"राहुल के पापा," रमा तो किसी और ही दुनिया में विचरण कर रही थी. आराधना स्थलों की चकाचौंध से अभिभूत थी. सतीश का कहा तो वह ग्रहण ही न कर पाई. भावातिरेक में बोलती चली जा रही थी, "देवी मां का मंदिर इतना आलीशान हो गया, आप पहचान भी न पाओगे. सुना है मैं ने कि आसपास के लोगों ने मंदिर के लिए जमीन दान की है."
"अच्छा, पर मैं ने तो लोगों को सरकारी स्कूलों की जमीन का अतिक्रमण करते देखा है. वहां इन की दान प्रवृत्ति कहां चली जाती है."
"आप भी...मूड खराब कर देते हो, बात को पता नहीं कहां से कहां ले जाते हो," तमक कर रमा बोली.
"नहीं रमा, समझ में नहीं आता कि हम सरकारी स्कूलों और अस्पतालों की जर्जर स्थिति पर शर्म करें या फिर आराधना स्थलों की भव्यता पर गर्व? बात को समझने की कोशिश करो."
"पूजास्थल भी तो हमारी शान है. तमाम स्कूल और नर्सिंग होम हैं तो शहर में."
"हां हैं, लेकिन क्या वे सब की पहुंच में हैं?
"मंदिर में लोग दुआएं मांगने आते हैं, मन्नतें करते हैं. कितना चढ़ावा चढ़ता है... है न राहुल?" रमा ने उत्कंठा से राहुल की ओर समर्थन की अपेक्षा से देखा.
"उं...मैं तो परेशान हो गया था," मम्मी की देवी मां की पूजा से मुक्त, चायपकौड़ों से तृप्त, सोफे पर अलसाए सा लेटे हुए, फोन पर उंगलियां घुमाते राहुल ने अनमने मन से कहा.
"दुआ तो मन के कोने में भी हो जाती है, लेकिन इलाज के लिए अस्पताल चाहिए होते हैं," अपने विचारों में खोए सतीश चंद्र के मुंह से बरबस ही निकल गया.
आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें
डिजिटल

सरिता सब्सक्रिप्शन से जुड़ेें और पाएं
- सरिता मैगजीन का सारा कंटेंट
- देश विदेश के राजनैतिक मुद्दे
- 7000 से ज्यादा कहानियां
- समाजिक समस्याओं पर चोट करते लेख
डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

सरिता सब्सक्रिप्शन से जुड़ेें और पाएं
- सरिता मैगजीन का सारा कंटेंट
- देश विदेश के राजनैतिक मुद्दे
- 7000 से ज्यादा कहानियां
- समाजिक समस्याओं पर चोट करते लेख
- 24 प्रिंट मैगजीन