पूर्व कथा
पुरवा का पर्स चोर से वापस लाने में सुहास मदद करता है. इस तरह दोनों की जानपहचान होती है और मुलाकातें बढ़ कर प्यार में बदल जाती हैं. सुहास पुरवा को अपने घर ले जाता है. वह अपनी मां रजनीबाला और बहन श्वेता से उसे मिलवाता है. रजनीबाला को पुरवा अच्छी लगती है. उधर पुरवा सुहास को अपने पिता से मिलवाने अपने घर ले आती है तो उस के पिता सहाय साहब सुहास की काम के प्रति लगन देख कर खुश होते हैं.
सुहास की बहन श्वेता को देखने लड़के वाले आते हैं. इंजीनियर लड़के गौरव से श्वेता का विवाह तय हो जाता है. मिठाई के डब्बे के साथ बहन की सगाई का निमंत्रण ले कर सुहास सहाय साहब के घर जाता है. घर पर बीमार सहाय साहब का हालचाल पूछने उन के मित्र आए होते हैं. सहाय साहब सुहास की तारीफ करते हुए सब को बताते हैं कि वह उस के लिए मोटरपार्ट्स की दुकान खुलवा रहे हैं. सुहास अपनी तारीफ सुन कर खुश होता है.
श्वेता की सगाई पर आए सहाय साहब के परिवार से मकरंद वर्मा परिवार के सभी सदस्य उत्साहपूर्वक मिलते हैं. दोनों परिवार वाले सुहास और पुरवा के रिश्ते से खुश थे.
समय तेजी से गुजरता रहा. सुहास व्यापार शुरू कर देता है, लेकिन कई बार काम के लिए बंध कर बैठना उस के लिए मुश्किल हो जाता क्योंकि किसी भी जगह जम कर रह पाना उस के स्वभाव में नहीं था.
अंतत: श्वेता के विवाह का दिन आ जाता है. उस दिन पुरवा का सजाधजा रूप देख कर सुहास दीवाना हो जाता है. पुरवा से शीघ्र विवाह करने के लिए सुहास दुकान पर मन लगा कर काम करने लगता है. यह सब देख सहाय साहब खुश थे. आखिरकार वह एक दिन वर्मा साहब के घर पुरवा का रिश्ता ले कर पहुंच जाते हैं. सभी की मौजूदगी और खुशी से पुरवासुहास का रिश्ता पक्का हो जाता है और शीघ्र ही धूमधाम से विवाह हो जाता है.
सुहागसेज पर दोनों हजारों सपने संजोते हैं और हनीमून पर ऊटी जाते हैं. वापस आने पर घर में सब उन का स्वागत करते हैं. इधर श्वेता से बात करने पर पुरवा को पता चलता है कि बड़े परिवार के कारण वह ससुराल में नाखुश है. उधर अपनी व्यवहारकुशलता से पुरवा ससुराल में जल्द ही सब से घुलमिल जाती है.
पुरवा महसूस कर रही थी कि सुहास का ध्यान समाजसेवा में अधिक रहता है. वह दूसरों की मदद के लिए दुकान पर भी ध्यान न देता.
एक दिन श्वेता ससुराल से लड़झगड़ कर मायके आती है. पुरवा के समझाने पर वह उलटा पुरवा को ही सुहास द्वारा कुछ न कमाने का ताना देती है. यह बात सच थी इसीलिए पुरवा सब चुपचाप सुन लेती है लेकिन अब उस के दिमाग में श्वेता के शब्द गूंज रहे थे.
अब आगे…
श्वेता तो अपने मम्मीपापा के बहुत समझानेबुझाने पर वापस ससुराल चली गई पर पुरवा का मन अशांत कर गई थी. ऊपर से वह निरंतर ठीकठाक दिखने का प्रयास कर रही थी पर मन के तहखाने में चुपके से कोई विषैला जंतु जैसे घुस कर बैठ गया था.
