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उसे अच्छी तरह याद था कि मां रसोई में काम करती रहती थीं और बाबूजी इसी स्टूल पर बैठे उन से बातें करते हुए उन का हाथ बंटाने की कोशिश करते रहते. एक हूक सी उठी सुकांत के हृदय में... कितने अच्छे थे वे दिन...अपनेआप में परिपूर्ण और जीवंत. उसे लगा कि अब वह एक बनावटी जिंदगी जी रहा है. चाय पी कर सुकांत का मन कुछ हलका हुआ तो उस ने यह सोच कर अलमारी खोली कि आखिर कागजों का काम तो निबटाना ही होगा. बड़ीबड़ी 2 फाइलों में बाबूजी ने सारे कागज सिलसिलेवार लगा रखे थे. उन्हीं कागजों में उन की वसीयत भी थी. वैसे वसीयत की कोई खास आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि सुकांत अपने मातापिता की अकेली संतान था. किंतु दीनानाथजी की आदत हर काम को पक्के तौर पर करने की थी. आगेपीछे बहुत रिश्तेदार थे और सुकांत उतनी दूर विदेश में...किसी का क्या भरोसा?

सहसा सुकांत को फाइलों के नीचे एक किताब सी नजर आई. खींच कर निकाला तो देखा कि यह तो वही डायरी है जो उस ने बाबूजी को वहां से आते समय दी थी. सुकांत अपनी उत्सुकता न रोक पाया. फाइलें बंद कर दी और डायरी हाथ में लिए नीचे आ गया. लगभग आधी डायरी भरी हुई थी, जिसे वह आराम से पढ़ना चाहता था. डायरी का पहला पृष्ठ बाबूजी ने हवाई जहाज में ही लिखा था:

19 जनवरी : बेटे, सुकांत, मैं जानता हूं, तुम नहीं चाहते थे कि मैं अकेले रहने के लिए भारत वापस जाऊं. लेकिन मेरे लिए तुम्हारा सुखी जीवन अधिक महत्त्वपूर्ण है. मैं तो बीता समय हूं, आने वाला कल तुम हो. मेरे यहां होने से तुम्हारी गृहस्थी में जो दरार पड़ती जा रही थी, वह मेरे लिए शर्म की बात थी. क्या मैं इतना अक्षम हूं कि अपने इस अकेले जीवन का बोझ भी नहीं उठा सकता?

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