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मैं यही सोच रही थी. न जाने कब तक छत पर नजरें गड़ाए मैं अपने विचारों के आरोहअवरोह में चढ़तीउतरती रही और सोचतेसोचते कब नींद के आगोश में चली गई, पता ही नहीं चला.सुबह नींद खुली तो सूरज छत पर चढ़ आया था. सौरभ बेखबर सो रहे थे. मैं ने उन का माथा छू कर देखा और इत्मीनान से मुसकरा दी.

जब से सौरभ को दिल का दौरा पड़ा है तब से उन की तरफ से मन में अनजाना सा डर समाया रहता है कि कहीं सौरभ मु?ो छोड़ कर चुपचाप चले न जाएं. क्या होगा मेरा? मैं सौरभ के बिना नहीं जी सकती और जीऊंगी भी तो किस के सहारे.मैं हाथमुंह धो कर चाय बना कर ले आई. सौरभ को जगाया और दोनों मिल कर चाय पीने लगे. जिंदगी की सां?ा में कैसे पतिपत्नी दोनों अकेले रह जाते हैं, यही तो समय का चक्कर है. इसी जगह पर कभी हमारे मातापिता थे, अब हम हैं और कल हमारी संतान होगी. सीमित होते परिवार, कम होते बच्चे…पीढ़ी दर पीढ़ी अकेलेपन को बढ़ाए दे रही है.

हर नई पीढ़ी, पिछली पीढ़ी से ज्यादा और जल्दी अकेली हो रही है, क्योंकि बच्चे पढ़ाई- लिखाई के कारण घर से जल्दी दूर चले जाते हैं. पर इस का एहसास युवावस्था में नहीं होता. मन में बेटे के परिवार के आने का कोई उत्साह नहीं था. फिर भी न चाहते हुए भी, उन का कमरा ठीक करने लगी. बच्चे भी आ रहे हैं…कैसे रहेंगे, कितने दिन रहेंगे.. मैं आगे का कुछ भी सोचना नहीं चाहती थी. हां, इतना पक्का था कि 6 लोगों का खर्च सौरभ की छोटी सी पेंशन से नहीं चल सकता था…तब क्या होगा.रात को सत्यम का फोन आया कि वह परसों की फ्लाइट से आ रहा है. फोन मैं ने ही उठाया. मैं ने निर्विकार भाव से उस की बात सुन कर फोन रख दिया. दूसरे दिन मैं ने सौरभ से बैंक से कुछ रुपए लाने के लिए कहा.‘‘नहीं हैं मेरे पास रुपए…’’ सौरभ बिफर गए.‘‘सौरभ प्लीज, अभी तो थोड़ाबहुत दे दो…सत्यम भी यहां आ कर चुप तो नहीं बैठेगा. कुछ तो करेगा,’’ मैं अनुनय करने लगी.सौरभ चुप हो गए. मेरी कातरता, व्याकुलता सौरभ कभी नहीं देख पाते. हमेशा भरापूरा ही देखना चाहते हैं. उन्होंने बैंक से रुपए ला कर मेरे हाथ में रख दिए.‘‘सौरभ, तुम फिक्र मत करो, मैं थोड़े ही दिन में सत्यम को बता दूंगी कि हम उस के परिवार का खर्च नहीं उठा सकते.

घर है…जब तक चाहे बसेरा कर ले लेकिन अपने परिवार की जिम्मेदारी खुद उठाए. हम से कोई उम्मीद न रखे,’’ मेरे स्वर की दृढ़ता से सौरभ थोड़ाबहुत आश्वस्त हो गए. अगले दिन सत्यम को आना था. फ्लाइट के आने का समय हो गया था. हम एअरपोर्ट नहीं गए. अटैचियों से लदाफंदा सत्यम परिवार सहित टैक्सी से खुद ही घर आ गया. सत्यम व बच्चे जब आंखों के सामने आए तो पलभर के लिए मेरे ही नहीं, सौरभ की आंखों में भी ममता की चमक आ गई. 5 साल बाद देख रहे थे सब को. सत्यम व नीमा के मुर?ाए चेहरे देख कर दिल को धक्का सा लगा. सत्यम ने पापा के पैर छुए और फिर मेरे पैर छू कर मेरे गले लग गया. साफ लगा, मेरे गले लगते हुए जैसे उस की आंखों से आंसू बहना ही चाहते हैं, आखिर राजपाट गंवा कर आ रहा था.