अपनेआप से पुरवा तर्कवितर्क करती कि क्या श्वेता ने सच कहा था? मन उत्तर देता, नहीं, वह अलग रहने की बात सोच भी नहीं सकती. अपने मम्मीपापा के घर में भी उसे नितांत अकेलापन लगता था. इसीलिए यहां की हलचल उसे अच्छी लगती है. ऐसे में अलग रहने की बात वह कभी नहीं सोच सकती थी, पर दंश तो श्वेता की दूसरी बात का चुभा था.
सुहास क्या सचमुच पैसा कमाना नहीं चाहता है? क्या इसीलिए समाजसेवा का बहाना कर के इधरउधर भागता रहता है? इतने दिनों में एक बार भी तो उस ने अपनी कमाई रकम का कुछ भी हिस्सा पुरवा के हाथों में नहीं रखा. कहता है सारी कमाई व्यापार बढ़ाने में जा रही है, तो क्या सदा वह अपने पिता के पैसे के सहारे ही जीवन व्यतीत करेगा?
वह बारबार अपने को समझाती थी कि यह सब व्यर्थ की बातें नहीं सोचे, पर मन है जो बारबार समझाने पर भी स्थिर होना ही नहीं चाहता है.
इसी ऊहापोह में एक दिन वह सुहास से कह बैठी, ‘‘सब के पति माह की पहली तारीख को अपनी पत्नी के हाथ पर अपनी आय रखते हैं पर तुम ने अभी तक मुझे कुछ भी नहीं दिया.’’
सुहास ने पहले तो उसे ध्यान से देखा फिर हंस कर बोला, ‘‘मैं ने अपनेआप को ही तुम्हारे कदमों में रख दिया है फिर रुपएपैसे की क्या औकात है.’’
‘‘तुम मजाक के मूड में हो पर मैं गंभीर हूं. सुहास, हर पत्नी की यह चाहत होती है कि उस का पति उसे गृहलक्ष्मी समझ कर अपनी आय का कुछ अंश तो अवश्य सौंपे.’’
‘‘लगता है कि श्वेता की बात को तुम दिल से लगा बैठी हो,’’ सुहास भी अचानक गंभीर हो उठा.
‘‘चाहे यह सच हो पर विचारणीय भी है,’’ पुरवा ने कहा.
सुहास ने पत्नी को मनाने के उद्देश्य से बहुत प्यार से उस के गाल थपथपा दिए और बोला, ‘‘देखो, पुरवा, यह शौक मुझे भी है कि मैं अपनी पत्नी को अपनी सारी कमाई दूं पर अभी इतनी आय तो है नहीं और जो आय है वह किराए में, नौकर के वेतन में और नया माल लाने में चली जाती है. कुछ अधिक आय होगी तब मैं फैक्टरी भी डालना चाहूंगा,’’ सुहास ने उसे प्यार से बांहों में भर लिया, ‘‘क्या तुम सदा एक दुकानदार की पत्नी बनी रहना पसंद करोगी?’’
पुरवा उस की बात समझ गई थी, धीरे से बोली, ‘‘मैं सब समझ गई हूं पर सुहास, यहां मां से अपने खर्च के लिए रुपए लेते भी मुझे शर्म आती है.’’
‘‘मां से कैसी शर्म. मुझे भी तो वही अभी तक जेबखर्च देती रही हैं. मेरी मम्मी बहुत अच्छी हैं, इन सब बातों में अपना मन खराब मत करो,’’ सुहास ने समझाया.
अचानक पुरवा बोली, ‘‘सुनो, सुहास, मुझे नौकरी मिल सकती है, अंध महाविद्यालय में एक जगह खाली है. बस, यही होगा कि फिर मुझे नियम से जाना पड़ेगा,’’ पुरवा ने सुहास को और मां को अपने खर्च से बचाने का सुझाव सा दिया.
सुहास फिर गंभीर हो उठा और बोला, ‘‘मम्मी से बात करनी पड़ेगी तभी बताएंगे.’’
कई दिनों से मां सुहास से कह रही थीं कि पुरवा को कहीं घुमा लाए या सिनेमा दिखा लाए. पुरवा को महसूस हो रहा था कि कुछ दिनों से मां कुछ अधिक ही उस का ध्यान रख रही हैं. कहीं इसलिए तो नहीं कि उस ने नौकरी की बात कर के उन के सम्मान को ठेस पहुंचाई है.
