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सरिता का ससुराल स्टेशन के पास ही रमेश नगर में  है. कुल आधे घंटे का रास्ता है यहां से. पर पता नहीं  क्यों वह कल बूआ के घर भी नहीं आई थी. आज आई है जब समय ही नहीं बचा है बैठ कर दो बातें करने का. सरिता आई तो जैसे उस की रुकी हुई सांसें भी चलने लगी थीं. बचपन में उस का मायका तथा ससुराल दोनों परिवार एक ही महल्ले में रहते थे. दोनों साथसाथ पढ़ती थीं एक ही कक्षा में. पक्की सहेलियां थीं दोनों. सूखे कुएं के पीछे, बुढि़या के घर से अमरूद तोड़ कर चुराने हों या पेटदर्द का बहाना कर स्कूल से छुट्टी मारनी हो, दोनों हमेशा साथ होती थीं. 7वीं-8वीं तक आतेआते तो इन दोनों की कारगुजारियां जासूसी एवं रूमानी उपन्यास पढ़ने तथा कभीकभार मौका पाते ही सपना टाकिज में छिप कर पिक्चर देख आने तक बढ़ गई थीं. क्या मजाल कि दोनों के बीच की बात की तीसरे को भनक तक लग जाए. उस के बाद साथ छूट गया था. सरिता के पिता का तबादला हो गया था. बाद में जब किसी बिचौलिए की सहायता से सरिता का रिश्ता नीलाभ के लिए आया तो सब ने स्वीकृति की मुहर इसीलिए लगाई थी कि कभी दोनों परिवार एकदूसरे के साथ, एक ही महल्ले में रहते थे. जानते हैं एकदूसरे को.

दूसरी ओर वह थी कि डाक्टर पति पाने से भी अधिक प्रसन्नता उसे सरिता को ननद के रूप में पाने की हुई थी. आज तक बदला नहीं है वह रिश्ता. यह बात छिपी तो नहीं किसी से फिर भी जिज्जी ने उस पर दबाव बढ़ाने के लिए सरिता को बुला भेजा था. उन्हें शायद लगा था कि इस विषय में सरिता अपनी सखी का नहीं बल्कि मां तथा जिज्जी का ही साथ देगी. आखिर उसे भी तो कुछ नहीं बताया गया था. वह धोखे में ही थी. आते ही सरिता उस के गले लग गई थी. 3 दिनों में पहली बार आंखें छलक आई थीं उस की. आंसू भी शायद तभी बहते हैं जब कोई पोंछने वाला हो सामने. उस ने इतना बड़ा सच छिपाया था सरिता से भी. पर उसे जरा भी बुरा नहीं लगा था. उस ने तो अहमियत ही न दी थी इस बात को. जिस बात को जानने का कोई कारण ही न हो, उसे न भी बताया जाए तो क्या हर्ज है. सब को सुना कर कहा था सरिता ने, ‘वे सब बड़े  हैं तो क्या दूसरों को सिर झुका कर उन की हर जायजनाजायज बात माननी पड़ेगी?’

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