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‘‘रूपा, बेटा फ्रैश हो जाओ. दामादजी भी आते होंगे. शाम को तु झे वापस भी जाना है न,’’ मां एक बार फिर से उस के पास आ कर खड़ी हो गई. उस ने घड़ी देखी, सुबह के 10 बजे थे. वह चुपचाप स्नानघर को बढ़ गई. रूपा कानपुर चली गई और उस का इस बीच लखनऊ आना संभव न हो पाया. उस का स्वास्थ्य भी कुछ ढीला चल रहा था. आजकल उस की दिलचस्पी एक भिखारिन लड़की में बढ़ गई थी जो हर शनिवार को तेल की बालटी ले उस के दरवाजे पर खड़ी हो जाती थी. उस की उम्र 11-12 वर्ष की होगी. रूपा उसे बिठा लेती, अपने सामने खाना खिलाती, कभी कपड़ेचप्पल भी पकड़ाती. जिस दिन वह न आती, रूपा को उलटेसीधे खयाल आते.

अब वह भिखारिन भी आ कर उस के बरामदे में निश्ंिचत हो सो भी जाती, फिर नींद खुलने पर आगे बढ़ जाती. रूपा ने एक दिन उस के मन की चाह लेने को पूछा.‘‘स्कूल में पढ़ना चाहती हो?’’‘‘अम्मा से पूछ कर बताऊंगी?’’ ‘‘कहां रहती हो?’’

‘‘गंदे नाले के बगल की बस्ती में.’’ ‘‘और कौन हैं घर में?’’ ‘‘अम्मा हैं और 2 भाई भी हैं.’’ दोतीन महीना नदारद रही. फिर एक दिन प्रकट हो गई बारबार अपना दुपट्टा पेट पर डालते हुए. उस की हरकतों पर रूपा को शक हो गया. ‘‘कुछ गलत काम की हो क्या?’’

वह फफक पड़ी. ‘‘किस ने किया? पुलिस में चलोगी? अनाथालय में रहोगी?’’ रूपा घबरा उठी. ‘‘अम्मा से पूछूंगी.’’ ‘‘ठीक है, कल तुम अपनी अम्मा को ले कर ही आना. तब तक मैं दोचार जगह बात कर के रखती हूं. तुम्हें घबराने और डरने की कोई जरूरत नहीं है.’’

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