सोमवार को दुकान बंद रहती थी इसीलिए वह सारा दिन सुहास ने पुरवा के नाम लिख दिया था. सुबह ही कह दिया था कि आज का दिन वह घर से बाहर पुरवा के साथ ही व्यतीत करेगा. पुरवा को भी घूमने का यह प्रस्ताव बहुत अच्छा लगा था. इसीलिए अपनी साडि़यां खोल कर उस ने सुहास से पूछा, ‘‘सुहास, मैं कौन सी साड़ी पहनूं?’’
सुहास उसी समय नहा कर आया था. तौलिया पलंग पर फेंक कर पुरवा को बांहों में भर लिया और बोला, ‘‘तुम्हारे ऊपर तो सभी कुछ खिलता है. कुछ भी पहन लो.’’
‘‘नहीं, तुम जो बताओगे वही पहनूंगी,’’ पुरवा ने जिद की तो सुहास ने एक नारंगी रंग की साड़ी पर हाथ रख दिया फिर बोला, ‘‘आज एक नई साड़ी भी खरीद लेना.’’
‘‘क्यों?’’ पुरवा ने उस की पसंद की साड़ी अलग करते हुए कहा, ‘‘बहुत साडि़यां हैं, क्या होगा और ले कर.’’
सुहास ने फिर अपनी नाक उस के गालों पर रगड़ते हुए हंस कर कहा, ‘‘क्योंकि हर अच्छे पति और प्रेमी को अपनी पत्नी को हमेशा अच्छीअच्छी भेंट देते रहना चाहिए.’’
‘‘ताकि उस की पत्नी, पति की किसी भी गलत बात पर उंगली न उठाए,’’ पुरवा ने मुसकराते हुए शरारत से कहा.
सुहास कुछ कहने ही जा रहा था कि द्वार पर दस्तक हुई और बेला अंदर आ गई.
‘‘अरे, भाभी आप,’’ सुहास जो लगातार पुरवा को छेड़ रहा था, लजा कर बोला. पुरवा भी झेंप कर अलग हो गई.
‘‘आइए, भाभीजी,’’ पुरवा ने अपनी साडि़यां समेटते हुए कहा.
बेला पलंग पर ही बैठ गई. बहुत थकीथकी सी लग रही थी पर हंसते हुए बोली, ‘‘लगता है कहीं जाने का कार्यक्रम है?’’
‘‘हां भाभी, आज इसे बहुत दिनों बाद घुमाने ले जाने का कार्यक्रम है,’’ सुहास बोला, ‘‘और आप सुनाइए. घर पर सब ठीक- ठाक है न?’’
बेला कुछ संकोच में भर उठी, जैसे सोच रही हो कि कहे या न कहे, बोली, ‘‘हां, ठीक ही हैं.’’
‘‘मैं चाय लाती हूं,’’ पुरवा अचानक कमरे से बाहर चली गई. जाने क्यों बेला को देखते ही उसे लगा था कि अब वह कहीं नहीं जा पाएगी, इसीलिए चाय का बहाना कर के बाहर चली गई थी.
सुहास ने फिर कहा, ‘‘भाभी, लगता है कुछ परेशानी है.’’
‘‘नहीं सुहास, हमारे यहां तो कुछ न कुछ चलता ही रहता है. मैं तो बस, मिलने ही आई थी,’’ बेला का उन दोनों के कार्यक्रम में खलल डालने का कोई विचार नहीं था.
सुहास, बेला के निकट बैठ गया और उस की हथेली प्यार से अपनी हथेलियों में थाम कर बोला, ‘‘भाभी, शादी हो जाने से क्या मैं इतना पराया हो गया हूं कि आप अपनी परेशानी मुझ से छिपा रही हैं.’’
‘‘नहीं सुहास, तुम सब का तो हमें बहुत सहारा है,’’ बेला बोली.
‘‘तो बताइए न भाभी. आप भी बहुत कमजोर सी लग रही हैं.’’
बेला अचानक रोंआसी हो उठी. बोली, ‘‘भैया, बात यह है कि एक सप्ताह पहले मां को मैं अपने पास ले आई थी. तब तो ठीकठाक थीं. तुम्हारे भाई साहब को टूर पर जाना था सो 2 दिन पहले वह चले गए.’’
