लेखक-चिरंजीव नाथ सिन्हा
“बेटा, एक बात और, विवाह के बाद अकसर यह स्कैनर एक नया स्वरूप धारण कर लेता है, जिस की फ्रीक्वैंसी कुछ अलग ही होती है.”
“लेकिन हम लड़कियां ही एकसाथ इतने जीवन क्यों जिएं?”
“बेटा, निश्चित तौर पर यह गलत है और हमें इस का पुरजोर विरोध जरूर करना चाहिए. लेकिन स्त्री के प्रति यह समाज कभी भी सहज या सामान्य नहीं रहा है. या तो हमें रहस्य अथवा अविश्वास से देखा जाता है या श्रद्धा से लेकिन प्रेम से कभी नहीं, क्योंकि हम स्त्रियों की जैंडर प्रौपर्टीज समाज को हमेशा से भयाक्रांत करती रही है. सभी को अपने लिए एक शीलवती, सच्चरित्र और समर्पित पत्नी चाहिए जो हर कीमत पर पतिपरायण बनी रहे लेकिन दूसरे की पत्नी में अधिकांश लोगों को एक इंसान नहीं बल्कि एक वस्तु ही दिखाई पड़ती है.”
“लेकिन मां, यह तो ठीक बात नहीं, ऐसा क्यों?”
“बेटा, हम स्त्रियों के मामले में पुरुष हमेशा से इस गुमान में जीता आया है कि यदि कोई स्त्री किसी पुरुष के साथ जरा सा भी हंसबोल ले तो कुछ न होते हुए भी वह इसे उस के प्रेम और शारीरिक समर्पण की सहमति मान लेता है.”
“तो क्या मैं किसी के साथ हंसबोल भी नहीं सकती?”
“नहीं बेटा, मेरे कहने का अभिप्राय यह बिलकुल भी नहीं है. मैं तो तुम्हें सिर्फ आगाह करना चाहती हूं कि समाज के ठेकेदारों ने हमारे चारो ओर नियमकानूनों का एक अजीब सा जाल फैला रखा है, जिस में काजल का गहरा लेप लगा हुआ है. लेकिन हमें भी अपनेआप को कभी कमजोर या कमतर नहीं आंकना चाहिए जबकि उन्हें यह एहसास करा देना चाहिए कि हम न केवल इस जाल को काट फेंकने का सामर्थ्य रखते हैं बल्कि हमारे इर्दगिर्द फैलाए गए इसी काजल को अपने व्यक्तित्व की खूबसूरती का माध्यम बना उसे आंखों में सजा लेना जानते हैं, ताकि हम सिर उठा कर खुले आकाश में उड़ सकें और अपनी खुली आंखों से अपने सपनों को पूरा होते देख सकें.”
“मां, यह हुई न झांसी की रानी लक्ष्मी बाई वाली बात.”
अपनी फूल सी बिटिया को सीने से लगाती हुईं कंचनजी बोलीं,”बेटा, मैं तुम्हें कतई डरा नहीं रही थी. बस समाज की सोच से तुम्हें परिचित करा रही थी ताकि तुम परिस्थितियों का मुकाबला कर सको. तुम वही करना जो तुम्हारा दिल कहे. तुम्हारे मम्मीपापा सदैव तुम्हारे साथ हैं और हमेशा रहेंगे.”
समय अपनी गति से पंख लगा कर उड़ता रहा और देखतेदेखते एक दिन छोटी सी तान्या विवाह योग्य हो गई. संयोग से रवि और कंचनजी को उस के लिए एक सुयोग्य वर ढूंढ़ने में ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी.
एक पारिवारिक शादी समारोह में दिनकर का परिवार भी आया हुआ था. तान्या की निश्छल हंसी और मासूम व्यवहार पर मोहित हो कर दिनकर उसे वहीं अपना दिल दे बैठा. शादी की रस्मों के दौरान जब कभी तान्या और दिनकर की नजरें आपस में एक दूसरे से मिलतीं तो तान्या दिनकर को अपनी ओर एकटक देखता हुआ पाती. उस की आंखों में उसे एक अबोले पर पवित्र प्रस्ताव की झलक दिखाई पड़ रही थी. उस ने भी मन ही मन दिनकर को अपने दिल में जगह दे दिया.
दिनकर की मां को छोड़ कर और किसी को इस रिश्ते पर कोई आपत्ति नहीं थी. दरअसल, दिनकर की मां शांताजी अपने दूर के रिश्ते की एक लड़की को अपनी बहू बनाना चाहती थी जो कनाडा में रह रही थी और पैसे से काफी संपन्न परिवार की थी, दूसरे उन्हें तान्या का सब के साथ इतना खुलकर बातचीत करना पसंद नहीं था. लेकिन बेटे के प्यार के आगे उन्हें झुकना ही पड़ा और कुछ ही समय के अंदर तान्या और दिनकर विवाह के बंधन से बंध गए.
सरल एवं बालसुलभ व्यवहार वाली तान्या ससुराल में भी सब के साथ खूब जी खोलकर बातें करती, हंसती और सब को हंसाती रहती.
पति दिनकर बहुत अच्छा इंसान था. उस ने तान्या को कभी यह महसूस नहीं होने दिया कि वह मायके में नहीं ससुराल में है. उस ने तान्या को अपने ढंग से अपनी जिंदगी जीने की पूरी आजादी दी.
दिनकर की मां शांताजी कभी तान्या को टोकतीं तो वह उन्हें बड़े प्यार से समझाता, “मां, तुम अपने बहू पर भरोसा रखो. वह इस घर का मानसम्मान कभी कम नहीं होने देगी. वह एक परफैक्ट गुड गर्ल ही नहीं एक परफैक्ट बहू भी है.”
लेकिन कुछ ही दिनों मे तान्या को यह एहसास हो गया कि उस के ससुराल में 2 लोगों का ही सिक्का चलता है, पहला उस की सास और दूसरा उस के ननदोई राजीव का.