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मिस्टर जौनसन कुछ समय तक सोचते रहे तो शुभ्रा घबरा कर बोली, ‘‘अंकल, यदि यह आप के लिए तकलीफदेह है तो छोडि़ए. मैं कोई और इंतजाम कर लूंगी और…’’

मिस्टर जौनसन बीच में ही हंस कर बोले, ‘‘नहींनहीं, मेरी बच्ची, मैं तो तुम्हारे और तुम्हारे पति के बारे में सोच रहा था. मेरी चिंता मत करो.’’

शुभ्रा बोली, ‘‘मैं उन के घर आने से पहले जाना चाहती हूं.’’

‘‘जैसी तुम्हारी इच्छा,’’ कह कर वे उठ बैठे.

शुभ्रा कार में बैठी, चलती कार से दूर तक शून्य आंखों से उस बिल्ंिडग को ताकती रही जो चंद दिनों के लिए उस की नीड़ बनी थी, जिस में उस ने घर बनाने के सपने देखे थे और अब वह बिल्ंिडग, वह नीड़, वह घर अंधकार में दीपक की लौ की तरह धीरेधीरे आंखों से ओझल हो गई. सपने कांच की तरह टूट गए व उन की किरचें अंदर ही अंदर धंसती चली गईं.

रास्ते में मिस्टर जौनसन शुभ्रा का ध्यान बंटाने की कोशिश करते रहे. गुजरते हुए शहरों के बारे में बताते रहे. नवंबरकी शुरुआत हो रही थी. दोपहर के ढलते सूरज से हवा में ठंड का एहसास होने लगा था. कार का हीटर औन करते हुए सड़क के दोनों ओर आए मेपल पेड़ के झुंडों की ओर उन्होंने शुभ्रा का ध्यान आकर्षित कराया. वे जानकारी देते हुए बोले, ‘‘मेपल पेड़ कनाडा का विशेष पेड़ है. यह बसंत के मौसम में मीठा सिरप व गर्मी के दिनों में ठंडी छाया देता है. वहीं, पतझड़ के मौसम में इस की हरीहरी पत्तियां लाल सुर्ख हो जाती हैं और उस के बाद झड़ने से पहले सुनहरी. यह खूबसूरत दर्शनीय पेड़ है.’’

शुभ्रा जौनसन की बातों पर ठीक से ध्यान नहीं दे पा रही थी. प्रकृति की मोहकता उसे बांध नहीं पा रही थी. सड़क की सपाटता उसे अपने भविष्य की सपाटता से डरा रही थी. कोलतार से भरी सड़क के बीच की दरारें ऐसे दिखाई दे रही थीं जैसे कालेकाले सांप दूरदूर तक तड़पतड़प कर सड़क पर रेंगते हुए लोट रहे हों. कभी पहिया उन्हें कुचलते हुए निकल जाता और कभी उस की कार का पहिया कुछ दूरी से उन से बच कर निकलता.

निशि और अखिलेश औफिस से वापस आ कर कार से उतर ही रहे थे कि अनजानी कार अपने ड्राइव वे में मुड़ते देख वहीं खड़े हो गए. जब शुभ्रा को कार से उतरते देखा तो निशि लपक कर उस से मिलने गई, पर शुभ्रा का चेहरा व अनजाने कनेडियन व्यक्ति को कार से उतरते देख ठिठक गई, सहम कर बोली, ‘‘नितिन तो ठीक है न?’’

शुभ्रा के हां में सिर हिलाने और मिस्टर जौनसन को कार से अटैची निकालते देख निशि ने आगे कुछ नहीं पूछा और उन्हें अंदर आने को कहा. मिस्टर जौनसन ने बाहर से ही वापस जाने की अनुमति मांगी तो अखिलेश और निशि ने उन्हें बिना चाय पिए वापस नहीं जाने दिया.

चाय के साथसाथ बातों का सिलसिला चल पड़ा. चाय के घूंट बातों की ही तरह हलक से उतरने में परेशानी दे रहे थे. अंत में जाते समय जौनसन शुभ्रा के सिर पर स्नेह से भरा हाथ रखते हुए बोले, ‘‘बेटी, संपर्क बनाए रखना. यदि कभी भी मैं तुम्हारे लिए कुछ कर सकूं तो मुझे फोन करने में न हिचकिचाना.’’

शुभ्रा ने दर्दभरी पनियाली आंखों से मुसकरा कर उन का शुक्रिया कर उन्हें विदा किया.

वातावरण गंभीर हो उठा था. निशि ने सन्नाटे को तोड़ते हुए कहा, ‘‘शुभ्रा, तुम ने ठीक ही किया. गलती होने पर भी औरत पर हाथ उठाना नीचता है, पर वह तो अपनी गलती की सजा भी तुझे दे रहा है.’’

अखिलेश बीच ही में बोल पड़ा, ‘‘मुझे तो समझ नहीं आता कि यदि रूपा से उस का संबंध था तो उसे शुभ्रा से शादी करने की जरूरत ही क्या थी?’’ और सोफे से उठते हुए बोला, ‘‘खैर, मैं उस से बात कर के देखता हूं. उसे यह भी तो बताना होगा कि शुभ्रा यहां पर है.’’