‘‘अच्छा. आजकल मैं जल्दी पहुंच नहीं पाता हूं तो पता ही नहीं चला,’’ सुहास बोला, ‘‘फिर क्या हुआ, भाभी?’’
बेला की घबराहट स्पष्ट दिखाई दे रही थी. बोली, ‘‘कल रात मां की तबीयत अचानक बहुत खराब हो गई. उन्हें अस्पताल में भरती किया तो पता चला कि अपेंडिक्स है और आपरेशन करना पड़ेगा.’’
‘‘अरे, आप रात ही फोन कर देतीं,’’ सुहास ने दोबारा सांत्वना देने के लिए बेला की हथेलियां थाम लीं.
‘‘नहीं भैया, हर समय आप को कष्ट देना अच्छा नहीं लगता है. बस, इतना कर दो कि कुछ रुपए का प्रबंध करवा दो. आज बैंक की भी हड़ताल है. आपरेशन के लिए पैसे जमा करवाने हैं.’’
‘‘वह तो सब हो जाएगा, भाभी,’’ सुहास ने कहा. तभी पुरवा चाय ले कर आ गई. पुरवा को देखते ही सुहास ने बेला की हथेलियों की पकड़ छोड़ दी. बेला अनायास ही संकोच से भर उठी थी. पुरवा को कुछ अच्छा नहीं लगा था पर अपने मन को संयत रखते हुए उस ने कहा, ‘‘क्या बात है भाभीजी, आप बहुत परेशान हैं.’’
बेला के बोलने से पहले ही सुहास बोला, ‘‘हां पुरवा, हमें अभी भाभी के साथ जाना होगा. भाई साहब टूर पर गए हैं और भाभी की मां का आपरेशन है.’’
‘‘नहींनहीं, सुहास भैया,’’ बेला पुरवा के चेहरे को देख कर कुछ घबरा सी गई, ‘‘तुम पुरवा के साथ घूमने का कार्यक्रम मत बिगाड़ो. हमें तो बस, रुपए की समस्या आ पड़ी है.’’
‘‘वह भी हो जाएगा भाभी, अभी मम्मी से कह कर लाता हूं पर आपरेशन के समय किसी पुरुष का होना भी बहुत जरूरी है,’’ वह निश्ंिचत हो कर उठ खड़ा हुआ और पुरवा की तरफ देख कर बोला, ‘‘भाभी, हमारी पुरवा बहुत समझदार है. उस के साथ का कार्यक्रम फिर किसी दिन बन जाएगा.’’
पुरवा शांत भाव से खड़ी रही. उसे कुछ कहनेसुनने का अवसर ही कहां दिया था सुहास ने. उस ने संयत स्वर में बेला को चाय देते हुए कहा, ‘‘आप हमारे कार्यक्रम की चिंता मत कीजिए, लीजिए, चाय पी कर ताजा हो लीजिए, तब तक ये रुपए ले कर आ जाएंगे.’’
बेला उस की इन बातों से कुछ संतुष्ट दिखी. थोड़ी देर में दोनों ही चले गए और पुरवा अपनी साडि़यां संभालती वहीं खड़ी रह गई. तभी मां वहां पर आ गईं. पुरवा को उदास देख कर धीरे से बोलीं, ‘‘किसी को मुसीबत में देख नहीं सकता है वह. इनसानियत का तकाजा भी यही था बेटा. तुम तैयार हो जाओ, आज हम दोनों शौपिंग के लिए जाएंगे.’’
‘‘लेकिन मुझे कुछ खरीदना नहीं है, मम्मीजी,’’ पुरवा ने उदासी से कहा.
‘‘लेकिन मुझे तो बहुत कुछ खरीदना है. तैयार हो जाओ, मैं ड्राइवर को गाड़ी निकालने को कहती हूं.’’
मां कमरे से बाहर चली गईं और उदास पुरवा फिर से एक साड़ी खींचने लगी.
