बेटी तो नाजों से पाली जाती है, लेकिन हमारी बेटी के नाजनखरे कुछ अधिक ही थे. इन नाजनखरों से उस ने हमारी नाक में दम कर रखा था, इसलिए जब वह छात्रावास चली गई तो मैं ने चैन की सांस ली. लेकिन जबजब वह छुट्टियों में घर आ जाती तो रहीसही कसर पूरी कर लेती.

इस बार उस ने रसोई में कुछ अधिक ध्यान देने की ठानी. बोली, ‘‘मां, इस बार सांस्कृतिक कार्यक्रमों के अंतर्गत हम लंदन जाएंगे. मुझे भारतीय खाना बनाना पड़ेगा. मुझे कुछ सिखाओ. कुछ ऐसे व्यंजन बनाना सिखाओ कि लंदन में बसी मेरी सहेलियां खुश हो जाएं.’’

यह सुनते ही मेरा बेटा चहक उठा, ‘‘अब तो मजा आएगा. आप खाना बनाओ. नएनए व्यंजन बनाओ, मैं चख कर बताऊंगा कि ठीक बने हैं या नहीं.’’

लेकिन 1-2 दिन में उस का यह उत्साह भी ठंडा पड़ गया. बने व्यंजन चखने तो क्या वह उन्हें देखने को भी तैयार न होता.

अब तो रसोई की तमाम चीजों से बेटी का परिचय कराना जरूरी हो गया. नमक की जगह मीठा सोडा, फिटकरी की जगह मिश्री की डली का प्रयोग बेटी बिना किसी संकोच के बड़े इत्मीनान से कर देती थी. दालों की भूलभुलैया की वजह से सभी दालों का मिश्रण पकता. कभी उड़द की जगह मूंग की दाल दहीभल्लों के लिए भिगोई जाती. वैसे जीरा और सौंफ का फर्क वह जल्दी ही समझ गई. बस, 1-2 दाने मुंह में डाल कर स्वाद चख लेती थी.

एक दिन पुलाव के चावलों का और डोसे बनाने के लिए रखे कच्चे चावलों का दलबदल हो गया, बनने को तो दोनों व्यंजन बन गए मगर उन्हें स्वादिष्ठ कहना इस शब्द का अपमान होगा. बेटी खीजती हुई बोली, ‘‘पता नहीं रसोई में इतनी सारी चीजें क्यों रखती हो?’’ परिणामस्वरूप हर डब्बे पर नाम तथा उपयोग की पर्चियां चिपकाई गईं.

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