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उस दिन रेलवे स्टेशन पर अपनी ट्रेन एक घंटा लेट होने की सूचना पा कर रूपा को बहुत क्रोध आया. इंटरनैट पर आधा घंटा लेट देख कर भी, यह सोच कर स्टेशन आ गई कि आधा घंटा तो स्टेशन रोड का जाम ही खा जाता है. मगर अब क्या करे? बुकस्टौल से एक किताब खरीद कर वेटिंगरूम में जा कर बैठने का प्लान किया, मगर वहां तिल रखने की जगह न थी.

लगातार 3 से 4 ट्रेनें अब तक लेट हो चुकी थीं. सब तरफ सिर्फ यात्री ही यात्री नजर आ रहे थे. ऐसे में एक ट्रेन के आते ही प्लेटफौर्म की एक बैंच से एक परिवार उठ खड़ा हुआ और रूपा ने तुरंत सीट के कोने पर कब्जा कर लिया. एक मिनट की भी देरी की होती तो इस पर भी बैठने को न मिलता. चारों तरफ शोरशराबा, चिल्लपों के बीच नौवेल को पढ़ पाना मुश्किल था. रूपा ने किताब संभाल कर बैग में रख दी और अपने आसपास के यात्रियों पर नजर दौड़ाने लगी.

कुछ अखबार बिछा कर जमीन पर ही जमे थे तो कुछ चादर ताने कोनों में लेटे हुए थे. कुछ भिखारी कटोरा हाथ में लिए भीख मांग रहे थे. बचपन से ही ये एलमूनियम के कटोरे इन लोगों के हाथों में देखदेख कर उसे एलमूनियम के बरतनों से अजीब सी घृणा हो गई है. वह भूल कर भी कोई बरतन एलमूनियम का अपने घर नहीं ला सकती. इस लंगड़े भिखारी को तो वह पिछले 3 वर्षों से इसी स्टेशन पर देख रही है. यहां से बाहर उसे कभी भीख मांगते नहीं देखा. लगता है यहीं से पर्याप्त भीख पा जाता है वह.

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