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सामाजिक और पारिवारिक वर्जनाओं को तोड़ने में उसे मजा आता. समाज के स्थापित मूल्यों की खिल्ली उड़ाना और उन के विपरीत काम करना उस के स्वभाव में शामिल था और प्यार, प्यार से बच कर आज तक इस दुनिया में शायद ही कोई रह पाया हो. प्रेम एक भाव है, एक अनुभूति है, जो मन की सोच और हृदय के स्पंदन से जुड़ा हुआ होता है. प्रेम एक प्राकृतिक अवस्था है, इसलिए इस से बचना बिलकुल असंभव है. परंतु वह किसी से प्यार भी करती थी या नहीं, यह किसी को पता नहीं चला था, क्योंकि वह बहुत चंचल थी और हर बात को चुटकियों में उड़ाना उस का शगल था.

कालेज के दिनों में वह हर तरह की गतिविधियों में भाग लेती थी. खेलकूद, नाटक, साहित्य और कला से ले कर विश्वविद्यालय संगठन के चुनाव तक में उस की सक्रिय भागीदारी होती थी. वह कई सारे लड़कों के साथ घूमती थी और पता नहीं चलता था कि वह पढ़ाई कब करती थी. बहुत कम लड़कियों के साथ उस का उठनाबैठना और घूमनाफिरना होता था, जबकि वह गर्ल्स होस्टल में रहती थी.

एक दिन पता चला कि वह यूनियन अध्यक्ष राघवेंद्र के साथ एक ही कमरे में रहने लगी थी. दोनों ने विश्वविद्यालय के होस्टलों के अपनेअपने कमरे छोड़ दिए थे और ममफोर्डगंज में एक कमरा ले कर रहने लगे थे. उस कालेज के लिए ही नहीं, पूरे शहर के लिए बिना ब्याह किए एक लड़की का एक लड़के के साथ रहने की शायद यह पहली घटना थी. वह छोटा शहर था, परंतु इस बात को ले कर कहीं कोई हंगामा नहीं मचा. राघवेंद्र यूनियन का लीडर था और स्निग्धा के विद्रोही व उग्र स्वभाव के कारण किसी ने खुले रूप में इस की चर्चा नहीं की. स्निग्धा के घर वालों को पता चला या नहीं, यह किसी को नहीं मालूम, क्योंकि उस के परिवार के लोग फतेहपुर जिले के किसी गांव में रहते थे. उस के पिता उस गांव के एक संपन्न किसान थे.

अगर कहीं कोई हलचल हुई थी तो केवल निशांत के हृदय में जो मन ही मन स्निग्धा को प्यार करने लगा था. वे दोनों सहपाठी थे और एक ही क्लास में पढ़तेपढ़ते पता नहीं कब स्निग्धा का मोहक रूप और चंचल स्वभाव निशांत के मन में घर कर गया था और उस के हृदय ने स्निग्धा के लिए धड़कना शुरू कर दिया था. स्निग्धा के दिल में निशांत के लिए ऐसी कोई बात थी, यह नितांत असंभव था. अगर ऐसा होता तो स्निग्धा राघवेंद्र के साथ बिना शादी किए क्यों रहने लगती?

यह उन दोनों का यूनिवर्सिटी में अंतिम वर्ष था. निशांत प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहा था. एमए करने के तुरंत बाद उसे नौकरी मिल गई और वह स्निग्धा की छवि को अपने दिल में बसाए दिल्ली चला आया.

निशांत के सिवा किसी को पता नहीं था कि वह स्निग्धा को प्यार भी करता था. 5 साल तक उसे यह भी पता नहीं चला कि स्निग्धा कहां और किस अवस्था में है. उस ने पता करने की कोशिश भी नहीं की, क्योंकि वह अच्छी तरह जानता था कि स्निग्धा अब न तो किसी रूप में उस की हो सकती थी न उसे कभी मिल सकती थी. दोनों के रास्ते कब के जुदा हो चुके थे.

फिर एक दिन कश्मीरी गेट जाने वाली मैट्रो ट्रेन में वे दोनों आमनेसामने बैठे थे. भीड़ नहीं थी, इसलिए वे एकदूसरे को अच्छी तरह देख सकते थे. पहले तो दोनों सामान्य यात्रियों की तरह बैठे अपनेआप में मग्न थे. लेकिन थोड़ी देर बाद सहज रूप से उन की निगाहें एकदूसरे से टकराईं. पहले तो समझ में नहीं आया, फिर अचानक पहचान के भाव उन की आंखों में तैर गए. लगातार कुछ पलों तक टकटकी बांध कर एकदूसरे को देखते रहे. फिर उन की आंखों में पूर्ण पहचान के साथसाथ आश्चर्य और कुतूहल के भाव जागृत हुए.

