Hindi Story : हम जब इस फ्लैट में नएनए आए तो ऐसे माहौल में रहने का अनुभव पहली बार हुआ. अजीब सा लग रहा था. इतने पासपास दरवाजे थे कि लगता था जैसे अपने ही बड़े से घर के कमरों के दरवाजे हैं. धीरेधीरे सब व्यवस्थित होने लगा. हमें मिला कर कुल 4 घर थे या यों कह सकते हैं कि 4 दरवाजे दिखाई पड़ते थे. अकसर सभी दरवाजे बंद ही रहते थे, पर उन के खुलने और बंद होने के स्वरों से पता चलता था कि उन के भीतर लोग रहते हैं.
मैं मन ही मन सोचती, ‘एक भी परिवार से जानपहचान नहीं हुई. ऐसे में मैं कैसे सारा समय अकेले बिता पाऊंगी,’ बेटियां सुबह अपनेअपने काम पर चली जातीं और शाम को लौटतीं. ऐसा ही शायद अन्य घरों में भी होता था, तभी तो दिनभर हलचल बहुत कम रहती. ‘सन्नाटे की आदत डालनी होगी,’ यह सोच कर मैं शांत रही.
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एक दिन बगल वाले परिवार में छोटे बच्चे के रोने का स्वर सुनाई दिया. शायद वह परिवार उसी दिन लौटा था. सुबह का काम निबटा कर सब्जी लेने को बाहर निकली. दरवाजे पर ताला लगाते हुए लगा, मानो बगल वाले दरवाजे के भीतर कोई सरक गया है.
फिर उधर से गुजरते हुए दृष्टि पड़ ही गई. सोफे पर एक वृद्ध महिला एक बच्चे को ले कर बैठी मुसकरा रही थीं. उस मुसकराहट में एक विशेष आत्मीयता थी, जैसे बहुत अरसे की परिचिता रही हों. मैं भी मुसकराई.
सब्जी ले कर वापस आई, तब तक बगल का दरवाजा बंद हो चुका था. मैं ने उस ओर से ध्यान हटाने का प्रयास किया और सोचा, ‘आजकल हर कोई अपनी दुनिया में मस्त रहना चाहता है.’
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दोपहर में भोजन कर के एक झपकी ली ही थी कि घंटी का स्वर गूंज उठा. दरवाजा खोला तो देखा, वह बगल वाली वृद्ध महिला व एक युवती बच्चे को ले कर सामने खड़ी मुसकरा रही हैं.
युवती ने अंगरेजी में अपना परिचय दिया. वृद्ध महिला उस की सास थीं. उसी दिन वे लोग गांव से लौटे थे. बच्चे के जन्म के बाद युवती अपनी सास को साथ ले कर आई थी. उस के पति डाक्टर थे और अकसर बाहर ही रहते थे.
उस दिन कुछ विशेष बातें न हो सकीं. परिचय का ही आदानप्रदान पहली मुलाकात में काफी रहता है. युवती हिंदी नहीं बोल सकती थी क्योंकि वह उत्तर भारत कभी नहीं गई थी. वह आंध्र प्रदेश की रहने वाली थी पर अंगरेजी अच्छी बोल सकती थी. लेकिन वह वृद्ध महिला न हिंदी बोल सकती थीं, न समझ सकती थीं. मैं ने मन को तसल्ली दी कि कम से कम युवती से तो विचारविनिमय हो ही सकता है.
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इस प्रकार प्रतिदिन हमारा मिलनाजुलना होने लगा. बिलकुल बगल वाला फ्लैट था. एक ईंट की दीवार ने विभाजन किया हुआ था 2 परिवारों का. वृद्ध महिला अपना काम समाप्त कर के बहू को निर्देश दे कर मेरे पास आ बैठतीं.
मैं उन्हें देखती रहती. वे ठेठ आंध्र परिवेश की महिला थीं. गाढ़े रंगों के ब्लाउज व कीमती मगर सूती, जरी किनारे की साडि़यां पहनतीं. गले में 4 लड़ी की सोने की जंजीर, कान व नाक में हीरे दपदपाते रहते. सामने के दांत कुछ ऊंचे पर सदा मुसकराता चेहरा, जैसे अब कुछ कहने ही वाली हों, पर कह न पा रही हों.
कुल मिला कर उन का व्यक्तित्व काफी खुशनुमा था. माथे पर कभीकभी चंदन लगा देख मैं समझ गई कि वे भी विधवा हैं. हमारे उत्तर भारत में विधवा पर ‘सफेदी’ चढ़ जाती है, पर दक्षिण में ऐसी कोई मान्यता नहीं है. सिंदूर तो सभी का पुंछ जाता है. बस, यही समानता है.
