Romantic Story : “अरु के पापा, डोरबैल बज रही है. जरा दरवाजा खोल दीजिए. अरु आई होगी. मैं उस की पसंद के प्याजी परांठे बना रही हूं ,” कह कर शोभा जल्दीजल्दी बेलन चलाने लगी.
आज सुबह ही मांबेटी में अनुराग को ले कर जबरदस्त नोकझोंक हुई थी और अरु बिना कुछ खाए ही निकल गई थी.
‘अपना मनपसंद परांठा देख कर सारा गुस्सा उड़नछू हो जाएगा उस का…’ शोभा मन ही मन सोच कर खुश हो रही थी. पति का कोई उत्तर न पा कर स्वयं ही चली आई दरवाजा खोलने.
‘छन्नाक…’ हाथ का छनौटा छूट कर दूर जा गिरा.
अरुंधति और अनुराग वरमाला पहने हुए दरवाजे पर खड़े थे. अरु के पापा मुंह फाड़े किंकर्तव्यविमूढ़ खड़े थे.
‘छनाक’ की आवाज से जैसे ही उन की तंद्रा भंग हुई, तो दहाड़ उठे, “इतनी हिम्मत कैसे हो गई तुम दोनों की? उस पर बेशर्मी यह कि मुंह उठाए घर चले आए.”
फिर अरुंधति को झिंझोड़ते हुए कहा, “तुम ने सोच भी कैसे लिया कि तुम सीधे शादी कर के आओगी और मैं तुम्हें अपना लूंगा… इस फटीचर अनुराग के लिए कोई जगह नहीं है मेरे घर में.”
“मैं ने कहा था न अनुराग कि इस घर में भावनाओं का कोई महत्व नहीं है. तुम्हें ही आशीर्वाद लेने का बहुत शौक था. अब और बेइज्जती सहन नहीं कर सकती मैं…” अनुराग का हाथ पकड़ कर लगभग घसीटती हुई अरुंधति तीर की भांति निकल गई.
शोभा जड़वत खड़ी ही रह गई. इतना बड़ा तूफान आ कर चला गया और वह कुछ कर नहीं पाई.
“अरु, हमारा प्रेम विवाह सफल तो होगा न…?” अनुराग ने कार में बैठते हुए अरुंधति का हाथ अपने हाथों में ले कर कहा.
“ऐसा क्यों कह रहे हो अनुराग? क्या तुम्हें मुझ पर भरोसा नहीं या अपनेआप पर?”
“क्यों न कहूं? तुम अमीर घराने में सारी सुखसुविधाओं में पलीबढ़ी मांबाप की एकलौती संतान हो और मैं बचपन से ही अभावों से घिरा आर्थिक चक्रव्यूह में फंसा किसी तरह पढ़ाई पूरी करने की कोशिश कर रहा हूं.”
“तो क्या हुआ…? प्यार में इतनी ताकत होती है कि असंभव चीज भी सरलता से प्राप्त हो जाती है, फिर तुम तो इतने प्रतिभाशाली हो कि तुम्हें आसानी से अच्छी नौकरी मिल जाएगी. अब हमें अपने जीवन को गंभीरता से लेना होगा. बहुत क्लासें बंक कर ली हम ने. अब हमें अपने प्यार को दुनिया के सामने साबित करना होगा. हमारा प्यार ही हमारा संबल बनेगा.”
दोनों अकसर मेहता सर का क्लास बंक कर के अपने दिल की बातें एकदूसरे से साझा करते रहे थे कालेज के मैदान में लगी बैंच पर बैठ कर. अब उन की परीक्षा यथार्थ की पथरीली जमीन पर होनी थी. वैसे भी अनुराग का ग्रेजुएशन पूरा हो चुका था.
अरुंधति कोलकाता के एक बड़े बिजनैसमैन की बेटी थी. उस की मां शोभा की साहित्य में काफी रुचि थी. बड़े नाजो से पाला था शोभा ने अपनी बेटी को, किंतु तितली सी उस की चंचलता को देख कर कभी मुग्ध होती तो कभी उस के भविष्य की चिंता में डूब जाती.
“मम्मा, आज मैं कालेज कैंटीन में ही कुछ खा लूंगी…”
“नाश्ता तो करती जा…”
“नहीं मम्मा, देर हो जाएगी… आज फर्स्ट पीरियड में ही मेरा प्रैक्टिकल है. इसे मिस नहीं करना चाहती. ओके, बाय…”
“अरे, रुक तो… अरु… एक ऐपल ही ले ले… ” शोभा बेटी के पीछे दौड़ती, इस से पहले ही अरुंधति स्कूटी स्टार्ट कर चुकी थी. अकसर सुबह का यही दृश्य होता.