अखिलेश के जाने पर निशि ने शुभ्रा से पूछा, ‘‘तुम क्या सोचती हो, नितिन तुम्हें लेने यहां आएगा?’’

शुभ्रा ने गहरी सांस छोड़ते हुए कहा, ‘‘पता नहीं.’’

‘‘फिर क्या सोचा है?’’ निशि ने बात आगे बढ़ाई.

शुभ्रा ने कोई जवाब नहीं दिया. दुख की अनुभूति उस पौधे के समान है जो न तो सूख कर मर ही जाता है और न ही बसंत में उस में नई कोंपलें निकलती हैं. मन की उमंग और शरीर की कामना जड़ीभूत हो कर रह जाती है.

निशि ने बातों का सूत्र पकड़ते हुए फिर कहा, ‘‘क्या मातापिता के पास जाना चाहोगी?’’

‘‘नहीं, आंखों के सामने का दुख ज्यादा पीड़ादायक होता है. ओट होने से दुख ओझल तो नहीं हो जाता पर लगातार टीस नहीं होती है. जाना तो क्या, मैं उन्हें इस बात की सूचना भी नहीं देना चाहती, उन्हें दुखी करने से क्या फायदा?’’

‘‘तुम ने तो फिजिक्स में एमएससी की है.’’

‘‘हूं.’’

‘‘मुझे याद आ रहा है कि तुम ने एमफिल भी कर लिया था. तुम यहां टीचिंग लाइन में क्यों नहीं चली जातीं?’’

‘‘हूं,’’ शुभ्रा अपनी दोनों हथेलियां एकदूसरे से रगड़ती जा रही थी.

‘‘क्या ये गूंगों की तरह हूं…हूं…लगा रखी है. तुम्हारी इसी कायरता और दब्बूपन से ही तो तुम्हारा यह हाल हुआ है. जब तुम ने उस जहालत से निकलने के लिए यह साहसिक कदम उठा ही लिया है तो क्यों नहीं इसे दिशा देतीं?’’ निशि जैसे झुंझला पड़ी.

‘‘माफ करना दीदी, सोच रही थी…’’

‘‘क्या सोच रही हो, शुभ्रा? अगर बेबात शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना देना कायरता है तो बेकुसूर मार खाते रहना उस से भी बड़ी मूर्खता है. तुम ने इस बात पर स्टैंड ले कर कोई गलती नहीं की. यह नितिन की सरासर ज्यादती है. अन्याय है. और अन्याय के विरुद्ध आवाज न उठाना उस से भी बड़ा अन्याय है. मैं यह नहीं कहती कि अगर नितिन अपनी गलती मान लेता है तो समझौता न करो. देखा जाए तो जीवन ही समझौता है. पर हां, कायरता से नहीं, नीच, अमानुषिक व्यवहार से नहीं,’’ निशि कुछ और भी कहने जा रही थी कि दूसरे कमरे से आते हुए अखिलेश का लालपीला होता हुआ मुंह देख कर प्रश्नवाचक नजरों से उस की ओर चुप हो देखने लगी.

अखिलेश बहुत ही गुस्से में थे, बोले, ‘‘यह नीच अपने को समझता क्या है?’’

निशि ने पूछा, ‘‘क्या कहा?’’

‘‘कह रहा था कि मैं क्या करूं? जबरन मेरे मातापिता ने मेरी शादी कर दी. मैं रूपा को तो छोड़ नहीं सकता,’’ फिर अखिलेश भन्ना कर बोले, ‘‘जैसे जनाब कोई दूध पीते बच्चे थे कि मांबाप ने कान पकड़ कर मंडप में बैठा दिया और इन्होंने शादी कर ली. अगर रूपा के साथ ही रहना था तो शुभ्रा की जिंदगी बरबाद करने का क्या मतलब था?’’

और फिर अखिलेश शुभ्रा की तरफ मुखातिब हो कर कहने लगे, ‘‘शुभ्रा, तुम फिक्र मत करो. मैं इस इंसान को छोड़ूंगा नहीं. तुम्हें तुम्हारा हक दिला कर ही रहूंगा. नाकों चने न चबवाए तो…अंधेरगर्दी है क्या? पता है ‘वाइफ एब्यूज’ की यहां कितनी सजा है? जेल जाएंगे, जेल. बस, पुलिस में रिपोर्ट लिखवाने की जरूरत है. फिर देखो, बच्चू कैसे नाक रगड़ेंगे, नानी याद आ जाएगी, आटेदाल का भाव मालूम पड़ जाएगा.’’

बीच में ही टोकते हुए निशि बोली, ‘‘इस विषय पर चर्चा कल सुबह ही होगी. रात में कोई भी निर्णय नहीं लिया जाएगा. यह जिंदगी का सवाल है, कोई खेल नहीं,’’ और निशि शुभ्रा को धकेलते हुए बैडरूम में ले गई.

काफी रात तक शुभ्रा करवटें बदलती रही. अतीत के अनुभवों की याद उसे सोने नहीं दे रही थी.