मां सिर्फ हाड़मांस का बना हुआ शरीर ही तो नहीं है…मां भावनाओं का असीम समंदर भी है…एक महीन सा अदृश्य धागा मां से संतान का कहां और कैसे बंधा रहता है, कोई नहीं सम?ा सकता…एक शीतल छाया जो तुम से कोई भी सवालजवाब नहीं करती…तुम्हारी कमियों के बारे में बात नहीं करती… हमेशा तुम्हारी खूबियां ही गिनाती है और कमियों को अपने अंदर आत्मसात कर लेती है…अपने किए का बदला नहीं चाहती…हर कष्ट के क्षण में मुंह से मां का नाम निकलता है और दिमाग में मां के होने का एहसास होता है…कष्ट के समय कहीं और आसरा मिले न मिले पर वह शीतल छाया तुम्हें आसरा जरूर देती है… सुख में कैसे भूल जाते हो उस को. लेकिन जड़ें ही खोखली हों तो हलके आंधीतूफान में भी बड़ेबड़े दरख्त उखड़ जाते हैं.मेरे गले से लगा हुआ सत्यम शायद यही सबकुछ सोचता, अपने आंसुओं को अंदर ही अंदर पीने की कोशिश कर रहा था, लेकिन मैं ने अपना संतुलन डगमगाने नहीं दिया. सत्यम को भी एहसास होना चाहिए कि जब गहन दुख व परेशानी के क्षणों में ‘अपने’ हाथ खींचते हैं तो जिंदगी कितनी बेगानी लगती है. विश्वास नाम की चीज कैसे चूरचूर हो जाती है.‘‘बैठो सत्यम…’’ उसे धीरे से अपने से अलग करती हुई मैं बोली, ‘‘अपना सामान कमरे में रख दो…मैं चाय बना कर लाती हूं,’’ कह कर अपने मनोभावों को छिपाते हुए मैं किचन में चली गई.

बच्चों ने प्रणाम किया तो मैं ने उन के गाल थपथपा दिए. दिल छाती से लगाने को कर रहा था पर चाहते हुए भी कौन सी अदृश्य शक्ति मु?ो रोक रही थी. चाय बना कर लाई तो सत्यम व नीमा सामान कमरे में रख चुके थे. नीमा ने मेरे हाथ से टे्र ले ली…शायद पहली बार.वहीं डाइनिंग टेबल पर बैठ कर सब ने चाय खत्म की. इतनी देर बैठ कर सौरभ ने जैसे मेजबान होने की औपचारिकता निभा ली थी, इसलिए उठ कर अपने कमरे में चले गए. दोनों बच्चे भी थके थे, सो वे भी कमरे में जा कर सो गए.‘‘तुम दोनों भी आराम कर लो, खाना बन जाएगा तो उठा दूंगी…क्या खाओगे…’’‘‘कुछ भी खा लेंगे…और ऐसे भी थके नहीं हैं…नीमा खुद बना लेगी…आप बैठो.’’मैं ने चौंक कर नीमा को देखा, उस के चेहरे पर सत्यम की कही बात से सहमति का भाव दिखा. यह वही नीमा है जो मेरे इतने असुविधापूर्ण किचन में चाय तक भी नहीं बना पाती थी, खाना बनाना तो दूर की बात थी. कहते हैं प्यार में बड़ी शक्ति होती है पर शायद मेरे प्यार में इतनी शक्ति नहीं थी, तभी तो नीमा को नहीं बदल पाई, लेकिन आर्थिक मंदी ने उसे बदलने पर मजबूर कर दिया था.

मेरे मना करने पर भी नीमा किचन में चली गई. वह भी उस किचन में जिस में पहले कभी नीमा ने पैर भी न धरा था, उस का भूगोल भला उसे क्या पता था. इसलिए मु?ो किचन में जाना ही पड़ा.सत्यम को आए हुए 2 दिन हो गए थे. हमारे बीच छिटपुट बातें ही हो पाती थीं. हम दोनों का उन दोनों से बातें करने का उत्साह मर गया था और वे दोनों भी शायद पहले के अपने बनाए गए घेरे में कैद कसमसा रहे थे. सौरभ तो सामने ही बहुत कम पड़ते थे. पढ़ने के शौकीन सौरभ अकसर अपनी किताबों में डूबे रहते. अलबत्ता बच्चे जरूर हमारे साथ जल्दी ही घुलमिल गए और हमें भी उन का साथ अच्छा लगने लगा.सत्यम बच्चों के दाखिले व अपनी नौकरी के लिए लगातार कोशिश कर रहा था. अच्छे स्कूल में इस समय बच्चों का दाखिला मुश्किल हो रहा था. अच्छे स्कूल में 2 बच्चों के खर्चे सत्यम कैसे उठा पाएगा, मैं सम?ा नहीं पा रही थी.

उस का परिवार अगर यहां रहता है तो ज्यादा से ज्यादा उसे किराया ही तो नहीं देना पड़ेगा. नीमा उसी किचन में खाना बनाने की कोशिश कर रही थी, उसी बदरंग से बाथरूम में कपड़े धो रही थी. हालांकि सुविधाओं की आदत होने के कारण सब के चेहरे मुर?ाए हुए थे. सत्यम रोज ही अपना रिज्यूम ले कर किसी न किसी कंपनी में जाता रहता. आखिर उसे एक कंपनी में नौकरी मिल गई. कंपनियों को भी इस समय कुशल कर्मचारी कम तनख्वाह में हासिल हो रहे थे तो वे क्यों न इस का फायदा उठाते. तनख्वाह बहुत ही कम थी.‘‘सोचा भी न था मम्मी, ऐसी बाबू जैसी तनख्वाह में कभी गुजारा करना पड़ेगा,’’ सत्यम बोला.दिल हुआ कहूं कि तेरे पिता ने तो ऐसी ही तनख्वाह में गुजारा कर के तु?ो इतने ऊंचे मुकाम पर पहुंचाया…तब तू ने कभी नहीं सोचा…लेकिन उस के स्वर में उस के दिल की निराशा साफ झलक रही थी. मां होने के नाते दिल में कसक हो आई.

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