निशांत का दिल धड़क उठा, बिलकुल किशोर की तरह, जिसे किसी लड़की से पहली नजर में प्यार हो जाता है. अपनी अस्तव्यस्त सांसों के बीच उस ने अपनी उंगली उस की तरफ उठाई और फिर एकसाथ ही दोनों के मुंह से निकला, ‘आप…’

उन के बीच में कभी अपनत्व नहीं रहा था. एकसाथ एक ही कक्षा में पढ़ते हुए भी कभीकभार ही उन के बीच बातचीत हुई होगी, परंतु उन बातों में न तो आत्मीय मित्रता थी, न प्रगाढ़ता. इसलिए औपचारिकतावश उन के मुंह से एकसाथ ‘आप’ निकला था.

वह अपनी सीट से उठ खड़ा हुआ और उस के नजदीक आ कर बोला, ‘स्निग्धा.’

‘हां,’ वह भी अपनी सीट से उठ कर खड़ी हो गई और उस की आंखों में झांकते हुए बोली, ‘मैं तो देखते ही पहचान गई थी.’

‘मैं भी. परंतु विश्वास नहीं होता. आप यहां…?’ उस के मुंह में शब्द अटक गए. गौर से स्निग्धा को देखने लगा. वह कितनी बदल गई थी. पहले और आज की स्निग्धा में जमीनआसमान का अंतर था. उस का प्राकृतिक सौंदर्य विलुप्त हो चुका था. चेहरे का लावण्य, आंखों की चंचलता, माथे की आभा, चेहरे की लाली और होंठों का गुलाबीपन कहीं खो सा गया था. उस के होंठ सूख कर डंठल की तरह हो गए थे. आंखों के नीचे कालीकाली झाइयां थीं, जैसे वह कई रातों से ढंग से सोई न हो. वह पहले से काफी दुबली भी हो गई थी. छरहरी तो पहले से थी, लेकिन तब शरीर में कसाव और मादकता थी.

परंतु अब उस की त्वचा में रूखापन आ गया था, जैसे रेगिस्तान में कई सालों से वर्षा न हुई हो. निशांत को उस का यह रूप देख कर काफी दुख हुआ, परंतु वह उस के बारे में पूछने का साहस नहीं कर सकता था. उन के बीच बस पहचान के अलावा कोई बात नहीं थी. वह भले ही उसे प्यार करता था परंतु उस के भाव उस के मन में थे और मन में ही रह गए थे. क्या स्निग्धा को पता होगा कि वह कभी उसे प्यार करता था? शायद नहीं, वरना क्या वह दूसरे की हो जाती और वह भटकने के लिए अकेला रह जाता.

यह तो वही जानता था कि उस का प्यार अभी मरा नहीं था, वरना अच्छीभली नौकरी मिलने और घर वालों के दबाव के बावजूद वह शादी क्यों न करता? उसे स्निग्धा का इंतजार नहीं था, परंतु एकतरफा प्यार करने की जो चोट उस के दिल पर पड़ी थी उस से अभी तक वह उबर नहीं पाया था और आज स्निग्धा फिर उस के सामने बैठी थी. क्या सचमुच जीवन में…कह नहीं सकता. वह तो आज दोबारा मिली ही है. क्या पता यह मुलाकात क्षणिक हो. कल फिर वह वापस चली जाए. उस के जीवन में तो पहले से ही राघवेंद्र बैठा है. उस ने अपने दिल में एक कसक सी महसूस की.

‘हां, मैं यहां,’ वह बोली. स्निग्धा स्वयं भी निशांत के साथ अकेले में समय बिताने को व्याकुल थी, ‘पर क्या सारी बातें हम ट्रेन में ही करेंगे?’ वह बोली, ‘कहीं बैठ नहीं सकते?’

‘क्या इतनी फुरसत है आप के पास? मैं तो औफिस से छुट्टी कर लेता हूं.’

‘हां, अब मेरे पास फुरसत ही फुरसत है. बस, कुछ देर के लिए बाराखंबा रोड के एक औफिस में काम है. उस के बाद मैं तुम्हारी हूं,’ स्निग्धा के मुरझाए चेहरे पर एक चमक आ गई थी. उस की आंखों की चंचलता लौट आई थी. निशांत ने आश्चर्य से उस की तरफ देखा. उस की अंतिम बात का क्या अर्थ हो सकता था? क्या वह सचमुच उस की हो सकती थी?

दोनों ने आपस में सलाह की. निशांत ने अपने औफिस फोन कर के बता दिया कि तबीयत खराब होने के कारण वह आज औफिस नहीं आ सकता था. वह लोधी रोड स्थित सीजीओ कौंप्लैक्स के एक सरकारी दफ्तर में जूनियर औफिसर था.

स्निग्धा ने बताया कि उसे बाराखंभा रोड स्थित एक प्राइवेट औफिस में इंटरव्यू के लिए जाना था. दिल्ली आने के बाद वह एक सहेली के साथ पेइंगगेस्ट के रूप में पीतमपुरा में रहती थी. निशांत भी उसी तरफ रोहिणी में रहता था. कनाट प्लेस या सैंट्रल दिल्ली जाने के लिए उन दोनों का मैट्रो से एक ही रास्ता था, परंतु उन दोनों की मुलाकात आज पहली बार हुई थी.

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