दिसंबर का महीना था. दोपहर के 2 बजे थे. सूरज चमक रहा था. अकसर 4 बजे खेतों पर आने वाला नरसिंह उस दिन 2 बजे ही आ गया था. खेत सुनसान पड़ा था. वहां सिंचाई का नामोनिशान नहीं दिखाई दे रहा था. ट्यूबवैल के चलने की भी आवाज नहीं आ रही थी. शायद बिजली नहीं थी. लेकिन उस समय तो कभी भी बिजली नहीं जाती थी. फिर क्या हुआ था? नरसिंह को कुछ समझ नहीं आया. नरसिंह ने एक बार फिर पूरे खेत पर अपनी नजर दौड़ाई. नौकर दुर्गा कहीं नहीं दिखाई दिया. बिजली नहीं होने की वजह से शायद वह अपने घर चला गया होगा.
बिजली का जायजा लेने के लिए नरसिंह ट्यूबवैल के कमरे की ओर बढ़ा. वहां दरवाजे पर ताला नहीं था, केवल सांकल लगाई जाती थी. हैरत की बात थी कि सांकल खुली हुई थी. नरसिंह कमरे का दरवाजा खोलने ही जा रहा था कि भीतर से किसी औरत और मर्द की हंसीठिठौली की आवाज सुनाई दी. नरसिंह ने अपना हाथ पीछे खींच लिया और दीवार में बने एक बड़े सूराख से भीतर देखने लगा. भीतर का नजारा देखते ही नरसिंह आगबबूला हो गया. उस का पूरा बदन पसीने से तरबतर हो गया. दरअसल, भीतर बिछी खाट पर उस की बेटी मालती और नौकर दुर्गा एकदूसरे से चिपके पड़े थे. उन के बदन पर एक भी कपड़ा नहीं था. नरसिंह को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि मालती कालेज जाने के बहाने यहां नौकर दुर्गा के साथ कब से गुल खिला रही है. इसी उधेड़बुन में वह चुपके से वापस हो लिया और घर की तरफ चल दिया.