लेखक- रामेश्वर कांबोज
स्वामी गणेशानंद खड़ाऊं पहने खटाकखटाक करते आगे बढ़ते जा रहे थे. उन के पीछे उन के भक्तों की भीड़ चल रही थी. दाएंबाएं उन के शिष्य शिवानंद और निगमानंद अपने चिमटे खड़खड़ाते हुए हल में जुते मरियल बैलों की तरह चल रहे थे. उन्हें पता था कि भीड़ स्वामीजी का अनुसरण कर रही है, उन का नहीं.
शिवानंद ने भभूत में अटे अपने बालों को खुजलाया और पीछे मुड़ कर एक बार भीड़ को देखा. उस की खोजपूर्ण आंखें कुछ ढूंढ़ रही थीं. निगमानंद ने आंख मिचका कर शिवा को संकेत किया. वह पीले दांत दिखा कर मुसकरा पड़ा. इस का अर्थ था कि वह उस का आशय समझ गया.
भीड़ जलाशय के निकट पहुंच गई थी. सब स्वामीजी की जयजयकार कर रहे थे. शिवा और निगम दूसरे किनारे की ओर, जहां औरतें नहा रही थीं, आ कर बैठ गए.
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शिवा बोला, ‘‘गुरु, ऐसे क्यों बैठे हो? कुछ हो जाए.’’
‘‘क्या हो जाए बे, उल्लू के चरखे? फिल्मी नाच हो जाए या कालिज का रोमांस हो जाए?’’ निगम गुर्राया.
‘‘अरे, कैसी बातें करता है? देखता नहीं, नाचने वाली छोकरी गोता लगा रही है. गोलमटोल चेहरा, बाढ़ की तरह चढ़ती जवानी. क्या खूबसूरती है. खैर, छोड़ो इन बातों को. बूटी तैयार करो. एकएक लोटा चढ़ाएंगे. राम कसम, इस के नशे में हर चीज, हर औरत मुंहजोर घोड़े की तरह हावी हो जाती है.’’
निगम ने आंखों से कीचड़ पोंछ कर स्वामीजी की तरफ ताका. वह मटमैले पानी में एक टांग पर खड़े कुछ गुनगुना रहे थे. वह चिमटे को धरती में ठोंक कर बोला, ‘‘स्वामीजी जब से बूटी चढ़ाने लगे हैं, उसी दिन से भगतिनियों की गिनती बढ़ने लगी है. कहते हैं भंगेड़ी के चक्कर में औरतें ज्यादा आती हैं.’’
एकाएक दोनों चुप हो गए. गुरुजी सब भक्तों को आशीर्वाद दे रहे थे. निगम चुपचाप बूटी तैयार कर रहा था. बारीबारी से दोनों ने एकएक लोटा गटक लिया. भक्तगण पांव छूते, स्वामीजी भभूत का तिलक लगाते और आशीर्वाद देते. फिर उमा की बारी आई. ऐसा सलोना, कुंआरा सौंदर्य सामने देख कर स्वामीजी ठगे से रह गए. उमा ने चरण छुए तो स्वामीजी ने दोनों हाथों से उस का मुखड़ा ऊपर उठा दिया. तिलक लगाते समय उन का हाथ गालों से हो कर फिसलता हुआ उमा के कंधे पर जा टिका.
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वह बोले, ‘‘बेटी, तुझ में माधव का वास है. अभीअभी भगवान ने मेरे दिल में आ कर कहा है. तेरी आत्मा माधव की प्यासी है. मुझे सपने में रात जो देवी दिखाई दी उस का रूप तेरी ही तरह था.
‘‘उस ने मुझे नींद से जगा कर कहा, गणेशानंद, यह मेरा गांव है. मैं यहां प्रकट होना चाहती हूं. मैं अपने गांव को स्वर्ग बनाना चाहती हूं. तुम जहां पर लेटे हुए हो, यहां से सौ कदम पूरब को चलो. ऊपर से मिट्टी हटाओ. वहां तुम मुझे देखोगे. उस जगह एक मंदिर बनवाना. यह काम तुम्हें ही करना है.
‘‘मैं देवी के चरणों पर गिर पड़ा. मंदिर बनवाने का वचन दे दिया. वह स्थान मैं ने तुम सब के सामने खुदवाया है. अगर तुम लोगों ने मिलजुल कर मंदिर न बनवाया तो न जाने गांव पर कैसी विपदा आ पड़े.’’
