Writer- अशोक गौतम

जिन टमाटरों को रोटी के बदले खाखा कर कभी मैं लाल रहा करता था, आजकल वही टमाटर मु?ो औनलाइन दर्शन दे लाल किए जा रहे हैं. गूगल पर टमाटरों को सर्च करतेकरते मेरे ऐसे पसीने छूटने लगते हैं मानो मैं ने टमाटर नहीं, सांप देख लिया हो, वह भी फुंफकारता हुआ.

जिस सरसों के तेल को बौडी में खूब रचारचा कर कभी मैं अपने को वैवाहिक जीवन का बो?ा उठाने के लिए तैयार किया करता, दंड बैठकें निकाल तेल का तेल निकाल दिया करता था, आजकल उसी तेल के कनस्तर को बाजार में दूर से देख कर ही मेरे पसीने छूटने लगते हैं. मु?ो देखते ही वह इस कदर दंडबैठकें निकालने लगता है मानो जवानी के दिनों का हिसाब बराबर करना चाहता हो.

मत पूछो, घर का मुखिया होने के चलते मेरे कितने बुरे हाल हैं. इन दिनों मैं घर का मुखिया कम, घर में दुखिया सब से अधिक चल रहा हूं. किसी भी लैवल के मुखिया की वैसे तो नाक आज तक कभी बची नहीं, पर फिर भी सम?ा में नहीं आ रहा, महंगाई के इस दौर में किस तरह अपनी नाक बचाऊं?

पार्टी के चुनाव में हार जाने पर हार पर होने वाले मंथन के स्टाइल में जब मैं थकहार कर अपनी नाक बचाने पर मंथन कर ही रहा था कि अचानक मु?ो एक आइडिया आया कि क्यों न महंगाई के इस दौर में नाकबचाई के लिए परिवार को विभाग से एलटीसी ले कर तीर्थयात्रा पर धकेला जाए.

एक पंथ कई काज! इस बहाने उन का धार्मिक पर्यटन हो जाएगा और सरकार की तरह अपनी गिरती साख को, मुगालते में ही सही, आठ चांद भी लग जाएंगे. इस बहाने तीर्थयात्रा में शुद्ध वैष्णव खाने के बहाने टमाटरतेल के भाव का भी कुछ दिनों के लिए डर दिमाग से जाता रहेगा. हो सकता है तब तक टमाटर और तेल औंधेमुंह रसोई में गिर जाएं, या कि मेरी ही टमाटरतेल खाने की आदत ही छूट जाए. ऊपर से मोक्ष का सब से बड़ा फल अलग.

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