गुड़ अब पहले जैसा नहीं रहा. उस में मिलावट होने लगी है. वह अपना रंग छोड़ रहा है. उसे गोरेपन की क्रीम ने डस लिया है. सफेद हो चला है. इसलिए उस के औषधि गुण कम हो रहे हैं. पहले वह दवा के रूप में भी जाना जाता था. अब ट्रे में महंगी क्रौकरी में बैठा मुसकराता है. जमाना भी तो बदला है. पहले से कहा जाता रहा है, ‘गुरु गुड़, चेला शक्कर.’

आज का गुरु अब पहले जैसा नहीं रहा. एकदम बदल गया है. पहले वह गुड़ बन कर चेलों को शक्कर बनाता था, अब तो वह खुद ही शक्कर हो चला है. कैमिकल में नहा कर गोरा हो गया है और ड्राइंगरूम में पहुंच गया है. अब वह डली या ढेली में नहीं, बल्कि चम्मच से जाना जाता है.

पहले गुरु को गोविंद तक पहुंचने का जरिया माना जाता था. इसीलिए कबीर ने उसे गोविंद से बड़ा माना है. किताबों में तो आज भी यही लिखा है. कुछ लोग इसे शाश्वत सत्य मानते हैं. पर अब गुरु का काम गोविंद से मिलाना नहीं रहा, बल्कि आज का गोविंद ही गुरु को आदेश देता है, जाओ आदमी व औरत गिनो. जानवर गिनो. नालियां गिनो. शौचालय गिनो. मलेरिया की गोलियां बांटो. डेंगू की दवा बांटो. सैनिटरी नैपकिन बांटो. मैं जिसे कहूं उसे परीक्षा में पास करो. उसे टौपर बनाओ. और गुरु ‘जो हुक्म मेरे आका’ कह कर कोर्निश बजाता है.

गुरु अब सिर्फ सरकारी मुलाजिम ही नहीं रहा. चंदे की चाह में सरकार ने शिक्षा को पूंजीपतियों के हाथों बेच दिया. गुरु सरस्वती छोड़ लक्ष्मी की वंदना करने लगा है. अब वह कौर्पोरेट गोविंद के दरबार का सैल्समैन है. उस का काम शिक्षा बेचने के लिए ग्राहकों को पकड़ना है. कौर्पोरेट गोविंद उसे ग्राहकों का टारगेट देता है. हर ग्राहक पर उसे कमीशन मिलता है और वह उसे पूरा करने में जुट जाता है. जैसे, सरकारी शिक्षक ज्ञान देने के बजाय जानवर, नालियां और शौचालय ढूंढ़ता फिरता है.

गुरु आजकल एकदो पट्ठों को अपना असिस्टैंट सेल्सपर्सन बनाता है और उन्हें टारगेट बांट देता है. चूंकि वह शिक्षा अंडरवर्ल्ड जगत का जरा सा कण है, इसलिए महल्लों का सर्वे करवाता है, रिपोर्ट बनाता है और लैपटौप पर बौस को प्रेजैंटेशन देता है. टारगेट पूरा होने पर उसे एक साल का ऐक्सटैंशन मिलता है. अगले साल का अलग टारगेट. जैसा, आज के फाइवसेवन स्टार अस्पतालों में डाक्टरों का टारगेट और भविष्य मरीजों की संख्या व मरीज को अस्पताल में रोके रखने पर तय होता है.

आज कबीर होते तो लिखते, ‘गुंडे गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पांय.’ गुरु आज न तो ब्रह्मा रहा है न विष्णु रहा है और न ही कोई अन्य देव. उसे गोविंद तक पहुंचने के लिए गुंडों की जरूरत पड़ने लगी है. लेकिन गोविंद भी तो अब पहले जैसे कहां रह  गए हैं? उसे गुरु की जरूरत नहीं रही. उसे तो बिना तर्क लगाए मुंडी हिलाने वाले बैल चाहिए. मध्य प्रदेश को ही लें. पशुपतिनाथ के गांव में हाल ही में गुरु ने समय की आहट पहचान कर गुंडे के पैर पड़े और चेलेगीरी का मान बढ़ाया. अपनी तत्काल बुद्धि की तारीफ कर कहा, ‘बलिहारी गुंडेजी आप की, नौकरी दी बचाए.’