उमा चुप बैठी थी. उस की मां की आंखों में आनंद के आंसू चमक रहे थे. सब गांव वालों ने स्वामीजी को सहायता देने का पूरा विश्वास दिलाया. उमा की मां स्वामीजी के चरणों को छू कर बोली, ‘‘महात्माजी, मेरे पल्ले कुछ नहीं है. बस, यह छोकरी है, उमा. मैं क्या दे सकूंगी.’’
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‘‘चिंता क्यों करती हो उमा की मां, उमा तुम्हारे घर की ही नहीं, पूरे गांव की देवी है. मैं मंदिर की धूपबाती का काम इसे ही सौंपना चाहता हूं. अगर इस ने भगवान को खुश कर लिया तो तुम्हें मनचाही मुराद मिल जाएगी.’’
‘‘स्वामीजी, मुझे कुछ नहीं चाहिए. इस नासपीटी का बापू घर लौट आए, यही बहुत है. मुझे धनदौलत की इच्छा नहीं है,’’ उमा की मां उदास हो कर बोली.
‘‘घबरा मत. तेरी मनसा जल्दी पूरी हो जाएगी. उमा को हरेक काम में हमारे साथ रहना पड़ेगा. कल भंडारा करेंगे और मंदिर की नींव रखेंगे.’’
अगले दिन भंडारा हुआ. गांव के लोगों ने 10 हजार रुपए इकट्ठे कर के गणेशानंद को भेंट कर दिए. आसपास के गांव वाले भी आए. सूर्यास्त तक बहुत गहमागहमी रही. गणेशानंद ऊंची चौकी पर बैठे थे. शिवानंद और निगमानंद भंडारे की देखरेख के लिए खड़े थे. प्रबंध उमा के हाथ में था. गांव वालों की वाहवाही हो उठी.
रात को खापी कर सब स्वामीजी की धूनी के पास इकट्ठे हो गए. उमा पास ही बैठी थी. उस ने चेहरे पर हलकी सी भभूत लगा रखी थी. भभूत के प्रभाव से वह और अधिक प्यारी लग रही थी. दहकते कोयलों की चमक में उस का मुखमंडल पलाश के फूल सा लग रहा था.
कीर्तन शुरू हुआ. शिवानंद ने करताल संभाली, निगमानंद ने चिमटा. स्वामीजी गाते, फिर उमा दोहराती और तब सब के स्वर में स्वर मिला कर दोनों शिष्य गाते. आधी रात बीत गई. लोग जादू में बंधे से बैठे रहे. अंत में मीरा का पद गाया गया. उस पद की ‘तेरे कारण जोगन हूंगी, करवट लूंगी कासी’ पंक्ति वातावरण में काफी देर तक तैरती रही. पूरी सभा भावविभोर हो उठी. निगम और शिवा उमा के पास बैठने से ही खुश थे.
शांतिपाठ के बाद सभी अपनेअपने घर चले गए. वहां रह गई उमा और उस की मां, जो गणेशानंद के पांव दबा रही थीं. तनिक हट कर अंधेरे में चुपचाप बैठा एक व्यक्ति सब बातों का जायजा ले रहा था. वह था अमरेश.
‘‘कल मैं तीर्थभ्रमण करने जाऊंगा. उमा, तुम भी साथ चलना. हृदय पवित्र हो जाएगा. आंखें देवीदेवताओं के
दर्शन कर के निहाल हो जाएंगी,’’ स्वामीजी उमा के चेहरे पर दृष्टि गड़ा कर बोले.
शिवा ने सुल्फे पर कोयले रख
कर कश लिया और फिर स्वामीजी की तरफ बढ़ा दिया. गणेशानंद ने पूरा दम लगाया. सुल्फे की लपट निकली, जिस में उमा का चेहरा उसे सुर्ख दिखाई दिया.
अमरेश अधीर हो उठा. उमा उस की सगी बहन नहीं थी, पर वह उसे बेहद चाहता था. किसी भी कार्य से पराएपन का आभास नहीं होने देता था. उसी की कृपा से वह चिट्ठीपत्री पढ़ने लायक हो गई. उसे उमा के कारण गांव वालों का कोपभाजन भी बनना पड़ा था. वह अपने को संभाल नहीं सका. वहीं बैठेबैठे बोला, ‘‘उमा, इधर आ.’’
