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लेखक-मनोज शर्मा 

अच्छा! पुलिस का दूसरा कर्मी आश्चर्य से देखता

उसकी बात सुनता रहा.जीप स्टार्ट हुई और सिगनल की तरफ दौड़ गयी.

सब सहकर्मी जो मेरे साथ सड़क पर आगे बढ़ रहे थे चेहरों पर कौतुहलता और चिंता आने लगी.

सड़क के दोनों और लंबी बिल्डिंगों की लाइट्स अब बुझने लगी थी.युकोलिपट्स के लंबे पेड तेज समीर से झूम रहे थे.सुलेखा बैंगनी साड़ी पहने तेज कदमों से मेरी ओर आई उसके चेहरे पर उदासीनता थी वो आगे बढ़कर मुझसे पूछने लगी!भैया ये लाॅक डाऊन क्या होता है! सुना है हर तरफ लाॅकडाऊन होगा!मेरे सहकर्मी मुझे देखकर हंसने लगे औह हो पक्की दोस्ती!

वो लोग बोलते रहे पर मेरे कदम आगे की ओर बढ़ते ही जा रहे थे पर फिर भी मैं दो पल के लिए रूका सुलेखा मेरे मुख से जवाब चाहती थी भैया!

बताओ ना !सब बोल रे हैं लाॅक डाऊन !लाॅकडाऊन मतलब !

एक बड़ी सफेद गाड़ी दोनों के करीब से गुजरी पर सामने लाल सिगनल देखकर वो हल्के हल्के घिसटकर बढ़ने लगी.रोड़ के दूसरी तरफ एक बाईक का हार्न पूरी सड़क पर गूंज गया.हमारे सामने एक ऑटो रूका जिसमें पीछे बैठे व्यक्ति

ने सिगरेट सुलगाई और धूएं को हवा में उड़ेलते हुए उसने पतलून की जेब से नोट निकाला और सुलेखा को बुलाकर कहा !हूं हैलो डियर ये लो!

सुलेखा उस आदमी की ओर मुस्कुराते हुए बढ़ गयी उसने एक नोट को चूमते हुए उसे देने के लिए हाथ बढ़ाया पर जैसे ही सुलेखा ने नोट पकड़ा उस आदमी से उसकी कलाई पकड़नी चाही!अरी सुनो तो!दांत भींचते हुए होठों को फैलाते हुए भोंडी सी हंसी लिए वो सुलेखा को घूरता रहा पर सुलेखा साड़ी के पल्लू को समेटते आगे बढ़ने लगी.

मैं जब तक लाॅकडाऊन का मतलब समझाता वो सड़क के दूसरे छोर पर पहुंच गयी थी मुझे लगा था कि वो सिगनल बदलते ही लौटेगी पर वो दूसरे किन्नरों संग व्यस्त होती गयी.मैंने सुलेखा को बुलाना चाहा मेरी आंखे हर ओर उसे ही ढूंढ

रही थी पर सुलेखा गाड़ियों की भीड़ और पैसे की चाह में मुझसे मिलना भूल गयी.

शैलेश ने मुझे पुकारा! अरे यार तुम्हें चलना नहीं क्या ?

मैंने उसकी बाते सुनकर कोई जवाब नहीं दिया और बढ़ती गाड़ियों को देखता रहा.मुझे फिर पुकारा गया चलोगे! या हम चले?

सहसा मैंने शैलेश को देखा वो मेरे इंतज़ार में आगे बढ़कर खड़ा हो गया था और मेरी राह देख रहा था उसकी आंखे बड़ी थी तथा चेहरे पर रोष था हमारी जैसे ही आंखे मिली उसने फिर इशारे से मुझे आगे बढ़ने को कहा.सड़क पर तेज शोर था मोती के फूलों की गंध अभी भी हर तरफ से आ रही थी.

मैं शैलेश के साथ आगे बढ़ने लगा मेरा सड़क की ओर मुड़ता चेहरा बार बार दौड़ते वाहनों में सुलेखा को खोज रहा था.किन्नरों की टोली गाड़ियों के सामने तालियां बजाती लपक रही थी.फब्तियां और तंज कई राहगीरों के मुख पर चढ़े थे पर किन्नरों की टोली सिद्धहस्त कलाकारों की भांति अपने काज में संलग्न थी पर इस भीड़ में कहीं सुलेखा नहीं दिखाई दी.हम लोग करीब घंटे

में अपने अपने घर पहुंच गये शायद सुलेखा और दूसरे किन्नर भी.