कई दिनों तक सुहास बहुत व्यस्त रहा. उसे अपनी दुकान पर जाने का समय भी कम ही मिलता था. पुरवा एकांत में अकसर सोचती थी कि अभी तो हमारे विवाह को कुछ ही महीने गुजरे हैं. सुहास के पास कोई नौकरी भी नहीं है, व्यापार में भी उस का मन नहीं लगता है, फिर भी मेरे लिए उस के पास समय नहीं है.
व्यथित हृदय जाने किनकिन दिशाओं में विचरण करता रहता है. पुरवा का मन भी बहुत भटकने लगा था. कभी सोचती कि सुहास भी तो उन्हीं पतियों की तरह नहीं है जो पत्नी को बस, एक जरूरत की वस्तु मानते हैं पर सुहास जब भी उस के निकट होता तो मन फिर उमंगों से भर उठता. अपनी उलटीसीधी सोच पर स्वयं ही उसे पछतावा भी होता.
उस दिन मां ने बाजार में उस से पूछपूछ कर बहुत सी वस्तुएं उस के लिए खरीद दी थीं. साडि़यां, मेकअप का सामान और कई तरह के इत्र. पुरवा को वह सब पा कर बहुत खुश होना चाहिए था पर वैसा हुआ नहीं. उसे बराबर लगता रहा कि यह सब उसे बहलाने का प्रयास है या शायद सुहास की कमी पर परदा डाला जा रहा है. फिर स्वयं ही चौंक उठती, यह क्या होता जा रहा है उसे. सुहास को उस ने सबकुछ जानतेबूझते प्यार किया है और अब उस में कमी खोजने बैठ जाती है. आखिर, एक दिन उस ने सुहास से फिर कहा, ‘‘मैं नौकरी करना चाहती हूं.’’
सुहास कुछ देर अनसुनी करता रहा, फिर पुरवा ने कुछ क्रोध से कहा, ‘‘सुहास, मैं इतनी देर से तुम से कुछ कह रही हूं.’’
‘‘बहुत फालतू सी बात कह रही हो. मम्मा और पापा नहीं मानेंगे, यह तुम जान चुकी हो,’’ सुहास ने यह बातें जिस ढंग से कही थीं उस से पुरवा एक पल को स्तंभित रह गई. उस आवाज में प्रेमी सुहास का स्वर नहीं था, बल्कि एक पति का दर्प बोल रहा था. सुहास ने ही आगे कहा, ‘‘तुम लगातार यह दिखाना चाहती हो कि हम लोग तुम्हारा खर्च नहीं उठा पा रहे हैं, इसलिए तुम खुद नौकरी कर के अपना जेबखर्च निकालोगी.’’
‘‘यह गलत है. मैं बस, तब तक नौकरी करना चाहती हूं जब तक तुम अपने व्यापार में जम नहीं जाते,’’ पुरवा ने दृढ़ शब्दों में कहा.
‘‘यानी कि तुम मेरी सहायता करना चाहती हो, तो फिर मम्मी और पापा का क्या, जो हर समय मुझे सहायता करना चाहते हैं.’’
‘‘काश, तुम अपने इस सहारे पर लज्जा महसूस करते और अपनी जिम्मेदारी को पहचान पाते,’’ पुरवा ने भी क्रोध में कहा.
‘‘औरत का चरित्र पहचानना बहुत ही कठिन है,’’ सुहास कुछ खीज से बोला, ‘‘अपने मातापिता से सहायता लेने में कैसा आदर्शवाद. ऐसा दंभ पालने का मैं शौकीन नहीं हूं.’’
सुहास कमरे से बाहर चला गया और पुरवा परेशान सी उसे देखती रह गई. यह पति के साथ उस की पहली झड़प थी. उस का मन बहुत व्याकुल हो उठा. यह अचानक जो हो गया, क्या उस ने इतनी गलत बात कह दी थी, इसलिए ऐसा हो गया.
वह सोच में डूब गई. आजकल तो सभी स्त्रियां नौकरी करती हैं. कोई बुरा नहीं मानता तो सुहास क्यों इतना परेशान हो जाता है. मानव जीवन में स्वाभिमान का भी कुछ महत्त्व होता है. यह क्या रस्मों की जंजीरों से जकड़ने की बात होती है. और स्वाभिमान व घमंड तो एकदम अलगअलग भावनाएं हैं.