अरु एकलौती संतान थी शोभा की और शोभा अपने सारे स्वप्न बेटी अरु के माध्यम से पूरे करना चाहती थी, जो परिस्थितिवश स्वयं से पूरे न कर पाई थी.
शोभा को साहित्य से बहुत लगाव था. उस ने लगभग सभी महिला साहित्यकारों को पढ़ा था. मन्नू भंडारी और अरुंधति राय उस की प्रिय साहित्यकारों में से थीं. उन की रचनाओं से प्रभावित हो स्वयं भी जबतब लेखनी चला लिया करती थी. वह अरुंधति राय की इतनी बड़ी फैन कि उन के उपन्यास ‘गौड औफ स्माल थिंग्स’ को ‘बुकर पुरस्कार’ मिलने पर सोच लिया था कि उस की बेटी होगी तो वह उस का नाम अरुंधति ही रखेगी.
अरुंधति हर क्षेत्र में अच्छी थी, परंतु मस्तमौला स्वभाव की थी. पहाड़ी नदियों की भांति बस बहती ही जाना चाहती… स्वच्छंद… उस का चित्त तो कभी स्थिर रहा ही नहीं. यह स्वभाव स्वयं उसे भी कभीकभी असमंजस में डाल देता था.
मम्मीपापा की तरफ से पूरी आजादी थी कि वह जिस भी क्षेत्र में कैरियर बनाना चाहे, वे उसे हमेशा सपोर्ट करेंगे. परंतु अरुंधति ठहरी चंचला… कभी विज्ञान अच्छा लगता, तो कभी अभिनय. कभी पाककला सीखने की कोशिश करती, पर मन ऊबने पर खेल का मैदान दिखाई देता. वह कबड्डी बहुत अच्छा खेलती थी. मम्मीपापा के समझाने पर उस ने विज्ञान विषय ले कर कालेज में एडमिशन ले लिया था.
शोभा जानती थी कि अरु जन्मजात प्रतिभा संपन्न है और जिस क्षेत्र का भी चुनाव करेगी, उस में अच्छा ही करेगी, परंतु अरुंधति की किस्मत तो कुछ और ही थी, जिस की कल्पना शोभा ने कभी नहीं की थी.
कालेज में एक लड़का था अनुराग, जो अरुंधति से 2 साल सीनियर था. उस का धीरगंभीर स्वभाव अरु के मन को भा गया.
स्कूल के अनुशासित जीवन से निकलने के बाद कालेज का उन्मुक्त बिंदास जीवन… यौवन की गलियों में पहला कदम… हर किसी को एक सतरंगी दुनिया में ले जाता है, जहां वह किसी का हस्तक्षेप पसंद नहीं करता.
अरुंधति ने अब तक का अपना जीवन अपनी शर्तों पर जीया था. उसे पूरा विश्वास था कि उस की पसंद पर मम्मीपापा को कोई एतराज नहीं होगा, परंतु जब उस ने उस लड़के से शादी करने की इच्छा जताई, तो पापा एकदम से भड़क उठे, “आजादी देने का यह मतलब नहीं कि तुम मनमानी करो…”
पापा की आपत्ति से हतप्रभ रह गई थी वह. उसे लगा कि यह आजादी देना महज एक दिखावा है. पापा को अपने स्टेटस की पड़ी है. अनुराग हमारे स्तर से थोड़ा उन्नीस जो बैठता है.
यह विचार दिमाग में आते ही अरुंधति विद्रोहिणी बन बैठी. 12वीं पास करने तक वह चुप रही. जैसे ही 18 की उम्र पार हुई, मम्मीपापा की मरजी के खिलाफ अनुराग से कोर्ट मैरिज कर ली.
अरुंधति की मम्मी पर तो मानो वज्रपात ही हो गया था. कितने सपने संजोए थे बेटी के भविष्य के लिए. लाखों में एक दामाद ढूंढ़ के लाएगी, परंतु उस ने आवेश में आ कर इतना बड़ा कदम उठा लिया.
दरअसल, यह उम्र ही ऐसी होती है, जहां ख्वाबों की दुनिया हकीकत पर भारी पड़ने लग जाती है. यदि सावधानी और धैर्य से काम न लिया जाए, तो मामला नाजुक हो उठता है और फिर रिश्तों की जमीन में दरारें पड़ जाती हैं.
