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लेखिका- सुधा थपलियाल

मेरा सामान विनय के सामान के साथ बैंक के एक कोने में रख दिया गया. बैंक के उस कोने में मेज पर एक स्टोव, कुछ खाने की साम्रगी के डब्बों के अतिरिक्त चंद बरतन थे. बगल में ही एक चारपाई भी खड़ी कर के रखी हुई थी. बैंक ही आशियाना बन गया. खाना भी सुबह और शाम वहीं बैंक के अंदर बनता. पीने का पानी जफर पास के कुएं से ले आता. शौचालय का तो कोई प्रश्न ही नहीं था.

रात में जफर मेरी और विनय की खटमलों से भरी चारपाइयों को बाहर आंगन में लगा देता था. हमारे इर्दगिर्द मकान मालिक के परिवार के पुरुष सदस्यों की चारपाइयां भी बिछ जातीं. अकसर हमारी रातें खटमलों से युद्ध करते हुए गुजरती थीं.

मैं धीरेधीरे गांव को समझने लगा था. वह एक मुसलिम बहुल गांव था. 95 प्रतिशत लोग मुसलिम समुदाय के थे और शेष 5 प्रतिशत हिंदू समुदाय के. हमारे बैंक का मकान मालिक भी मुसलिम था. बैंक के अतिरिक्त वहां पर 3 और सरकारी विभाग के कार्यालय थे - ब्लौक, स्वास्थ्य और पशु चिकित्सालय. गांवों के विकास के न हो पाने का कारण सरकारी योजनाओं का सिर्फ पेपर तक सीमित रह जाने की वजह का मैं चश्मदीद गवाह बन गया. इन तीनों विभागों के कर्मचारी महीने में सिर्फ वेतन वाले दिन दिखाई देते थे. उस दिन तीनों विभागों के लोग इकट्ठा हो कर पिकनिक मनाते थे. स्वास्थ्य विभाग तो राम भरोसे था. पशु चिकित्सालय के कंपाउंडर को गांव के लोगों का डाक्टर बना देख मैं आसमान से जमीन पर गिरा.

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