‘प्रिय माधव,
‘मैं जानती हूं कि मैं तुम्हारे लिए अबूझ पहेली ही रही. मैं ने कभी तुम्हें कोई सुख नहीं दिया, न प्रेम, न संतान और न जीवन. मैं तुम्हारे लायक तो कभी थी ही नहीं, लेकिन तुम जैसे अच्छे पुरुष ने मुझे स्वीकार किया. मुझे तुम्हारा सान्निध्य मिला यह मेरे जन्मों का ही फल है, लेकिन मुझे दुख है कि मैं कभी तुम्हारा मान नहीं कर पाई, तुम्हारे जीवन को सार्थक नहीं कर पाई. तुम्हारी दोस्त, पत्नी तो बन गई लेकिन आत्मांगी नहीं बन पाई. मेरा अपराध क्षम्य तो नहीं लेकिन फिर भी हो सके तो मुझे क्षमा कर देना माधव, तुम जैसे महापुरुष का जीवन मैं ने नष्ट कर दिया, आज तुम्हारा कोई तुम्हें अपना कहने वाला नहीं, सिर्फ मेरे कारण.
‘मैं जानती हूं तुम ने मेरी कोई बात कभी नहीं टाली इसलिए एक आखिरी याचना इस पत्र के माध्यम से कर रही हूं. माधव, जब मेरी अंतिम विदाईर् का समय हो तो मुझे उसी माटी में मिश्रित कर देना जिस माटी ने मेरा निर्माण किया, जिस की छाती पर गिरगिर कर मैं ने चलना सीखा. जहां की दीवारों पर मैं ने पहली बार अक्षरों को बुनना सीखा.
जिस माटी का स्वाद मेरे बालमुख में कितनी बार जीवन का आनंद घोलता रहा. मुझे उसी आंगन में ले चलना जहां मेरी जिंदगी बिखरी है. ‘मैं समझती हूं कि यह तुम्हारे लिए मुश्किल होगा, लेकिन मेरी विनती है कि मुझे उसी मिट्टी की गोद में सुलाना जिस में मैं ने आंखें खोली थीं. तुम ने अपने सारे दायित्व निभाए, लेकिन मैं तुम्हारे प्रेम को आत्मसात न कर सकी. इस डायरी के पन्नों में मेरी पूरी जिंदगी कैद थी, लेकिन मैं ने उस का पहले ही अंतिम संस्कार कर दिया, अब मेरी बारी है, हो सके तो मुझे क्षमा करना.
‘तुम्हारी कृतिका.’
माधव सहम गया, डायरी के कोरे पन्नों के सिवा कुछ नहीं था, कृतिका यह क्या कर गई अपने जीवन की उस पूजा पर परदा डाल कर चली गई, जिस में तुम्हारी जिंदगी अटकी है. आज अस्पताल में हरेक सांस तुम्हें हजारहजार मौत दे रही है और हम सब देख रहे हैं. माधव ने डायरी के अंतिम पृष्ठ पर एक नंबर लिखा पाया, वह पूर्णिमा का नंबर था. पूर्णिमा कृतिका की बचपन की एकमात्र दोस्त थी. माधव ने खुद से प्रश्न किया कि मैं इसे कैसे भूल गया. माधव ने डायरी के लिखा नंबर डायल किया.
‘‘हैलो, क्या मैं पूर्णिमाजी से बात कर रहा हूं, मैं उन की दोस्त कृतिका का पति बोल रहा हूं,‘‘
दूसरी तरफ से आवाज आई, ‘‘नहीं मैं उन की भाभी हूं. दीदी अब दिल्ली में रहती हैं.’’ माधव ने पूर्णिमा का दिल्ली का नंबर लिया और फौरन पूर्णिमा को फोन किया, ‘‘नमस्कार, क्या आप पूर्णिमाजी बोली रही हैं.’‘
‘‘जी, बोल रही हूं, आप कौन ’’
‘‘जी, मैं माधव, कृतिका का हसबैंड.’’
