आदमी पीछे मुड़ कर भी देखता है. सिर्फ आगे देख कर हम आसमान छू तो लेते हैं मगर भूल जाते हैं कि हमारी जड़ें पीछे की तरफ हैं जिन से हम कटते जा रहे हैं. आज का दिन कुछ ऐसा ही था जब प्रदीप का फोन आया. यह मेरे लिए अकल्पनीय था. प्रदीप और मैं भले ही चचेरे भाईबहन हों, प्रदीप की ऊंची हैसियत के चलते उन के परिवार वालों ने हमारे परिवार को कभी तवज्जुह नहीं दी. एक तरह से हम उन के लिए अछूत थे.

कहते हैं न, कि वक्त सब सिखा देता है. कुछ ऐसा ही प्रदीप के साथ हुआ जिसे न जाने क्या सोच कर उस ने मुझ से साझा करना चाहा. न तब जब हम विपन्न थे न आज जबकि हमारा परिवार आर्थिक दृष्टि से संभल गया है, मैं ने कभी किसी से दुराव नहीं किया. लाख वे हम से कटते रहे मगर हम ने अपने रिश्तों की कशिश बनाए रखी. हो सकता है तब प्रदीप और उन की बहनों में परिपक्वता का अभाव हो. मगर उर्मिला चाची को क्या कहा जाए, वे तो अपने बच्चों को सामाजिकता सिखा सकती थीं. उन्हें सही रास्ता दिखा सकती थीं. मगर नहीं, वे खुद ऐंठ में रहतीं, उन के बच्चे भी. लेदे कर चाचाजी को घरखानदान का एहसास था. सो, कभीकभार समय निकाल कर वे हमारे घर आ जाते. प्रोफैसरी की ठनक तो थी ही.

रविवार का दिन था. घर का कामकाज निबटा कर जैसे ही मैं लेटने जा रही थी कि प्रदीप का फोन आया, ‘‘कैसी हो?’’ आवाज पहचानने में लमहा लगा पर अगले ही पल समझ गई कि कौन है. ‘‘प्रदीप,’’ मेरे मुख से निकला, ‘‘बहुत दिनों बाद फोन किया?’’

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