सुधीर और दस्तूर एक ही संस्थान में तो हैं, साथ में पड़ोसी होने की वजह से बातचीत, आनाजाना भी है. मगर शिखा को दस्तूर परिवार फूटी आंख नहीं सुहाता है. दस्तूर की पत्नी अर्चना से तो ढेरों शिकायतें हैं उसे कि क्या पता दिन भर घर में घुसेघुसे क्या करती रहती है… औरतों से भी मिलेगी तब भी एकदम औपचारिक… मजाल उस के अंतरंग क्षणों का एक भी किस्सा कोई उगलवा सके… ऐसी बातों पर एकदम चुप.
इस के विपरीत सुधीर अर्चना का काफी सम्मान करता है. विवाह से पूर्व वे शिक्षिका थीं और आज एक सफल गृहिणी हैं. लेकिन शिखा ने उन्हें भी नहीं छोड़ा. शिखा के खाली और शैतानी दिमाग से सुधीर भीतर ही भीतर कुंठित हो चला था. इसीलिए दस्तूर दंपती से नजरें चुराता वह रेस्तरां से बाहर निकल आया. रात के 9 बज रहे थे पर उस का मन घर जाने को नहीं कर रहा था. करीब 11 बजे घर पहुंचा ही था कि घंटी बजाते ही शिखा ने द्वार खोल प्रश्नों की झड़ी लगा दी.
सुधीर आज कुछ तय कर के ही लौटा था. अत: चुपचाप कपड़े बदलता रहा. शिखा परेशान सी उस के आगेपीछे घूम रही थी, ‘‘जब कोई और प्रोग्राम था तो मुझे क्यों बहलाया कि शाम को पिक्चर चलेंगे… किस के साथ थे पूरी शाम?’’
‘‘बस यों समझ लो कि अर्चनाजी के संग था पूरी शाम.’’
शिखा उसे अवाक देखती रह गई. सुधीर भी देख रहा था. वह अभी तक सजीसंवरी कीमती साड़ी में ही थी. सुधीर को अच्छा लगा उसे यों तैयार देख कर, पर स्वयं पर नियंत्रण रख वह सोफे पर बैठा रहा.
‘‘शिखा, तुम ने ही तो अर्चना के बारे में इतनी बातें बताईं कि उन्हें पास से देखने का… यानी तुम्हारे मुताबिक उन के लटकेझटके देखने का कई दिनों से बड़ा मन होने लगा था… आज मौका मिल गया तो क्यों छोड़ता. वे सब भी उसी रेस्तरां में थे… वाकई मैं तो उन की सुखी व शालीनता भरी आंखों में खो गया… इतनी देर मैं उन्हीं के सामने की मेज पर बैठा रहा, पर उन्हें अपने पति व बेटी से फुरसत ही नहीं मिली, अगलबगल ताकनेझांकने की… मुझे ही क्या उन्होंने तो किसी को भी नजर उठा कर नहीं देखा… अपने में ही मस्तव्यस्त… मुझे तो बड़ा अजीब लगा. अरे, कम से कम मुझे अकेला बैठा देख पूछतीं तो कि मैं अकेला क्यों? पर मेरी तरफ ध्यान ही नहीं… पर मैं ने खूब ध्यान से देखा उन्हें… अर्चना साड़ी बड़ी खूबसूरती से बांधती हैं… और साड़ी में लग भी बहुत अच्छी रही थीं.’’
सुधीर की बातें सुन शिखा का मन रोने को हो आया. वह दूसरे कमरे में जाने लगी तो सुधीर भी चल पड़ा, ‘‘अब एकाध दिन आशा… शैली… नेहा… इन सब को भी नजदीक से देखना है.’’
जब शिखा की बरदाश्त से बाहर हो गया तो उस ने रोना शुरू कर दिया. उस ने तो कभी सोचा ही नहीं था कि नितांत एकांत क्षणों में उस के साथ होने के बावजूद सुधीर पराई स्त्रियों के रूपशृंगार की बात कर सकता है. दूसरों के घरों की आहटें लेने में वह इतनी तल्लीन थी कि उसे खयाल ही नहीं रहा कि उस की इस हरकत पर कभी उस के ही घर में इतना बड़ा धमाका हो सकता है. आहटों से अनुमान लगाने में माहिर शिखा फूटफूट कर रो रही थी.
