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बांबेल अपने प्रभावी स्वर में कहता रहा, ‘‘चीजों को उन के सही परिप्रेक्ष्य में देखिए, मिस मोनिका. आप नारियां अपनेआप को सदैव भोग्या के रूप में क्यों मानती हैं? पुरुष के समान ही आप भी मानव सृष्टि की एक प्रबल हस्ती हैं. उसी आधार पर अपने को भोक्ता के रूप में देखिए. दुनिया के इस नीलाम घर में आप स्वयं को हमेशा नीलाम पर चढ़ी हुई ही क्यों महसूस करती हैं? अपने को नीलाम की बोली बोलने वाले या चीजों को खरीदने वाले के रूप में क्यों नहीं पेश कर पाती हैं आप? इस संसार में जो खरीद सकता है, वही बलिष्ठ है, वही मुक्त है.’’ मोनिका की आंखें मुंदी हुई थीं. वह बांबेल की बांहों में बंधी हुई किसी कल्पना लोक में पहुंच गई थी तथा उस के गाढ़े चुंबन का वैसा ही प्रत्युत्तर दे रही थी. पूरे माहौल में एक रोमानी भीनी सुगंधि बसी थी. पर कुछ क्षणों में बांबेल ने बिलकुल व्यापारिक ढंग से अपने को अलग कर लिया और मोनिका के गालों को थपथपाता हुआ बोला, ‘‘हम लोग फिर कभी और खुलेरूप में मिलेंगे, बाय.’’

मोनिका की बुद्धि को जैसे नई दृष्टि प्रदान कर दी जरमन व्यवसायी ने. मोनिका ने अपनी मुक्ति के मार्ग में जैसे नया आलोक पा लिया हो. उस के पास शिक्षा थी, दक्षता थी, वाक्पटुता थी और थी सुंदरता. उस की महत्त्वाकांक्षा अब पंख लगा कर उड़ चली थी. धीरेधीरे उस कंपनी में मोनिका एक के बाद दूसरे उच्चपद पर प्रतिष्ठित होती गई. धाक जमाती गई. यहां तक कि वह भी मिस्टर बांबेल की भांति अनवरत अंतर्राष्ट्रीय दौरों पर रहने लगी. उस का एक पैर मुंबई में होता तो दूसरा कोलकाता में. यदि आज वह टोकियो जा रही है तो कल बेरूत, परसों न्यूयार्क और नरसों हैंबर्ग. अब वह भी कंपनी की एक डाइरैक्टर थी. फकीरचंद बागला मर चुका था. अब उस का लड़का नरेशचंद कंपनी का प्रबंध संचालक था. अवकाश के एक दिन मोनिका ने अपने विगत जीवन पर एक विहंगम दृष्टि डाली, एक आत्मचिंतन किया. इतने बड़े विलासपूर्ण फ्लैट में मोनिका अकेली ही रहती थी. कुछ नौकरनौकरानियां, जो हमेशा उस की आज्ञा का पालन करने को खड़े रहते, और कोई नहीं. अपनों के नाम पर उस के मित्र और सहकर्मी थे. उन के भतीजे, लड़के उसे आंटी कह लेते. यही एक आत्मीयता का संबोधन उसे सुनने को मिलता.

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