उस दिन पुरवा दिन भर बहुत व्याकुल रही. सुहास बिना बताए ही कहीं चला गया था. मां ने खाने के समय दुकान पर फोन किया पर वह वहां भी नहीं था. मां ने परिहास करते हुए कहा, ‘‘लग गया होगा कहीं जगत सेवा में. उस का सब से बड़ा शौक तो यही है.’’
पुरवा को जाने क्यों वह परिहास अच्छा नहीं लगा. मन में अनजाने ही एक प्रश्न उभरा, ‘यह शौक है या जीवन के उत्तरदायित्व से दूर भागने का बहाना,’ पर ऊपर से वह शांत रही.
शाम को अचानक ही श्वेता आ गई. गौरव भी साथ में था, दोनों बहुत प्रसन्न लग रहे थे. श्वेता हंसहंस कर बता रही थी कि वह दोनों एक लंबे ट्रिप पर सिंगापुर जा रहे हैं. गौरव को आफिस की तरफ से जाना है और वह श्वेता को भी घुमाने के विचार से ले जा रहा है.
श्वेता को खुश देख कर सभी संतुष्ट थे. बहुत दिनों बाद श्वेता को सब ने इस तरह से हंसतेबोलते देखा था. उस की प्रसन्नता देख कर पुरवा भी अपनी उदासी भूल गई थी. एकांत में मिलते ही पुरवा ने उसे छेड़ते हुए कहा, ‘‘आज तो हमारी ननद रानी एकदम आकाश में उड़ रही हैं.’’
‘‘हां भाभी, मैं बहुत खुश हूं. आप ने मुझे बहुत अच्छी सीख दी थी. जानती हैं भाभी, सिंगापुर मैं किस तरह जा पा रही हूं.’’
श्वेता की इस खुशी में भी पुरवा को शंका सी कौंध गई थी फिर भी धैर्य से बोली, ‘‘सुनूं तो जरा कि कैसे जा पा रही हो.’’
‘‘हाय भाभी, मेरी सास बहुत अच्छी हैं,’’ श्वेता पुरवा के गले लग गई.
‘‘सास तो मेरी भी बहुत अच्छी हैं,’’ पुरवा ने सहर्ष कहा. श्वेता की खुशी सहज ही है, यह पुरवा जान चुकी थी.
श्वेता पलंग के ऊपर पालथी मार कर बैठ गई और बोली, ‘‘ये मुझे ले थोड़े ही जा रहे थे. वह तो मम्मीजी ने इन से जोर दे कर कहा कि इतना अच्छा मौका है, उसे भी घुमा कर लाओ.’’
पुरवा मुसकरा दी, बोली, ‘‘मां तो मां ही होती हैं, चाहे वह सास का रूप ले लें या मां ही हों. जानती हो श्वेता, तुम्हारे भैया जब बहुत दिनों तक मुझे कहीं घुमाने नहीं ले जाते हैं तब मम्मीजी स्वयं ही मुझे अपने साथ बाहर ले जाती हैं.’’
‘‘हां भाभी, ऐसा ही होता है. अब मैं भी सोचती हूं, यदि सब साथ नहीं होते और ये मुझे कभी पूछना कम कर देते तो कौन इन्हें इन के कर्तव्य की याद दिलाता.’’
पुरवा हंस दी. सोचने लगी, पता नहीं यहां पर मम्मी व पापा सुहास को उस की जिम्मेदारियों के प्रति कितना सतर्क करते हैं कितना नहीं. पर पत्नी होने के नाते यदि वह सुहास का संबल बनना चाहती है तो उसे घर की मर्यादा की डोर से वह क्यों बांधना चाहता है.
कई दिनों से पुरवा का मन बहुत खराब सा हो रहा था. न कुछ खाने की इच्छा होती थी न कुछ काम करने की. समय मिलते ही निढाल हो कर पड़ जाती थी. सुहास ने 1-2 बार पूछा, ‘‘क्या बात है, हरदम उदास बनी रहती हो.’’