रात्रि के अंतिम पहर में कुछ देर को शुभ्राकी आंख लगी थी कि खिड़की की सिल पर बैठे सीगल की गुटरगूं तथा चोंच से खिड़की के शीशे पर की जा रही टकटक, मानो अंदर आने की इजाजत मांग रहा हो. शुभ्रा की नींद खुल गई.

उसे दुख का एहसास तो था पर उस का मन हलका हो गया था. लगता था कि जैसे एकाएक उस के हृदय पर पड़ा बहुत बड़ा बोझ उतर गया हो. शुभ्रा का दिमाग उन प्रश्नों से जिन के उत्तर किसी भी प्रकार के उलझाव को इंगित करें, खाली हो गया था. अतीत पीछे छूट रहा था व भविष्य की रूपरेखा का निर्माण हो रहा था. शुभ्रा को लग रहा था कि या तो वह बहुत दूर चली आई है या फिर अतीत की घटनाएं इतनी दूर सरक गई हैं कि जहां वे नीले अंतरिक्ष में महीनतम डोर से बंधे गुब्बारों की तरह दूर, बहुत दूर छितराई हुई दृष्टिगत हो रही हैं.

शुभ्रा खिड़की के सामने खड़ी हलकीहलकी गिरती बर्फ को निहारने लगी. उस के अंतर का कोलाहल भी शांत हो चुका है. एक सन्नाटा सा छा गया है. तूफान आने से पहले का नहीं, तूफान गुजर जाने के बाद का सन्नाटा है.

निशि जब शुभ्रा के लिए सुबह की चाय का कप ले कर कमरे में आई तो उस ने शुभ्रा को विचारों में खोए हुए पाया. शुभ्रा खिड़की से एकटक न जाने क्या देख रही थी. एक क्षण को निशि सहमी, ठिठकी, पर फिर शुभ्रा की संतुलित, सौम्य, शांत काया देख आश्वस्त हो गई. वह अभी सोच ही रही थी कि शुभ्रा की विचारमग्नता को भंग करे या नहीं कि कमरे के बाहर से अखिलेश की आवाज गूंज उठी, ‘‘अरे भई, तुम दोनों ने तो हमें दूध में पड़ी मक्खी की तरह बाहर निकाल रखा है. अब तुम दोनों कमरे में ही घुसी रहोगी या बाहर भी आओगी?’’

शुभ्रा, जो अभी तक शून्य में ही ताके जा रही थी, पलटी और निशि को चाय का कप लिए खड़ी देख आश्चर्य से बोली, ‘‘अरे, दीदी, आप.’’

निशि ने अपनत्व से कहा, ‘‘पहले जाओ हाथमुंह धो लो, बाकी बातें बाद में. चाय ठंडी हो रही है.’’

शुभ्रा जब वापस आई तो भोजनकक्ष में अखिलेश और निशि उस का चाय पर इंतजार कर रहे थे. निशि ने शुभ्रा को चाय का कप पकड़ाते हुए कहा, ‘‘लगता है कि तुम किसी निर्णय पर पहुंच गई हो.’’

अखिलेश अभी भी आक्रोश में भरे बैठे थे, बीच में ही बोल पड़े, ‘‘नितिन ने जानवरों जैसी हरकत की है. मैं इस इंसान को छोड़ूंगा नहीं. बच्चे को छठी का दूध याद दिला दूंगा. शुभ्रा, मैं तुम्हें तुम्हारा हक दिला कर ही रहूंगा.’’

शुभ्रा, जो अभी तक सिर झुकाए बैठी हुई चुपचाप अखिलेश की बात सुन रही थी, अब एक दृढ़ निश्चय से उस ने अखिलेश की तरफ गरदन मोड़ी और बोली, ‘‘नहीं, अखिलेश भैया, जिस इंसान के दिल में मेरे लिए कोई जगह नहीं है, मैं उस के ईंटपत्थरों के घर में जगह पाने की इच्छुक नहीं हूं. यह निर्णय तो जब मैं उन का घर छोड़ कर आईर् थी तभी ले लिया था. हां, बस, इतना ही सोच रही थी कि बिना उन के दिल की बात जाने, सिर्फ रूपा के कहने पर ही घर छोड़ना, क्या उचित था या नहीं. पर अब उन के मुख से वही बात सुन कर बंधन का जो एक तार बचा था वह भी कच्चे धागे की भांति टूट गया है.’’

शुभ्रा की बात काटते हुए अखिलेश ने कुछ बोलना चाहा पर शुभ्रा बिना उस की बात सुने एक गहरी सांस छोड़ कर आगे बोली, ‘‘अखिलेश भैया, जिस आत्मसम्मान को मैं ने भ्रमित प्यार के नाम पर तिलांजलि दे दी थी, उस झूठे प्यार का साथ भी छूटने पर अब मेरे पास सिर्फ आत्मसम्मान का ही धन रह गया है, इसे नहीं खोना चाहती. अपने इस आत्मसम्मान के छिटके हुए सूत्र को पकड़, मैं ने, अपने पैरों पर खड़ी हो, अपने जीवन की बागडोर अपने हाथों में लेने का निर्णय ले लिया है.’’

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