भाभी के ऊंचे स्वर ने मुझे भी सहमा कर रख दिया. दूध को बोतल में डाल कर मैं शीघ्रता से निकल आई. मुझे मांपिताजी, भैयाभाभी किसी की बातों में दिलचस्पी नहीं थी. इसलिए मैं नूरी को ले कर दूसरे कमरे की ओर बढ़ गई.
यह पल्लवी व तरुण का शयनकक्ष था, साफसुथरा, कीमती सजावट से भरपूर. बढि़या लकड़ी के बने हुए खूबसूरत, नक्काशीदार पलंग के गुदगुदे गद्दों व रेशमी चादर पर लेटते ही मन का रोआंरोआं मीठी सिहरन से भर उठा.
पल्लवी की अनिंद्य सुंदरता बीच में न आई होती तो शायद यह सब मेरा ही होता. पल्लवी से पहले तरुण मेरा ही तो होने वाला था.
मन 2 वर्ष का फासला पार कर अतीत में जा पहुंचा, जब तरुण से मेरे रिश्ते की बात चली थी.
तरुण के मांबाप मुझे देखने मेरे घर आए हुए थे. मेरे घर वालों ने मुझे ब्यूटीपार्लर में सजवा कर गुडि़या सी बना कर उन के सामने बैठा दिया था.
परंतु सौंदर्य प्रसाधनों की ढेरसारी लीपापोती व बिजली की चकाचौंध भी मेरे सांवले रंग को नहीं छिपा पाई थी.
श्वेता नाम होने से ही कोई दूध जैसा गोरा तो हो नहीं जाता. पता नहीं, क्या सोच कर मेरे घर वालों ने मेरा नाम श्वेता रखा था.
मेरा रंग मेरे नाम के बिलकुल विपरीत था. नयननक्श आकर्षक होने से क्या होता है? मेरे घर वालों को विश्वास था कि तरुण के मांबाप मेरी उच्च शिक्षा, गुणों, मधुर व्यवहार, शहद जैसी मीठी व सुरीली आवाज से प्रभावित हो कर मुझे अपने घर की बहू बना लेंगे.
लेकिन उन दोनों ने स्पष्ट इनकार कर दिया. मुझे देख कर कड़वा सा मुंह बना कर दोनों ने मेरे घर वालों को खूब लताड़ा, कहा, ‘नाहक ही अपने घर बुला कर तुम लोगों ने हमारा कीमती वक्त बरबाद किया, जबकि हम पहले ही कह चुके हैं कि हमें अपने इकलौते बेटे के लिए, गोरीचिट्टी लड़की चाहिए, कौए जैसे कालीकलूटी नहीं.’