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पड़ोसिन वृद्ध महिला कभीकभी मेरे पास आ कर बैठतीं अवश्य, पर हम विचारों का आदानप्रदान या तो बहू के सामने अंगरेजी में या फिर संकेतों से ही किया करतीं.
एक अनजान शहर में, जहां अपना कहने को कोई न था, हमारी पड़ोसिन व उस का परिवार ही हमारा सहारा बन गए थे. भाषा, प्रांत व रीतिरिवाजों की भिन्नता भी हमारे बीच दीवार न बन सकी. लेकिन इस के अलावा कुछ ऐसी समानता भी थी जो हमें एकदूसरे के सुखदुख में साझीदार बनाए हुए थी. आखिर क्या थी वह समानता जो हर सीमा से परे थी?
एक दिन वे मेरे पास बैठी थीं, तब पता नहीं क्या सूझी जो तपाक से उठ कर मेरे पति की तसवीर के पास जा कर खड़ी हो गईं. तसवीर को गौर से देखती रहीं. फिर अनायास ही उन की आंखों से आंसू झरने लगे. मैं भी स्वयं को न रोक सकी. अनजाने ही वे तेलुगू में लगातार कुछ कहती रहीं.
मुझे तेलुगू थोड़ीथोड़ी समझ में आ जाती थी. वे कह रही थीं, ‘‘इतनी कम आयु रही होगी आप के पति की…खैर…होनी को कौन टाल सकता है…’’
हम दोनों थोड़ी संयत हुई ही थीं कि बहू आ गई. वह सास को खाना खाने के लिए बुलाने आई थी.
इस प्रकार वह वृद्धा लगभग हर रोज मेरे पास आ कर बैठतीं. बस, खामोश बैठी रहतीं.
मुझे भी उन का आना और खामोश बैठा रहना बेहद अच्छा लगता. बल्कि यों कहूं कि मेरी आदत हो गई थी. कभीकभार मैं उन के घर जा कर बैठ जाती या वे आ जातीं.
उन के घर जाने से एक लाभ यह था कि वृद्धा जो भी बोलतीं, उस का अनुवाद अंगरेजी में कर के बहू मुझे बता देती थी. इतना स्नेह वे बहू पर छिड़कतीं, पोते पर वारीवारी जातीं. उधर बहू भी ‘अम्माअम्मा’ कहते न थकती थी.
भाषा की अड़चन होते हुए भी धीरेधीरे इन बैठकों में मैं ने आंध्र प्रदेश के कई व्यंजन, पहनावा, रीतिरिवाज सीख ही लिए थे. उधर, उन्होंने भी उत्तर भारतीय व्यंजन बनाने सीखे, विवाह आदि की रस्में सुनीं व समझीं. हम दोनों ने ही हर विषय पर बातें कर के एकदूसरे के विचार जाने और इस प्रकार हमारी गहरी मित्रता हो गई, पर यह मित्रता बहुत दिनों तक न चल सकी. 3-4 महीने बाद एक दिन बहू ने बताया कि अम्मा वापस गांव रहने जा रही हैं.
वैसे मुझे पता था कि वे गांव में ही रहती हैं. यहां तो पोते की देखभाल के लिए बहू की सहायक बन कर कुछ ही महीनों के लिए आई हैं. पर अब शायद मुझे उन का जाना अच्छा नहीं लग रहा था. मैं ने उन से कहा, ‘‘वापस क्यों जा रही हैं? यहीं रहिए न. अब तो पोता भी है, मन लगा रहेगा.’’
‘‘नहीं, अब तो जाना ही होगा. उधर कौन देखेगा. वह सब भी तो इसी के लिए देखना पड़ता है. इतनी जमीन व खेती सब इसी के लिए ही तो करना है.’’
चलते समय वे पोते को गोदी में भींच कर खूब रोईं, बहू से भी लिपट कर रोईं. मैं भी गले मिली. आखिर अपनापा तो हो ही जाता है. डाक्टर साहब मां को ले कर चले गए. दूसरे दिन निर्धारित समय पर बहू मेरे पास आई. वह रोंआसी हो रही थी. कहने लगी, ‘‘अम्मा की बेहद याद आ रही है, सो नहीं रह सकी. डाक्टर साहब तो कल लौट पाएंगे.’’