पूर्णिमा उछल पड़ी, ‘‘कृतिका. कहां है, वह तो मेरी जान थी, कैसी है वह कब से उस से कोई मुलाकात ही नहीं हुई. उस से कहिएगा नाराज हूं बहुत, कहां गई कुछ बताया ही नहीं,’’ एकसाथ पूर्णिमा ने शिकायतों और सवालों की झड़ी लगा दी. माधव ने बीच में ही टोकते हुए कहा, ‘कृतिका अस्पताल में है, उस की हालत ठीक नहीं है. क्या आप आ सकती हैं मिलने ’’ पूर्णिमा धम्म से सोफे पर गिर पड़ी, कुछ देर दोनों ओर चुप्पी छाई रही. माधव ने पूर्णिमा को अस्पताल का पता बताया. ‘‘अभी पहुंचती हूं,’’ कह कर पूर्णिमा ने फोन काट दिया और आननफानन में अस्पताल के लिए निकल गई. माधव निर्णयों की गठरी बना कर अस्पताल पहुंच गया. कुछ ही देर बाद पूर्णिमा भी वहां पहुंच गई. डा. सुकेतु की अनुमति से पूर्णिमा को कृतिका से मिलने की आज्ञा मिल गई.
पूर्णिमा ने जैसे ही कमरे में प्रवेश किया, कृतिका को देख कर गिरतेगिरते बची. सौंदर्य की अनुपम कृति कृतिका आज सूखे मरते शरीर के साथ पड़ी थी. पूर्णिमा खुद को संभालते हुए कृतिका की बगल में स्टूल पर जा कर बैठ गई. उस की ठंडी पड़ती हथेली को अपने हाथ से रगड़ कर उसे जीवन की गरमाहट देने की कोशिश करने लगी. उस ने उस के माथे पर हाथ फेरा और कहा, ‘‘कृति, यह क्या कर लिया तूने कौन सा दर्द तुझे खा गया बता मुझे कौन सी पीड़ा है जो तुझे न तो जीने दे रही है न मरने. सबकुछ तेरे सामने है, तेरा परिवार जिस के लिए तू कुछ भी करने को तैयार रहती थी, तेरा उन का सगा न होना यही तेरे लिए दर्द का कारण हुआ करता था, लेकिन आज तेरे लिए वे किसी सगे से ज्यादा बिलख रहे हैं. इतने समझदार पति हैं फिर कौन सी वेदना तुझे विरक्त नहीं होने देती.’’ कृति की पथराई आंखें बस दरवाजे पर टिकी थीं, उस ने कोई उत्तर नहीं दिया.
पूर्णिमा कृति के चेहरे के भावों को पढ़ने की कोशिश कर रही थी, कुछ देर उस की आंखों में उस की पीड़ा खोजते हुए पूर्णिमा ने धीरे से कहा, ‘‘शेखर, कृति की पथराई आंख से आंसू का एक कतरा गिरा और निढाल हाथों की उंगलियां पूर्णिमा की हथेली को छू गईं. पूर्णिमा ठिठक गई, अपना हाथ कृतिका के सिर पर रख कर बिलख पड़ी, तू कौन है कृतिका, यह कैसी अराधना है तेरी जो मृत्यु शैय्या पर भी नहीं छोड़ती, यह कौन सा रूप है प्रेम का जो तेरी आत्मा तक को छलनी किए डालता है.’’ तभी आवाज आई, ‘‘मैडम, आप का मिलने का समय खत्म हो गया है, मरीज को आराम करने दीजिए.’’
पूर्णिमा कृतिका के हाथों को उम्मीदों से सहला कर बाहर आ गई और पीछे कृतिका की आंखें अपनी इस अंतिम पीड़ा के निवारण की गुहार लगा रही थीं. उस की पुतलियों पर गुजरा कल एकएक कर के नाचने लगा था. कृतिका नाम मौसी ने यह कह कर रखा था कि इस मासूम की हम सब माताएं हैं कृतिकाओं की तरह, इसलिए इस का नाम कृतिका रखते हैं. कृतिका की मां उसे जन्म देते ही इस दुनिया से चल बसी थीं. मौसी उस 2 दिन की बच्ची को अपने साथ लेआई थीं, नानी, मामी, मौसी सब ने देखभाल कर कृतिका का पालन किया था. जैसेजैसे कृतिका बड़ी हुई तो लोगों की सहानुभूति भरी नजरों और बच्चों के आपसी झगड़ों ने उसे बता दिया था कि उस के मांबाप नहीं हैं. परिवार में प्राय: उसे ले कर मनमुटाव रहता था. कई बार यह बड़े झगड़े में भी तबदील हो जाता, जिस के परिणामस्वरूप मासूम छोटी सी कृतिका संकोची, डरी, सहमी सी रहने लगी. वह लोगों के सामने आने से डरती, अकसर चिड़चिड़ाया करती, लोगों की दया भरी दलीलों ने उस के भीतर साधारण हंसनेबोलने वाली लड़की को मार डाला था.