सरकारी आदेश पारित हुआ हर जगह लाॅक डाऊन!एक बार जैसे ज़िन्दगी ही थम गयी हो.यानि घरबंदी!सारे रास्ते बंद!कोई सड़क पर नहीं पहुंच सकता यहां तक कि घर से ही नहीं निकल सकता!तो फिर सिगनल!

मन कोंधा

सुलेखा कैसी होगी!

और वो किन्नर टोली!

सारी दिल्ली के किन्नर!

सारे भारत के किन्नर!

उनके खाने पीने रहन सहन के बारे में सोचकर दिल थम गया जैसे सारी इन्द्रियां सुलेखा को ही

तांक रही हो.आज कितने ही दिन हो चुके हैं सब घर में बैठे हैं पर रोज़ पैसा इकट्ठा करने वाले लोग कैसे जी रहे होंगे और सुलेखा या वो किन्नर टोली कैसे•• क्यींकि उन लोगों को देखकर तो वैसे ही सब उन्हें उपेक्षा भरी नज़रों से देखते हैं.सड़के खाली हैं खुले आसमां की भांति हर आदमी इन दिनों अपनी ज़िन्दगी से ऊब रहा है.बालकाॅनी की तरफ जाकर देखा तो पाया सड़क खाली है कोई इक्का दुक्का लोग ही सड़क पर घंटो तक देखने के बाद दिखाई देता है.

शाम को अलमारी खोली सामने दराज में एक मुड़ा हुआ काग़ज़ मिला सोचा खोलकर देखू.काग़ज़ के कोने पर संगम नर्सिंग होम था नीचे कुछ दवाइयों के नाम लिखे थे.दवाइयों के नाम पढ़ते पढ़ते याद आया पिछले महीने जब गुरनाम को ऑफिस से ले जाकर नर्सिंग होम में एड़मिट किया था क्योंकि उसदिन उसकी तबीयत ज़्यादा ही ख़राब हो गयी थी तभी ये काग़ज़ मेरे साथ आ गया था.सामने टेबल पर रखे फोन से गुरनाम का फोन लगाया दो तीन बैल बजते ही गुरनाम की बीबी ने फोन उठाया! हैलो हां गुड़ इवनिंग हूं यहीं

हैं एक मिनट!

कहो गुरनाम अब कैसे हो?

सब ठीक है अब?

हां मैं भी ठीक हूं!

और बच्चे?

हां सब बच्चे ठीक ठाक हैं !

हां एग्ज़ाम तो हो गये थे !

नहीं साइंस है ना !

भाई बारहवी में हैं ना!

हूं हां हां!

चलो ओके! टेक केयर !

बाय!

फोन रखते ही मुंह पर मास्क लगाकर दवाई की पर्चा जेब में डालकर बाईक उठाकर रोड़ पर चल पड़ा.सोचा कोई न मिले तो बाराखंभा के सिगनल

तक हो आऊं.घर से एक ढेड़ किलोमीटर ही बढ़ा था पुलिस कर्मियों ने मुझे रोकने के हाथ बढ़ाया

तेज स्पीड़ से चलते पहिये वहीं थम गये.हेलमेट बिना उतारे पुलिसकर्मी ने बाहर निकलने का सबब पूछा.मैं सहम सा गया पर जेब से वो पर्चा निकालकर उसमें लिखी दबाई पर अंगुली रखकर बताया कि ये बहुत ज़रूरी है.वहां से निकलने से पहले ही मैंने पुलिस कर्मी को धन्यवाद दिया.

दो एक सिगनल आये पर इस काग़ज़ के सहारे मैं बाराखंभा के सिगनल तक पहुंच गया.शाम तेजी से रात की ओर बढ़ रही थी पर खाली सड़कों पर आज बहुत कम ट्रैफिक था.इस सड़क पर ऐसा सूनापन शायद मैंने पिछले दस बारह सालों में कभी नहीं देखा था.सड़क का हर कोना खाली था गहरा सूनापन बिल्कुल शून्य की तरह.

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