लेखक-मनोज शर्मा 

करीब पांच मिनट तक ऐंबुलैंस या सरकारी गाड़ियों के अलावा वहां से कोई नहीं निकला.आज सड़क साफ थी शायद वैसी ही थी जैसी उस रोज़ जब सुलेखा को यहां अंतिम मर्तवा देखा था.पर आज यहां कोई नहीं ना सुलेखा और ना वो किन्नर की टोली और न वो मोती के फूलों की गंध जो सबको लुभाती थी.

पुलिस कर्मी ने मेरे पास आकर कहा यहां कैसे?

मैंने पुनः जेब में पढ़ा काग़ज़ दिखा दिया.पुलिस ने अपने हाथ में थामे डंडे से बाईक पर सामने की ओर चोट करते हुए जल्दी ही वहां से निकलने को कहा.

सुलेखा आदि को न पाकर मैं हताश था एक अजीब निराशा जो अकेलेपन में मैंने महसूस की थी.मेरी आंखे दूर तक खाली सड़की पर उस टोली को तलाशती रही पर वहां कुछ भी नहीं था.

गहरी चुप्पी और बीच बीच में गाड़ी का हार्न और शायद कुछ नहीं.खाली सड़को पर बाईक दौड़ती रही सफेद पीली लाईट में पेड़ चमक रहे थे एक बड़ी गाड़ी तेज आवाज करती पास से निकल गयी.तेज हार्न सारे सन्नाटे को परास्त कर रहा था पर लाईट के डिप्पर से वो शांत होता चला गया.नम आंखे कुछ ज़रूरी सेवाओं से लौटते लोगों को देखती रही.अस्पताल के सामने खड़ी भीड़ के पीछे पुलिसकर्मी दूर से ही चलते जाने का निर्देश दे रहे थे.पास ही मास्क लपेटे एक मरीज को कुछ लोग थामे अंदर जाने की जुगत लगा रहे हैं.सारा शहर जैसे आततायी चक्र के भय में जी रहा हो.भय पैर पसारे हर गली हर मोड़ पर जैसे दुबका हो.

पहले एक दिन बीता फिर दो तीन चार इक्कीस और फिर जब डेढ़ महीने बाद जब लाॅकडाऊन खुला ऐसा लगा सब कुछ बदल गया हो सारी दुनिया ही बदली बदली लगी डरी डरी-सी सहमी.

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