अरुंधति के पापा अपनी जातिगत कट्टरता के साथसाथ अपनी सामाजिक साख को ले कर कुछ ज्यादा ही सजग थे. अरुंधति द्वारा चुना गया लड़का न केवल दूसरी जाति का था, वरन उस की आर्थिक स्थिति भी डांवांडोल थी. अनुराग के पिता कोलकाता में ही किसी फैक्टरी में मजदूर थे, किंतु फैक्टरी में अधिक उम्र के मजदूरों की छंटनी के शिकार हो नौकरी से हटा दिए गए थे.
4 भाईबहन और वृद्ध मातापिता. बड़ा बेटा होने के नाते परिवार की जिम्मेदारी उसी के कंधों पर थी. हालांकि वह पढ़ने में अव्वल था, परंतु आर्थिक पहिया दलदल में धंसे होने के कारण ग्रेजुएशन के बाद जो भी नौकरी मिली, उस ने तत्काल स्वीकार कर लिया. फिर तो जीवन की गाड़ी खींचने में ही उस की प्रतिभा जाया होने लगी. फिर भी उस ने छोटे भाईबहनों की पढ़ाई पर कोई आंच नहीं आने दी.
अरुंधति ने अनुराग से शादी तो कर ली, परंतु उस की ग्रेजुएशन पूरी नहीं हो पाई. इस वजह से उसे कहीं ढंग की नौकरी भी नहीं मिल सकती थी. दूसरे ज्वाइंट फैमिली के कारण आएदिन किसी न किसी बात पर पैसों को ले कर घर में क्लेश बना ही रहता था.
बड़े ही संघर्ष के दिन थे अरुंधति के, किंतु अनुराग के प्रेमिल व्यवहार एवं उस की पारिवारिक मजबूरी ने उसे अपने नेह की डोर में बांध रखा था. अनुराग अरुंधति को इस हाल में देख कर दुखी हो अकसर कह उठता, “मुझ से प्यार कर के कैसी हालत हो गई है तुम्हारी…”
जबतब चांदनी रातों में अनुराग अरुंधति को फूलों से सजाता तो अरु स्वयं को दुनिया की सब से अमीर लड़की मानती. उन फूलों के आभूषण के सामने हीरे के आभूषण भी फीके लगते उसे.
अनुराग के अपराधबोध से ग्रसित चेहरे को देख वह मीठी झिड़की भी देती, “मैं मानती हूं कि मैं भी एक इनसान हूं और परिस्थितियों का प्रभाव तो मुझ पर भी पड़ेगा ही, पर तुम क्या समझते हो, मैं परेशान हो कर मम्मी के घर चली जाऊंगी? ऐसा हरगिज नहीं हो सकता. जीवनभर का साथ है हमारा. जीवन का क्या है… आज दुख है तो कल सुख भी होगा.”
इन बातों से अनुराग निरुत्तर हो उठता और परिस्थितियां संभालने के लिए अपने प्रयास तेज कर देता.
अरुंधति के पापा को उस स्थिति का अनुमान था. जैसा कि आमतौर पर होता है कि अमीर घराने की लड़कियां भावनाओं में बह कर ऐसा कदम तो उठा लेती हैं, किंतु यथार्थ के कठोर धरातल का स्पर्श होते ही भावनाएं कपूर की भांति उड़ जाती हैं. अरुंधति के पिता ऐसे ही किसी दिन की प्रतीक्षा कर रहे थे. उन्होंने अपने वकील से मिल कर बेटी के तलाक से संबंधित बातचीत भी कर ली थी. बस, जिस दिन बेटी ससुराल से तंग हो कर मायके आएगी, उस के अगले दिन ही कोर्ट में तलाक की अर्जी दिलवा देंगे. वे शोभा को बराबर सांत्वना देते रहे, “शोभा क्यों रोरो कर इतनी हलकान हो रही हो? हमारी बेटी ज्यादा दिनों तक नहीं टिक पाएगी वहां? तुम तो उस का स्वभाव जानती ही हो. एक जगह टिक कर रह पाई है कभी.”
“वो तो ठीक है जी, पर अपनी ममता का क्या करूं? हम यहां ऐशोआराम की जिंदगी जी रहे हैं और वहां वह छोटेछोटे सुख के लिए भी तरस रही होगी. एक मां का दिल कैसे माने…” कहते हुए शोभा की तड़प और बढ़ गई.
