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पता नहीं क्या जादू था उस की पर्सनेलिटी में कि प्रथम बार में ही मानो वह उन्हें अपना दिल दे बैठी. कुछ दिनों के बाद ही पापा का तबादला दूसरे शहर में हो गया और बात आईगई हो गई. धीरेधीरे पुराने शहर की यादें भी मनमस्तिष्क से धूमिल होने लगी थी. इन 4 वर्षों में वह बालिका से किशोरी हो गई थी और 11वीं कक्षा में आ गई थी. तभी एक दिन पापा ने बताया, ‘‘शर्माजी का बेटा प्रदीप अब अपनी एमए की पढ़ाई यहीं रह कर करेगा.’’

उसे पापा की बातों पर आश्चर्य तो हुआ, पर यकीन नहीं हो पाया. वह पापा से बोली, ‘‘पापा वो... शर्माजी का बेटा...’’

पापा ने कहा, ‘‘हां वही, जो तुम्हें 8वीं में गणित पढ़ाया करते थे.’’

आजकल की भांति उस समय टीवी, मोबाइल फोन और सोशल मीडिया जैसी तकनीक तो थी नहीं जो मैसेज कर पाती और न ही वेलेंटाइन डे जैसे कोर्ई दिवस होते थे, जो प्यार का मतलब उम्र से पहले से समझ आ जाए. आजकल तो जराजरा से बच्चे प्रपोज करते, बौयफ्रैंडगर्लफ्रैंड बनाते नजर आते हैं.

12वीं में पढ़ने वाली रागिनी उस समय ‘‘प्यार’’ नामक शब्द के बारे में बहुतकुछ तो नहीं जानती थी, पर हां, शर्माजी के बेटे प्रदीप का आना उसे अच्छा लग रहा था. न जाने क्यों दिल में गुदगुदी और कानों में मधुर घंटियां बजने लगीं थीं.

प्रदीप की कक्षाएं प्रारंभ हो गई थीं. वे होस्टल में रह कर अपनी स्नातकोत्तर की पढ़ाई कर रहे थे. जबतब घर भी आ जाया करते थे. अप्रत्यक्ष रूप से प्रदीप ने रागिनी और 10वीं में पढ़ने वाली उस की बहन को पढ़ाने की जिम्मेवारी भी ले ली थी. किशोरवय की रागिनी एवं युवा प्रदीप के मध्य न जाने कब प्यार की बयार बहने लगी थी. उन दोनों को ही इस का आभास नहीं हुआ.
तभी उस की समधिन रीना ने आ कर उसे झकझोर दिया, ‘‘अरे, भाभीजी कहां खो गईं, कोई परेशानी है क्या?’’

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