उमा इस अप्रत्याशित स्वर से चौंक उठी. वह अमरेश के पास आ कर खड़ी हो गई, ‘‘क्या तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं है, जो इस तरह पहरा दे रहे हो?’’
‘‘विश्वास था, अब नहीं रहा,’’ अमरेश के स्वर में आक्रोश था.
‘‘क्यों, अब क्या हो गया?’’
‘‘मैं ने कुछ गलत नहीं कहा. इस भंगेड़ी के चक्कर में तेरी अक्ल मारी गई है. गांव वाले सब जा चुके हैं, तू फिर भी यहां डटी हुई है. अगर तेरी आंख में जरा भी शरम है तो यहां से चलती बन,’’ अमरेश अधिकारपूर्वक बोला.
विवाद सुन कर स्वामीजी और उमा की मां भी उन के पास आ पहुंचे. उमा स्वामीजी की नजरों में अपने को बहुत ऊंचा समझ रही थी. इसीलिए उस ने स्वयं को अपमानित महसूस किया.
वह तैश में आ कर बोली, ‘‘भैया, तुम हद से बाहर पांव रख रहे हो. मैं किसी के चक्कर में नहीं आई. तुम ईश्वर को मानते तो इस तरह की बातें न करते. जिस बात को तुम समझते नहीं हो, उस में टांग न अड़ाओ.’’
‘‘तुम मुझे गलत समझ रही हो. अगर तुम्हें अक्ल होती तो इन सुल्फा पीने वालों के ढोंग में न फंसतीं.’’
‘‘क्या भौंकता है बे बदजात,’’ गणेशानंद ने उस की ओर चिमटा घुमाया.
‘‘जरा होश में बातचीत करो. ऐसे पहुंचे हुए महात्मा होते तो घर बैठे पूजे जाते. यहां दरदर मारे न फिरते. ज्यादा चबरचबर किया तो मारतेमारते भुरकस बना दूंगा,’’ अमरेश ने उमा को बांह पकड़ कर खींचा, ‘‘भला इसी में है कि इस समय यहां से चलती बनो.’’
उमा ने उस का हाथ झटक दिया. वह गिरतेगिरते बचा. संभलने पर उस ने उमा के गाल पर थप्पड़ जमा दिया.
उमा की मां भभक पड़ी, ‘‘लुच्चे कहीं के, चला जा इसी वक्त मेरे आगे से, नहीं तो तेरा खून पी जाऊंगी,’’ इतना कह कर वह उमा को ले कर घर चल पड़ी.
उमा ने आग्नेय नेत्रों से अमरेश की ओर देखा. वह गुस्से में होंठ चबा कर बोली, ‘‘अमरेश, मेरे लिए तुम मर गए. तुम ने अपनी औकात पर ध्यान नहीं दिया. भला इसी में है कि मुझे अपनी घिनौनी सूरत न दिखाना.’’
अमरेश का चेहरा लटक गया. वह ठगा सा वहीं खड़ा रहा. सारी धरती उसे आंखों के सामने घूमती प्रतीत हो रही थी. स्वामीजी उस की ओर क्रूरतापूर्ण दृष्टि से घूर रहे थे. थोड़ी देर की चुप्पी के बाद स्वामीजी कुटिया में चले गए. अमरेश भी ढीले कदमों से घर की ओर मुड़ गया. उमा के व्यवहार से उस का हृदय बिंधा जा रहा था.
वह उस पर क्रुद्ध होते हुए भी उस का अहित नहीं सोच सकता था. उस ने रूठने पर उमा को न जाने कितनी बार मनाया था, कितनी बार उस की गीली आंखें पोंछी थीं. वह भी उस के तनिक से दुख में बेचैन हो जाती थी. जराजरा सी बात पर उसे कसमें दिलाती. दोनों में कभी ठेस पहुंचाने वाली बातें नहीं हुई थीं.
अगले दिन अमरेश को पता चला कि उमा और उस की मां तीर्थयात्रा के लिए स्वामी गणेशानंद के साथ चली गई हैं. सुन कर उस के पैरों तले जमीन खिसक गई. क्या इस दुनिया के सभी संबंध थोथे हैं? यह प्रश्न उस के मन को मथने लगा. उस जैसे अनाथ के लिए उमा और उस की मां सागर में नौका की तरह थीं. उस का समूचा हार्दिक प्रवाह उन्हीं की ओर था.
