‘‘मैं जब घर पहुंची तो मेरी उंगली में पहले वाली अंगूठी देख कर मां ने पूछा था, ‘इस को लौटाया नहीं क्या?’
‘‘मैं ने डरतेडरते कहा था, ‘इस को वापस लेने से इनकार कर दिया मां.’
‘‘यह सुन कर मां ने कठोर आवाज में पूछा था, ‘किस ने? उस छोकरे ने या उस के बाप ने?’
‘‘मैं ने कहा था, ‘उस के पिताजी नहीं थे, आज वही था.’
‘‘मां ने कहा था, ‘अंगूठी निकाल दे. कल मैं लौटा आऊंगी. बेवकूफ लड़की, तुम नहीं जानती, यह सुनार का छोकरा तुझ पर चारा डाल रहा है. उस की मंशा ठीक नहीं है. अब आगे से उस की दुकान पर मत जाना.’
‘‘मां की बात मुझे बिलकुल नहीं सुहाई. पिछली बार जब मैं उस की दुकान पर गई थी तब तो दाम कम कराने के लिए उसी से पैरवी करवा रही थीं. अब जब इतना बड़ा उपहार अपनी इच्छा से दिया तो नखरे कर रही हैं.
‘‘फिर क्या... मैं हर वक्त उसी के बारे में सोचने लगी. उस ने मुझे भरोसा दिलाया कि कुछ दिनों बाद वह अपनी पत्नी को तलाक दे देगा और मुझ से शादी कर लेगा.’’
‘‘और तुम्हें विश्वास हो गया?’’
‘‘उस ने शपथ ले कर कहा है. मुझे विश्वास है कि वह धोखा नहीं देगा.’’
‘‘अब बताओ कि तुम यहां कैसे आई हो?’’ तृप्ति ने उत्सुकता से पूछा.
‘‘एक हफ्ता पहले जीजाजी आए थे. उन्होंने बाबूजी के सामने एक लड़के का प्रस्ताव रखा था. लड़का एक सरकारी दफ्तर में है, लेकिन बचपन से ही उस का एक पैर खराब है, इसलिए लंगड़ा कर चलता है. वह मुझ से बिना दहेज की शादी करने को तैयार है.