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दुबई आ कर मैं अगले जन्म में मनचाहे हमसफर की कामना करती हुई अपनी जिंदगी की रेलगाड़ी को आगे खींचने लगी. मन लगाने के लिए मैं ने एक कंपनी में रिसैप्शनिस्ट की नौकरी कर ली थी. सोचा, न मेरे पास खाली वक्त होगा न जिंदगी की कमियों को ले कर मन को भटकने का मौका मिलेगा. अपनी व्यस्तताओं में मैं जोसफीन-ब्राइन और उन की परीकथा को भूल सी चुकी थी.

मगर आज शाम वर्ल्ड ट्रेड सैंटर में जोसफीन फिर से सामने आ गई थी. इस बार वह मुझे अपनी सहेली न लग कर, कोई पहेली सी लगी थी. जोसफीन से अचानक रूबरू होने के बाद घर वापस आने पर भी मन जोसफीन, ब्राइन, जैकब त्रिकोण में उलझा रहा. क्या ब्राइन मर चुका है? अगर नहीं तो फिर जोसफीन नए डीफैक्टो पार्टनर के साथ क्यों है? ये एकदूसरे के प्यार में सिर से पांव तक डूबे रहने वाला जोड़ा ऐसे कैसे अलग हो सकता है? कितनी कशिश थी दोनों में, क्या हुआ उस कशिश का? सोचतेसोचते मेरा सिर चकराने लगा. इस ट्रायंगल के तीनों कोणों का आकलन करतेकरते आखिर मैं निढाल हो कर सो गई.

सुबह उठी तो सिर कुछ भारी सा लग रहा था. कुछ देर यों ही बिस्तर में लेटी रही, समझ में नहीं आ रहा था कि औफिस जाऊं या नहीं. अंत में हमेशा की तरह मेरे आलस की जीत हुई. मैं ने औफिस न जाने का निश्चय कर लिया और मुंह पर चादर ढक कर थोड़ी देर ऊंघने के लिए लेट गई.

आधे घंटे में जब टैक्सट मैसेज की आवाज से आंख खुली तो मैं ने अनमने भाव से मोबाइल उठाने के लिए हाथ बढ़ाया. बेमन से मैं ने अपनी अधखुली आंखें मोबाइल पर गड़ाईं तो देखा कि जोसफीन का मैसेज आया था. वह लंच के समय मुझ से कहीं पर मिलना चाहती थी.

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