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आजकल रिश्ते वाकई मतलब के हो गए हैं. सब की छोड़ो, पर अपनी बेटी भी...उस का सबकुछ तो बच्चों का ही था. फिर भी उन का मन इतना मैला क्यों है. उस की आंखों से आंसू निकल कर उस के गालों पर ढुलकते चले गए. क्या बताएगी कल वह समीर को अपने अतीत के बारे में. क्या यही कि अपने अतीत में उस ने हर रिश्ते से सिर्फ धोखा खाया है. इस से अच्छा तो यह है कि वह कल समीर से मिलने ही न जाए. इतने बड़े शहर में समीर उसे कभी ढूंढ़ नहीं पाएगा. लेकिन बचपन के दोस्त से मिलने का मोह वह छोड़ नहीं पा रही थी क्योंकि यहां, इस स्थिति में इत्तफाक से समीर का मिल जाना उसे बहुत सुकून दे रहा था. समीर उस के मन के रेगिस्तान में एक ठंडी हवा का झोंका बन कर आया था, इस उम्र में ये हास्यास्पद बातें वह कैसे सोच सकती है? क्या उस की उम्र में इस तरह की सोच शोभा देती है. ऐसे तमाम प्रश्नों में उस का दिमाग उलझ कर रह गया था. वह अच्छी तरह जानती थी कि यह कोई वासनाजनित प्रेम नहीं, बल्कि किसी अपनेपन के एहसास से जुड़ा मात्र एक सदभाव ही है, जो अपना दुखदर्द एक सच्चे साथी के साथ बांटने को आतुर हो रहा है. वह साथी जो उसे भलीभांति समझता था और जिस पर वह आंख मूंद कर भरोसा कर सकती थी. यही सब सोचतेसोचते न जाने कब उस की आंख लग गई.

सुबह 7 बजे से ही बेटी ने मांमां कह कर उसे आवाज लगानी शुरू कर दी. सही भी है, वह एक नौकरानी ही तो थी इस घर में, वह भी बिना वेतन के, फिर भी वह मुसकरा कर उठी. उस का मन कुछ हलका हो चुका था. उसे देख बेटी ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘क्यों मां, कितनी देर तक सोती हो? आप को तो मालूम है मैं सुबहसुबह आप के हाथ की ही चाय पीती हूं.’’

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