मेरी भी आंखें भर आईं. कितना सन्नाटा था उस वृद्ध महिला के बिना. फिर भी बहू को दिलासा दिया, ‘‘मन छोटा न करो. अकेली नहीं हो तुम, हम लोग भी हैं. मैं हूं तुम्हारे पास.’’
लिपट गई बहू मुझ से. रोतेरोते बोली, ‘‘मेरी मां नहीं हैं. इन अम्मा ने दोहरी भूमिका निभाई मेरे साथ. अब मुझ से कह गई हैं कि तेरी पड़ोसिन भी मेरी बहन हैं, उन्हें मेरी ही जगह पर समझना. उन की तीसरी बेटी हो जाएगी तू…’’
इतनी बड़ी बात, इतना विश्वास मुझ पर. शायद इतना तो मैं ने कुछ किया भी न था उन के लिए. पर नहीं, यह तो अपनेअपने मानने की बात है. जिस के मन में जितना स्नेह, अपनत्व भरा हो वह दूसरे में भी उतना ही मान कर चलता है.
बहू काफी भावुक रही 2-3 दिन तक. धीरेधीरे सहज होने लगी. मेरे पास आती, कभी किसी काम से, कभी यों ही बैठने, अभी तक हम इधरउधर की बातें ही करती थीं. पर एक दिन अचानक न जाने कैसे बात छिड़ गई और मैं पूछ बैठी, ‘‘अम्मा के पास उधर कौन रहता है? क्या तुम्हारे जेठ, देवर कोई ननद वगैरह हैं?’’
बहू जैसे अपनी तरफ से नहीं, पर मेरे शुरू करने की प्रतीक्षा में ही थी. घर की बातें थीं, पर फिर भी उस ने मुझे बताईं.
वह बोली, ‘‘ससुराल वाले बहुत पैसे वाले हैं, व्यापारी हैं. मूंगफली, नारियल व अन्य फलों की खेती होती है. ससुर 2 भाई थे. बड़े भाई से ससुर की न पटती थी. आएदिन झगड़े होते थे कि एक दिन ससुर की हत्या कर दी गई. गांव वाले तो कहते थे कि भाई ने ही हत्या कराई थी.
‘‘सब रोपीट कर रह गए. मेरी सास अपनी अकेली संतान को ले कर वहीं डटी रहीं. उन के भाई, भतीजे सहायता के लिए आसपास ही रहते थे. खेती में आधा हिस्सा कराया. बेटे को डाक्टर बनाया, विवाह किया.
‘‘पर अब भी निश्ंिचत नहीं हैं. पति के हिस्से की खेती व जायदाद की देखभाल अकेली ही करती हैं. बेटे को शहर में रहने दिया है, ताकि उसे सभी सुखसुविधाएं मिलती रहें और स्वयं अकेली उधर गांव में जूझती रहती हैं. बेटे को विदेश भेजने की आकांक्षा है, उच्च शिक्षा के लिए.’’
मैं हैरान थी. उन की वह भोली मुसकराहट याद हो आई. मैं सोचने लगी, इतनी साहसी महिला, कैसे देखा होगा वह क्षण, जब कुल्हाड़ी से कटा पति का निर्जीव शरीर सामने पड़ा होगा.
उफ, मेरा तो रोना निकल गया. बहू ने मुझे धीरज बंधाया, ‘‘आप रो रही हैं? जब कि अम्मा आप को आदर्श मानती हैं. वे मुझे समझा कर गई हैं कि इन्हें देखो, इन से साहस सीखो. 2 बेटियों को ले कर इतने बड़े शहर में अकेली रहती हैं. सब काम स्वयं संभालती हैं. ऐसी महिला मेरी ही कोई अपनी हो सकती है. तभी तो कहती हैं, मेरे न रहने पर उन्हें ही अपना बुजुर्ग मानना.’’
बहू चली गई. मैं अकेली बैठी सोचती रह गई कि धन्य है वह साहसी महिला.
यह बात इतना अवश्य स्पष्ट करती थी कि भाषा, प्रांत आदि की समानता न होने पर भी हम दोनों में कितनी बड़ी समानता थी. बिना पुरुष संरक्षण के कठिन स्थिति का सामना करते हुए हम दोनों ही जीवनयात्रा पर आगे बढ़ती जा रही थीं. अब वे अगली बार जब यहां आएंगी तब मुझे और भी अपनीअपनी सी लगेंगी, जैसे एक विशेष रिश्ता हम दोनों के बीच कायम हो गया था.