हमारे गांव के पंडित गिरधारी लाल के पास एक मोटी-ताजी दुधारू गाय थी. बिल्कुल झक सफेद रंग, चमकती काया, ऊंचा कद, खूबसूरत सींघें. देखते ही मन रीझ जाता था उस पर. पंडित जी को यह गाय किसी ने दान में दी थी. वे बड़ा प्यार करते थे उससे. सुबह जल्दी उठ कर अपने हाथों से सानी-पानी देते, नहलाते-धुलाते और उसकी रस्सी थामें चराने ले जाते. उस गाय के कारण घर में दूध, घी, दही की कमी नहीं होती थी. खालिस दूध-घी खा-खा कर पंडित जी भी मोटे तगड़े होते जा रहे थे. एक शाम की बात है, पंडित गिरधारी लाल जैसे ही दूध दुहने गोशाला पहुंचे तो गाय वहां से गायब मिली. खूंटा भी उखड़ा हुआ था. पंडित जी की तो जान सूख गयी. उन्होंने सोचा कि हो न हो गाय कहीं निकल भागी है. वह फौरन उसे ढूंढ़ने निकल पड़े.

शाम का धुंधलका पसर चुका था. थोड़ी दूर पर उन्हें गाय चरती नजर आयी. वह खुश हो गये. लेकिन सांझ के झुरमुट में यह नहीं जान पाए कि जिसे वह अपनी गाय समझ रहे हैं, वह पड़ोसी का मरखना बैल है. उन्होंने लपककर ज्यों ही उसके गले से लटकती रस्सी थामी कि बैल भड़क उठा. जब तक पंडित जी को बात समझ में आती, देर हो चुकी थी. बैल ने हुंकारते हुए गर्दन घुमायी और पंडित जी को मारने दौड़ा. थुलथुल शरीर वाले पंडित गिरधारी लाल भाग खड़े हुए. बैल पीछे लग लिया. पंडित जी गिरते-पड़ते, हांफते-कांपते भागते जा रहे थे. भागते-भागते उनका दम निकला जा रहा था और बदमाश बैल था कि हार मानने को तैयार ही नहीं था. दौड़ाए जा रहा था. आखिरकार एक बड़ा गड्ढा देखकर पंडित जी उसमें धप से कूद गये. बैल फिर भी न माना. वहीं गड्ढे के आसपास फुंफारता घूमता रहा. पंडित जी बड़ी देर तक गड्ढे के गंदे पानी में बैठे रहे. कुछ देर बाद लगा कि बैल थोड़ा किनारे हुआ है तो गड्ढे से निकले और घर की ओर भागे. मगर नामुराद बैल फिर पीछे लग लिया. पंडित जी को कुछ न सूझा तो रामखिलावन के भूसे की कोठरी में घुस गये.

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