पुरवा का मन हुआ कि कहे, हमारे प्यार का मौसम जो इतनी जल्दी बीत गया तो अब उदास तो रहना ही है, पर कहा कुछ नहीं. सुहास ने ही पुन: कहा, ‘‘कुछ दिन को तुम अपने मम्मीपापा के पास क्यों नहीं हो आतीं, मन बदल जाएगा.’’
तभी मां कमरे में आ गईं और बोलीं, ‘‘सुहास, तुम्हें पुरवा के लिए बिलकुल समय नहीं मिलता है, यह अच्छी बात नहीं है.’’
‘‘देखती तो हैं मम्मी, कितना व्यस्त रहता हूं.’’
‘‘कहां व्यस्त रहता है, यही तो पूछ रही हूं. दुकान पर तो अकसर गायब ही रहता है,’’ मां के स्वर में झुंझलाहट थी जो पुरवा को अच्छी लगी.
सुहास मां की बात पर हंस दिया और बोला, ‘‘अब मम्मा, इतनी जल्दी आदतें थोड़े ही बदल जाती हैं. मेरे पड़ोसी दुकानदार सूर्यभानजी को दिल का दौरा पड़ा था, अस्पताल में हैं, उन के लिए भी समय निकालना पड़ता है न.’’
‘‘क्यों, तुम्हारे सिवा उन का और कोई नहीं है जो उन की व उन की दुकान की देखभाल कर सके.’’
मां के स्वर की तल्खी पुरवा पहली बार सुन रही थी. वह जानती है कि सुहास दया का सागर है, पर कई बार अनावश्यक दया भी नई मुसीबतों को जन्म दे जाती है. मां ने ही आगे कहा, ‘‘उन के 2 बेटे हैं, नौकरचाकर हैं, 3 भाई हैं, तुम्हें लगातार अपनी दुकान छोड़ वहीं जमे रहने की क्या जरूरत है?’’
‘‘सौरी, मम्मा,’’ सुहास मां को मनाने का उपक्रम करने लगा, ‘‘अभी जाता हूं न, सीधा दुकान पर ही जाऊंगा.’’
‘‘चलो, नाश्ता कर लो,’’ मां ने दोनों को आदेश दिया और कमरे से बाहर निकल गईं.
नाश्ते की मेज पर एक हादसा और हो गया. पुरवा ने जैसे ही आमलेट का पहला टुकड़ा मुंह में रखा, उस का जी मिचलाने लगा. उस ने कांटा चुपचाप प्लेट में रख कर दलिया का डोंगा अपनी तरफ खींचा तो मां का ध्यान उधर चला गया. बोलीं, ‘‘क्या हुआ पुरवा, आमलेट अच्छा नहीं है?’’
पुरवा ने कुछ परेशानी से उन की तरफ देखा और बोली, ‘‘पता नहीं मम्मीजी, इसे खा कर जी सा मिचला रहा है.’’
मां ने बहुत ध्यान से पुरवा को देखा. तब तक पुरवा एक चम्मच दलिया खा चुकी थी, पर दलिया खा कर भी उसे उबकाई महसूस हुई तो वह सीधा वाश- बेसिन की ओर भागी.
मां ने अर्थपूर्ण दृष्टि सुहास पर टिका दी और मुसकरा कर बोलीं, ‘‘सुहास, दुकान पर बाद में जाना, पुरवा को पहले डाक्टर के पास ले जाओ.’’
‘‘लेकिन उसे क्या हुआ, अच्छीभली तो है,’’ सुहास टोस्ट कुतरते हुए बोला.
‘‘कुछ खाया नहीं जा रहा है उस से. देखो तो जा कर, शायद उलटी आई है उसे,’’ मां ने सुहास को उठने पर जोर दिया और मजाक के स्वर में बोलीं, ‘‘सारी सेवा बाहर वालों की ही नहीं की जाती है, घर के लोगों के लिए भी कभी भागदौड़ करनी पड़ती है.’’
सुहास परेशान सा वाशबेसिन की ओर बढ़ गया और मां ने वर्मा साहब से मुसकराते हुए कहा, ‘‘बधाई हो आप को, घर में शायद नया मेहमान आने वाला है.’’
