सुरभि गौरव से मिलते ही बोली, "अरे, तुम कुछ सोचते क्यों नहीं? मेरे मम्मीपापा हर दिन एक लड़के का बायोडाटा भेज रहे हैं और मिलने को कह रहे हैं. बताओ, मैं क्या करूं?"

"मैं क्या करूं? तुम तो जानती हो कि मेरे यहां दादाजी की रजामंदी के बिना कुछ नहीं हो सकता. तुम क्यों नहीं अपने मम्मीपापा को कहती हो कि वे जा कर बात करें?"

"हां, अब लगता है कि यही करना होगा."

हिम्मत कर के रात में सुरभि ने फोन पर अपनी मम्मी से कहा, "मम्मी, तुम लोग लड़का देखना छोड़ दो. गौरव को तो तुम जानती हो. एक बार तुम बेंगलुरु आई थी, तो उस से मिली थी. हम लोग शादी करना चाहते हैं."

"क्या...? तुम्हारे साथ तो कितने पढ़ने वालों से मैं मिली हूं... मुझे याद नहीं."

"ठीक है, पहले पापा के कान में डाल दो. अभी गौरव का फोटो डाल दूंगी. बहुत तेज और अच्छा लड़का है. मेरी कंपनी में ही डाटा एनलिस्ट है."

"देखती हूं," कह कर सुरभि की मम्मी सरिता सोने गई, लेकिन चिंता से उस की नींद काफूर हो गई.

दूसरे दिन सरिता ने अपने पति संजीव को जब सुरभि की बात बताई तो घर में कोहराम मच गया. संजीव उस पर ही दोषारोपण करने लगा, "तुम ने ही उसे बहुत छूट दे दी है. अरे, उसे इंजीनियरिंग पढ़ने के लिए भेजा था कि प्रेम करने के लिए. पता नहीं, कौन सी जाति है, कैसा परिवार है?"

"अब आजकल जाति क्या देखना है... जब लड़की और लड़का एकदूसरे को पसंद कर रहे हैं, तो हम क्या कर सकते हैं? वैसे भी आजकल शादीब्याह तय करना भी आसान नहीं रहा. शादी हो जाए तो निभाना आसान नहीं," अपनी आदत के अनुसार सरिता ने जोड़ दिया, "अब हमारा जमाना तो रहा नहीं. बिना हमारे मिले, देखे, सुने, बड़ों की मरजी से शादी हुई और चल रही है."

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