शिक्षक दिवस पर शिष्यों से पैर पड़वाने और पादपूजन करवाने वाले गुरुओं की देशभर की गुरु मंडलियों ने नौकरी को विद्या से बड़ी बताने वाले गुरु को खामोश बधाइयां दीं. उन्होंने मराठी कहावत की याद दिलाई कि वक्त पड़ने पर गधे के भी पैर पड़ना चाहिए. गुरु जगत पैर पड़ने के लिए गधे ढूंढ़ रहा है. एक ढूंढ़ो, हजार मिलते हैं.

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कुछ साल पहले मध्य प्रदेश के ही सांदीपनि आश्रम वाले शहर में चेलों ने गुरु की जम कर ‘पूजा’ की और उस की जान ले कर विजय पर्व मनाया. चूंकि विजेता सरकारी छात्र एजेंसी के वीर थे, इसलिए जांच में गुरु को बीमार बता कर चेलों को क्लीन चिट दी गई. सरकार को भी तो अपनी गद्दी बचानी थी.

विक्रमादित्य के न्याय के नाम पर अपनी मूंछें ऐंठने वाले अपना मुंडन करवा कर सूतक में बैठ गए. अब गुरु ने ज्ञान को झाड़ू मार कर कोने में कर दिया है. जब नौकरी ही नहीं रहेगी तो ज्ञान किस काम का? उस दिन गुरु ने चेले की चरणपूजा की, अच्छा किया. कब तक ज्ञान देने वाले बने रहेंगे? नए जमाने से कुछ सीखना चाहिए ना. कब तक गुरुब्रह्मा रटाते रहेंगे?

आज गुरु के चरणों में ज्ञान नहीं रहा. उस के तो दिमाग में भी नहीं है. अब नई गुरुशिष्य परंपरा पनपेगी. गुरु अपने शिष्य के पैर पड़ेगा. हो सकता है पैर धोए भी. शुरुआत हो चुकी है. गुरु बदल गया है. सचमुच.      ऐसा भी होता है.

मेरे घर के सामने एक बुजुर्ग महिला रहती हैं. एक दिन वे अपने दरवाजे पर खड़ी थीं कि एक टैंपो वाले ने एक कुत्ते को ठोकर मार दी. टैंपो वाला चला गया. उस कुत्ते के पैर में चोट लग गई थी. सो, वह चलफिर नहीं पा रहा था.

बुजुर्ग महिला ने कुत्ते को पानी पिलाया. उस के घाव को धोया और साफ कर के दवा लगा दी. अब वे सुबहशाम कुत्ते को रोटी देतीं तथा समयसमय पर घाव पर दवा भी लगा देतीं.

एक हफ्ते बाद उन का लड़का मुंबई से उन के पास आया. लड़का बहुत ही बीमार था. 15 दिनों से बुखार आ रहा था. सो, लड़का इलाज व उचित देखरेख के लिए अपनी मां के पास आया. उन बुजुर्ग महिला ने बेटे को डाक्टर को दिखाया. लड़के के मर्ज की जांच करवाई और दवा आदि की व्यवस्था की. बेटा उन की देखरेख में ठीक होने लगा.

एक महीने बाद लड़का ठीक हो गया और वापस नौकरी पर जाने लगा. कुत्ता भी ठीक हो कर चलनेफिरने लगा. कुत्ता तो उन बुजुर्ग महिला का पालतू हो गया और उन्हीं के दरवाजे पर बैठा रहता. लड़का जो ठीक हो कर मुंबई गया तो मां का हालचाल पूछना तो दूर, उस ने अपना हालचाल भी देने का कष्ट नहीं किया. यह देख कर लगता है जानवर इंसान से बेहतर है.   उपमा मिश्रा (सर्वश्रेष्ठ)

हमारी ननद नेहा को शारीरिक रूप से जब भी कोई दिक्कत होती, तो उन के पति, यह कह कर गांव से शहर हमारे पास मायके छोड़ जाते कि गांव में उचित इलाज संभव नहीं.

एक बार दीदी अपने पति और ससुर के साथ आईं. चायनाश्ते के बाद दीदी के ससुर बोले, ‘‘नेहा, घर में कुछ काम नहीं करवा पाती, बीमार रहती है. परिवार बड़ा होने के कारण आनाजाना लगा रहता है. गांव में उचित इलाज न होने के कारण हम नेहा को कुछ दिनों के लिए यहीं छोड़ कर जा रहे हैं. जब यह ठीक हो जाए, बता देना, हम ले जाएंगे.’’

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यह सुन कर मेरी आंखों में आंसू आ गए. घर के सब लोग शांत खड़े रहे. उन की नजर में औरत जब तक स्वस्थ है, घर का काम करने के लायक है, तभी तक वह ससुराल में रहने के काबिल है.

प्रीति गुप्ता

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