“तुम क्या समझती हो, मुझे तकलीफ नहीं हो रही? कोई भी इनसान किस के लिए कमाता है. कड़ी मेहनत कर चार पैसे इकट्ठा करता है तो किस के लिए? अपनी संतान के लिए ही न? ”
“नहीं, तुम अपनी संतान के लिए कुछ नहीं सोचते. जल्लाद का दिल है तुम्हारा… नहीं तो कुछ करते? एकएक दिन पहाड़ के समान लग रहा है मेरे लिए,” शोभा अपना आक्रोश नहीं दबा पाई.
” देखो, यदि स्वाभाविक तौर पर ही कोई काम हो जाए तो फिर उस के लिए अपनी टांग क्यों अड़ाएं? तुम बस यह समझो कि हमारी अरु उच्च शिक्षा के लिए विदेश गई है. पूरी होते ही वह लौट आएगी. साल दो साल नियंत्रण में रखो अपनी ममता को. फिर, सब ठीक हो जाएगा.”
अरुंधति के पिता का अनुमान गलत सिद्ध हुआ, किंतु अनुराग को परखने में अरुंधति से कोई भूल नहीं हुई. शादी के बाद लड़कियां कितनी जिम्मेदार हो जाती हैं, अरुंधति उस की एक उत्कृष्ट उदाहरण थी. उस ने अपने पति की सच्ची सहधर्मिणी बनने का फर्ज निभाया. हालांकि कभीकभी झल्ला भी उठती थी. मानवसुलभ अपनी कमजोरियों को दूर करने का प्रयास करते हुए अनुराग और उस के परिवार को संभालने की कोशिश करती रही.
शोभा किसी न किसी बहाने बिटिया की खबर लेती रहती. फोन करने पर अरुंधति कभीकभार ही रिप्लाई करती. स्वयं कितनी भी तकलीफ में रही, पर मां को इस की भनक भी न लगने दी. कभी किसी चीज का रोना नहीं रोया. शोभा समझ ही नहीं पा रही थी कि जो उस के महल्ले से अनुराग की आर्थिक बदहाली की जानकारी मिली, वो सही है या बेटी के साथ वार्तालाप में मिली संतुष्टि की महक वास्तविक है. ममता के मोह में अंधी हो कर बारबार कुरेदती रहती… तरहतरह की सुखसुविधाओं का लालच देती. शोभा की मंशा सिर्फ यही थी कि उस की बेटी को अभावों में न जीना पड़े.
अरुंधति को बहुत बुरा लग रहा था कि जहां मांबाप को अपने बच्चों को परिस्थितियों से जूझने, संघर्ष करने और धैर्य से उस का सामना करने की सीख देनी चाहिए, वहीं उस के मातापिता मैदान छोड़ कर भागने की बात कर रहे हैं, कायरों की तरह पीठ दिखाने की बात कर रहे हैं. इस सोच की प्रतिक्रियास्वरूप उस का मन विद्रोह कर उठा. विद्रोही तो थी ही. मन में उस ने एक संकल्प लिया, जिस ने उसे इतनी हिम्मत दी कि उस ने ठान लिया कि चाहे जो हो जाए, वह अनुराग का साथ नहीं छोड़ेगी. उस की कुछ जिम्मेदारियां अपने ऊपर ले ली. 10वीं कक्षा के स्तर तक विज्ञान विषय पर उस की अच्छी पकड़ थी. उस ने प्राइवेट ट्यूशन लेना शुरू किया. धीरेधीरे छात्रों की संख्या इतनी बढ़ गई कि उसे ट्यूशन 2 शिफ्टों में करना पड़ा. अच्छाखासा पैसा मिलने लगा, तो उस ने अनुराग को किसी अच्छे संस्थान से एमबीए कर लेने की सलाह दी.
अनुराग मेधावी तो था ही, स्कौलरशिप मिलने की भी पूरी संभावना थी. अनुराग को अरु की सलाह अच्छी लगी.
अनुराग की मेहनत और अरुंधति का संकल्प एक नई खुशी ले कर आया. एमबीए करने के बाद अपनी प्रतिभा के बल पर वह एक ख्यातिप्राप्त कंपनी का बड़ा अफसर बन गया.
अरुंधति मिठाई का डब्बा ले कर अपने पति अनुराग के साथ जब अपने मायके गई, तो उस के पापा अपने दामाद को देख कर फूले नहीं समाए और उस की मम्मी बड़े स्नेह से अपनी बेटी का मुखड़ा निहार रही थी, जो आत्मविश्वास की आभा से दमक रहा था.