पड़ोस के घर की घंटी की आवाज सुनते ही शिखा लगभग दौड़ती हुई दरवाजे के पास गई और फिर परदे की ओट कर बाहर झांकने लगी. अपने हिसाबकिताब में व्यस्त सुधीर को शिखा की यह हरकत बड़ी शर्मनाक लगी. वह पहले भी कई बार शिखा को उस की इसी आदत पर टोक चुका है, लेकिन वह अपनी आदत से बाज नहीं आती.
ज्यों ही आसपास के किसी के घर की घंटी बजती शिखा के कान खड़े हो जाते. कौन किस से मिलजुल रहा है, किस पतिपत्नी में कैसा बरताव चल रहा है, इस की पूरी जानकारी रखने का मानो शिखा ने ठेका ले रखा हो.
सुधीर ने कभी ऐसी मनोवृत्ति वाली पत्नी की कामना नहीं की थी. अपना दर्द किस से कहे वह... कभी प्रेम से, कभी तलखी से झिड़कता जरूर है, ‘‘क्या शिखा, तुम भी हमेशा पासपड़ोसियों के घरों की आहटें लेने में लगी रहती हो... अपने घर में दिलचस्पी रखो जरा ताकि घर घर जैसा लगे...’’
सुधीर की लाई तमाम पत्रपत्रिकाएं मेज पर पड़ी शिखा का मुंह ताकती रहतीं... शिखा अपनी आंखें ताकझांक में ही गड़ाए रखती.
मगर आज तो सुधीर शिखा की इस हरकत पर आगबबूला हो उठा और फिर परदा इतनी जोर से खींचा कि रौड सहित गिर गया.
‘‘लो, अब ज्यादा साफ नजर आएगा,’’ सुधीर गुस्से से बोला.
शिखा अचकचा कर द्वार से हट गई. देखना तो दूर वह तो अनुमान भी न लगा पाई कि जतिन के घर कौन आया और क्योंकर आया.
सुधीर के क्रोध से कुछ सहमी जरूर, पर झेंप मिटाने हेतु मुसकराने लगी. सुधीर का मूड उखड़ चुका था. उस ने अपने कागज समेट कर अलमारी में रखे और तैयार होने लगा.