‘‘अब रोगा कर क्या पासपड़ोस को इकट्ठा करोगी… अर्चना से कुछ सबक लो…उन्हें तो उस रात दस्तूर ने कई चांटे मारे थे फिर भी उफ न की थी उन्होंने,’’ सुधीर ने शिखा को मनाने के बजाय उसी का सुनाया किस्सा उसे याद दिला दिया.
उस रोज तो वह बिस्तर में ही था कि शिखा ने उसे यह खबर दी थी गुड मौर्निंग न्यूज की भांति. सुधीर जानता था कि आज भी दस्तूर को डीजल शेड नाइट इंसपैक्शन जाना है, मगर शिखा यों बता रही थी जैसे वही सब कुछ जानती हो, ‘‘तुम सोते रहो… पता भी है कल रात को क्या हुआ? दस्तूर साहब इंसपैक्शन कर के करीब 2 बजे रात को लौटे. मेरी नींद तो उन की गाड़ी रुकते ही खुल गई… बेचारे खूब हौर्न बजाते रहे… मगर घर में सन्नाटा. फिर देर तक घंटी बजाते रहे… मुझे तो लगता है मेरी क्या पूरे महल्ले की नींद खुल गई होगी, पर तुम्हारी अर्चना पता नहीं कितनी गहरी नींद में थी… क्या कर रही थी? बड़ी देर बाद दरवाजा खोला… मैं ने दरार में से झांक कर देखा था. दस्तूर साहब दरवाजे में ही खूब नाराज हो रहे थे. फिर जब कुछ देर बाद मैं ने अपने बैडरूम की खिड़की से उन के बैडरूम की आहट ली तो दस्तूर साहब के जोरजोर से बड़बड़ाने की आवाजें आ रही थीं और फिर चाटें मारने की आवाजें भी आईं…’’
‘‘क्या बकवास कर रही हो सुबहसुबह…’’
सुधीर की बात काटते हुए शिखा और ढिठाई से बोली, ‘‘मैं ने खुद अपने कानों से चांटे की स्पष्ट आवाजें सुनी हैं… खुल गई न पोल तुम्हारी अर्चना की… बड़े फिदा हो न उस के सलीके, सुघड़ता और शालीनता पर…’’
सुधीर उस रोज वाकई स्तब्ध रह गया था. यों वह शिखा की बातें कभी गंभीरता से नहीं लेता था पर उस रोज मामला दस्तूर दंपती का था.
दस्तूर दंपती जिन्हें वह काफी मानसम्मान देता है उन लोगों के बीच हाथापाई हो जाए चौंकाने वाली बात है. कोई भी सुसंस्कृत, सभ्य पुरुष अपनी पत्नी पर हाथ उठाए… ऐसा कभी हो सकता है और फिर दस्तूर साहब तो अपनी पत्नी व बेटी पर निछावर हैं.
उस रोज इसी खलबली में औफिस पहुंचते ही मौका पा कर सुधीर दस्तूरजी के पास जा बैठा. चूंकि एकदम व्यक्तिगत प्रश्न तो किया नहीं जा सकता था, इसलिए औफिस… मौसम आदि की बातें करते हुए गरमी की परेशानी का जिक्र निकाल भेद लेने का पहला प्रयास किया, ‘‘एक बात है दस्तूर साहब… गरमी में नाइट ड्यूटी बढि़या रहती है… मस्त ठंडक… कूलकूल.’’
‘‘नाइट ड्यूटी… अरे नहीं भाई खुद की नींद खराब… फैमिली की नींद हराम… कल रात घर पहुंचा… परेशान हो गया.’’
दस्तूर की बात सुनते ही सुधीर उछल पड़ा, ‘‘क्यों क्या भाभीजी ने घर में नहीं घुसने दिया?’’
‘‘ऐसा होता तो मुझे मंजूर था पर वह भलीमानस एकडेढ़ बजे रात तक मेरा इंतजार करते पढ़ती रही. थक कर उस की झपकी लगी ही होगी कि मैं पहुंचा. दरवाजा देर से खुला तो घबरा ही गया था, क्योंकि बीपी की वजह से आजकल ज्यादा ही परेशान है. उसे सहीसलामत देख कर जान में जान आई.