रिक्तता से उस का हृदय कराह उठा. उमा जो बचपन में उस के कंधे पर सवार रहती थी, उस की घोर उपेक्षा कर बैठी, यह कम दाहक बात न थी. शत्रु का शत्रुतापूर्ण आचरण क्षमा किया जा सकता है, परंतु मित्र का दुर्व्यवहार क्षमा करने पर भी फांस की तरह चुभता रहता है.
2 दिन बाद उमा की मां लौट आई. उस की सूनीसूनी आंखों को देख कर अमरेश सिहर उठा. उस के मुंह से आवाज नहीं निकल रही थी.
आखिर अमरेश ने ही पूछा, ‘‘मांजी, उमा कहां है?’’
वह उत्तर नहीं दे सकी और प्रत्युत्तर में फूटफूट कर रो पड़ी.
‘‘मांजी, बताओ, उमा को क्या हो गया? मेरी उस लाड़ली को कहां छोड़ आईं?’’ अमरेश व्याकुल हो उठा.
‘‘वह ढोंगी स्वामी उसे न जाने कहां उड़ा ले गया. मेरी बच्ची…’’ वह आगे और कुछ नहीं बोल सकी.
‘‘मैं ने कितना समझाया था कि इन लोगों पर भरोसा करना मूर्खता है, पर तुम दोनों ने मेरी एक न सुनी. मुझे पता था कि इन दुष्टों ने रात के समय देवी की एक मूर्ति अपनी कुटिया के पास धरती में दबा दी थी, लेकिन तुम्हारे ऊपर पागलपन सवार था.’’
उमा की मां ने सिर ऊपर नहीं उठाया. धुंधलका छाने लगा. अमरेश खाट पर बैठा था और उमा की मां लुटीहारी सी उस के सामने भूमि पर. दोनों चुप थे.
इसी बीच अमरेश का ध्यान दरवाजे की ओर गया. एक पगलाई सी परछाईं वहां जड़वत खड़ी थी. ज्यों ही वह खड़ा हुआ, परछाईं उस की ओर बढ़ी और दौड़ कर उस के गले से लिपट गई. वह उमा थी, उस के वस्त्र चिथेड़ेचिथड़े हो रहे थे.
‘‘अमरेश,’’ कह कर वह अचेत हो कर धरती पर गिर पड़ी.
अमरेश का दिल पसीज गया. उस ने उमा को चारपाई पर लिटा दिया. बहुत देर बाद उस की चेतना लौटी तो वह फफक पड़ी, ‘‘अमरेश, मुझे माफ मत करना. मैं ने तुम्हारी बात नहीं मानी. अपने हाथों से मेरा गला घोंट दो. मुझ पर पागलपन सवार था.
‘‘उस भेडि़ए ने मेरी इज्जत लूटी. उस के चेलों ने भी मुंह काला किया. उस के बाद मुझे 8 हजार रुपए में एक वेश्या के हाथ बेच दिया. मैं कहीं की नहीं रही. किसी तरह चकले से भाग आई, सिर्फ तुम्हारी सूरत देखने के लिए. मेरी तरफ एक बार अपना चेहरा तो घुमाओ.’’
अमरेश ने उस के सिर पर हाथ फेर कर सांत्वना देने की कोशिश की. काफी देर तक वह उस की आंखों की ओर टुकुरटुकुर देखती रही. उस समय अमरेश की आंखों में आंसू भर आए.
कुछ देर चुप रहने के बाद उमा जोर से खिलखिला पड़ी. उस ने अपनी मां को एक तरफ धकेल दिया, ‘‘मां, अब मैं ऐसे स्वामियों का खून करूंगी,’’ उस की क्रूर हंसी से दोनों सहम गए.
‘‘तुम ने मुझ को चौपट किया है, मां. तुम्हारी विषैली श्रद्धा मुझे डस गई. मैं तुम्हारा भी खून करूंगी,’’ वह फिर जोर से अट्टहास कर उठी.
उमा की मां सहम कर एक ओर हट गई. अमरेश ने उमा को पकड़ कर चारपाई पर लिटा दिया, ‘‘चुप रहो, उमा. मैं सब संभाल लूंगा.’’
उमा दोनों हाथों में सिर ले कर सुबकने लगी.