सुहास जब से पुरवा को डाक्टर के पास से दिखा कर लाया था तब से ही जानपहचान वालों में उत्साह सा फैल गया था. पुरवा को बहुत आश्चर्य भी हो रहा था कि इतनी जल्दी बाहर वालों को कैसे पता चल गया कि वह गर्भवती है.
सब नातेरिश्तेदार एक के बाद एक कर घर आ रहे थे और मिठाई का शोर मचा रहे थे. कोई कहता, ‘‘आंटी, खाली मिठाई नहीं चलेगी, हमें तो पूरी दावत चाहिए.’’
कोई कहता, ‘‘मिसेज वर्मा, एक बात है. साल के अंदर ही पोता आने वाला है. यह बहुत शुभ शगुन है. बड़ी भाग्यशाली है आप की बहू.’’
पुरवा सोच में डूब जाती, इस में भाग्यशाली होने की क्या बात है, जिन्हें कुछ वर्षों के बाद होता है, भाग्यशाली तो वह ही होते हैं. यह क्या कि जीवन अभी शुरू हुआ और ठीक से संभलना भी नहीं आया कि जिम्मेदारी सिर पर आ पड़ी.
सब से आश्चर्यजनक बात तो पुरवा को तब सुनने में आई जब उस के मम्मी और पापा फलमिठाई ले कर आए. मम्मी प्रसन्नता से फूली नहीं समा रही थीं. मां से वे अत्यंत गद्गद भाव से कह रही थीं, ‘‘बहनजी, हमारे यहां तो इस तरह की खुशी पहली बार हो रही है. एक बेटा रहा नहीं, दूसरा विदेश में बैठा है. जाहिर है, पुरवा की शादी के बाद अब पहली बार ही हम नानानानी बनने का सौभाग्य प्राप्त करेंगे.’’
‘‘आप ठीक कह रही हैं मिसेज सहाय, हम तो पहले भी दादादादी बन चुके हैं पर फिर भी सुहास छोटा बेटा है. लाडला भी बहुत रहा है, तो इस की खुशी भी कम नहीं है,’’ मां ने भी उत्साह से कहा.
पापा और मम्मी का उत्साह देख कर पुरवा को भी अपने अंदर एक विचित्र सी प्रसन्नता की अनुभूति हो रही थी. तभी मम्मी ने एकदम नई सी बात सुनाई. मां से बोलीं, ‘‘आप को क्या बताऊं मिसेज वर्मा. हमारे एक जानपहचान वाले के यहां उन की बेटी का विवाह है. जब से उन्हें पता चला कि पुरवा गर्भवती है, वह बारबार कहती हैं, ‘बहनजी, आप की बेटी के विवाह में जो हलवाई बैठा था, वही हमें चाहिए. कितना भाग्यवान है वह कि जिस बेटी की शादी में मिठाइयां बनाईं वही बेटी साल के अंदर ही मां बनने वाली है,’’’ सुहास इस बात पर बहुत जोर से हंसा था और पुरवा इस बात पर हैरान भी थी और खुश भी हो रही थी. सुहास ने तभी पुरवा के कान में फुसफुसा कर कहा, ‘‘मेहनत किसी की और भाग्यवान कोई और कहला रहा है.’’
‘‘हिश…’’ पुरवा लजा कर उठ गई. जब मम्मीपापा एकांत में मिले तो उस ने पूछा, ‘‘आप सब को यह इतनी जल्दी पता कैसे चल गया?’’
पापा मंदमंद मुसकराने लगे. मम्मी ने हंस कर कहा, ‘‘तुम्हें यह भी नहीं मालूम. सुहास ही तो सब को फोन पर बता रहा है.’’
‘‘क्या?’’ पुरवा आश्चर्य से भर उठी.
सुहास के अंतर्मन में यह कैसा बालक छिपा बैठा है. अपना सुख, अपना दुख मन के अंदर छिपा नहीं पाता है. इसी तरह दूसरों का दुख भी उस से सहन नहीं होता है. किसी के भी सुख में सुहास सब से अधिक खुश हो उठता है. पुरवा जब भी इन बातों को सोचती है तब सुहास का भोलापन उसे सुखद आश्चर्य से भर देता है.
-क्रमश: