कठिन हो जाता है जिस में 25-30 अक्षरों की शब्दसीमा होती है.
निम्नवर्गीय और मध्यवर्गीय परिवारों में नाम अमीरों के रख लेते हैं। जैसे, मुकेश, गौतम वगैरा. और कुछ न सही नाम तो अमीरों वाला होना चाहिए. कुछ लोग पद को ही अपना नाम बना लेते हैं. जैसेकि मैनेजर सिंह, कमांडर प्रसाद वगैरा.
निम्न और मध्यवर्गीय परिवारों के लोगों की संज्ञा जो भी हो विशेषण गरीबदास लाचारप्रसाद ही होता है. पर कुछ मध्यवर्गीय परिवार अपना नाम ऐसा रखते हैं जो उन की आर्थिक हैसियत की याद दिलाता रहे और बंदा अपनी हैसियत कभी न भूले. गरीबदास लाचारप्रसाद का परिवार भी वैसे परिवारों में ही था जो अपने पैर जमीन पर रखने में यकीन करते हैं.
आजकल शहर बढ़ने के मामले में महंगाई को भी बुरी तरह से मात दे रहे हैं. पहले एक मोहल्ला बनता है फिर बढ़तेबढ़ते वह ग्रेटर उपसर्ग ले लेता है. और भी बढ़ कर ऐक्सटैंशन प्रत्यय उस के साथ लग जाता है. आने वाले समय में शायद उपसर्ग और प्रत्यय दोनों लगाने की आवश्यकता पड़ें.
उदाहरण के लिए रामनगर बढ़ कर ग्रेटर रामनगर हो जाएगा फिर रामनगर ऐक्सटैंशन और आगे चल कर ग्रेटर रामनगर ऐक्स्टैंशन. उपसर्ग और प्रत्यय का ऐसा भी अकाल नहीं है साहित्य की दुनिया में. वैसे, ऐक्सटैंशन में टैंशन शब्द समाहित है. रामनगर, श्यामनगर, करीमनगर या माइकलगंज के साथ जब ऐक्सटैंशन लग जाए तो उस में भी कई प्रकार के टैंशन संलग्न हो जाते हैं. यथा पानी का टैंशन, ट्रैफिक का टैंशन वगैरा का टैंशन, वगैरा का टैंशन.
तो गरीबदास लाचारप्रसाद श्यामनगर ऐक्सटैंशन में गए फ्लैट देखने. रास्ते में अलगअलग बिल्डर, कंपनी के तख्ती लिए खड़े लोगों को देख कर उन्हें स्टेशन, फुटपाथ दुकानों की याद आ गई जहां सामान बेचने के लिए दलाल आएदिन आवाज देते रहते हैं या फिर रेलवे स्टेशन या बसस्टौप के समीप के होटल, जिन के नुमाइंदे ग्राहकों को अपने भोजनालय में ‘ओल्ड इज गोल्ड’ भोजन करने के लिए आने का बारहमासी न्योता देते रहते हैं.
पर्यटन स्थल पर भी ऐसे दृश्य बहुतायत में पाए जाते हैं. वैसे कई शहरों में बस स्टैंड में ऐसे नजारे भी दिख जाते हैं जहां यात्री को एक एजेंट किसी और बस में बैठा देता है तो उस का समान दूसरा एजेंट किसी और बस में रख देता है.
गरीबदास लाचार प्रासाद इन तख्तीधारियों से बचतेबचाते एक बिल्डर के औफिस में पहुंचे. जोरदार तरीके से स्वागत हुआ उन का. कुछ वैसे ही जैसे बलि देने के पहले बकरे का होता है. चायकौफी परोसा गया, जलपान के लिए पूछा गया. तरहतरह के रंगीन आकर्षक पैंफलेट और बुकलेट दिखाए गए जिसे देख वे उच्च जीवनशैली जीने के हसीन सपनों में ऐसे खोए कि मुंगेरीलाल के हसीन सपनों के सारे रिकौर्ड तोड़ बैठे. फिर उन्हें अतुलनीय सैंपल फ्लैट का विहंगम अवलोकन करवाया गया. सैंपल फ्लैट के परिवेश उर्फ चक्रव्यूह को देख मंत्रमुग्ध होने से कोई अनुभवी व्यक्ति ही बच सकता था पर इस मामले में अधिकांश ‘फ्लैटार्थी’ अभिमन्यु ही साबित होते हैं.
चक्रव्यूह में घुस तो जाते हैं, मगर निकल नहीं पाते क्योंकि बिल्डर के कर्मचारी और दलालरूपी अनेक योद्धा उन्हें पस्त करने के लिए हाजिर रहते हैं और उन योद्धाओं का एक ही उद्देश्य होता है कि चक्रव्यूह के अंदर आने वाला बिना फ्लैट बुक किए वापस जाने न पाएं. और इस के लिए जिम, स्विमिंग पूल, क्लब हाउस आदि के तिलस्म का प्रयोग किया जाता है. 56 इंच के टीवी पर ऐनिमेटेड दृश्य का अकाट्य जाल फेंका जाता है.
तो गरीबदास उर्फ अभिमन्यू चक्रव्यूह में फंस गया अर्थात फ्लैट की बुकिंग राशि जमा कर दी. राशी जमा होते ही गरमजोशी से उन से हाथ मिलाया गया और उपहार में सुंदर जिल्द वाली गीता दी गई.
“पर गीता ही क्यों?” उन्होंने सेल्स ऐग्जीक्यूटिव से पूछा.
आजकल सभी कंपनियां अपने कर्मचारियों को और कुछ दें न दें पदनाम प्यार से देते हैं- सेल्स ऐग्जीक्यूटिव, कस्टमर रिलेशन औफिसर, मार्केटिंग सुपरिटैंडेंट वगैरा. वेतनभत्ते भले ही कम दें पर पदनाम ऐसा देते हैं कि कम वेतनभत्ते के दर्द को वे भूल जाते हैं. ‘आटे की बरफी पर चांदी का वर्क’ की तरह ये पदनाम होते हैं.
“सर, इसी में तो सारा ज्ञान समाहित है,” ऐग्जीक्यूटिव उवाच अर्थात ऐग्जीक्यूटिव ने कहा. पर उस के आंगिक भाषा से ऐसा प्रतीत हो रहा था कि वह कह रहा हो यह बहुत बड़ा सहारा बनेगा आप के लिए. इसे ठीक से पढ़ लेना. न सिर्फ पढ़ लेना बल्कि हृदय में भी समा लेना. कुछ खोने के गम से उबरने में सहायता मिलेगी.
फिर समयसमय पर लाखों रुपए के किश्त भरते रहें अपने फ्लैट में रहने के हसीन सपने की प्रत्याशा में.
जब रजिस्ट्री का समय आया तो न जाने कौनकौन से अड़चन आएं कि वर्ष दर वर्ष बीतते गए पर फ्लैट पाने की तमन्ना दिवास्वप्न बन कर रह गई. अब बिल्डर के द्वारा प्रदत्त गीता ही उन का सहारा है. उसे पढ़ कर ज्ञानी बन रहे हैं और ध्यान से अपने जीवनभर की पूंजी को गंवाने के दुख को विस्मृत करने की कोशिश कर रहे हैं और खुद से यह सवाल पूछ रहे हैं कि क्यों व्यर्थ चिंता करते हो? चिंता चिता समान होती है. चिंता से चतुराई घटेगी. किस से व्यर्थ डरते हो? अर्थात फ्लैट नहीं भी मिलेगा तो क्या होगा. जो हुआ वह अच्छा हुआ, जो हो रहा है वह अच्छा हो रहा है, जो होगा वह भी अच्छा ही होगा. यानि यदि फ्लैट नहीं भी मिलेगा तो भी उस में कोई न कोई हितकारक बात ही होगी. तुम भूत का पश्चाताप न करो अर्थात जीवनभर की कमाई गंवाने का मलाल मन में न रखो. तुम्हारा क्या गया जो तुम रोते हो, तुम क्या लाए थे जो तुम ने खो दिया, तुम ने क्या पैदा किया था जो नाश हो गया, न तुम कुछ ले कर आए थे, जो लिया यहीं से लिया, जो दिया यहीं पर दिया. जो लिया इसी से लिया. जो दिया उसी को दिया. खाली हाथ आए और खाली हाथ चले. आज जो तुम्हारा है कल किसी और का था, परसों किसी और का होगा. तुम इसे अपना समझ कर मग्न हो रहे हो. बस, यही प्रसन्नता तुम्हारे दुखों का कारण है. अर्थात गीता का बड़ा सहारा है उन्हें.
अब उन की समझ में बात आई कि बिल्डर बुकिंग के समय सभी को गीता क्यों देता था. साथ ही बगल वाले बिल्डर के अपार्टमैंट को माननीय न्यायालय के द्वारा गिराए जाने के आदेश को मद्देनजर रखते हुए खुद को खुशनसीब मान रहे हैं कि उन का अपार्टमैंट कम से कम सीना तान कर खड़ा तो है.
जैसे गीता के ज्ञान ने कौरवों और पांडवों को बरबाद कर दिया। उसी प्रकार शायद आने वाले दिनों में कोर्ट निर्णय दे कि जो अपार्टमैंट बन रहा है वह अवैध है और उसे ढहा दिया जाए. फिर जिन के खूनपसीने की कमाई इस में लगी है उस के लिए वैकल्पिक व्यवस्था करने के लिए कोई कमिटी बना दी जाए और एक बार फिर से अनवरत प्रतीक्षा का सफर शुरू हो.
कहा गया है कि जब तक सांस तब तक आस. अब फ्लैट पाने की आस पूरी होने तक सांस बची रहे तो उसे सौभाग्य माना जाए अन्यथा गीता का ज्ञान तो है ही,’क्यों व्यर्थ चिंता करते हो…’