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राजपूताना राइफल्स के मुख्यालय में अपने केबिन में बैठे कर्नल अमरीक सिंह सरकारी डाक देख रहे थे. एक पत्र उन की नजरों में ऐसा आया जो सरकारी नहीं था. वह एक विदेशी और प्राइवेट पत्र था. पत्र पर लगे डाक टिकट से उन्होंने अनुमान लगाया कि या तो यह पत्र किसी गल्फ देश से है या पड़ोसी देश पाकिस्तान से. उर्दू में लिखे शब्दों से यही लगता था. उन्हें इन देशों से पत्र कौन लिख सकता है, अपने दिमाग पर जोर देने पर भी उन्हें दूरदूर तक ऐसा कोई अपना याद नहीं आया, जो विदेश में जा कर बस गया हो.

पत्र खोला तो वह भी उर्दू में था. वे जब पहली क्लास में स्कूल गए थे तो पंजाब के स्कूलों ने उर्दू पढ़ाना बंद कर दिया था. पत्र में क्या लिखा है, वे कैसे जान पाएंगे. दिमाग पर जोर दिया कि उन की रैजिमैंट में ऐसा कौन है जो उर्दू पढ़नालिखना जानता हो. अरे, हां, कैप्टन नूर मुहम्मद, वह अवश्य उर्दू जानता होगा. मुसलमान होने के साथसाथ वह लखनऊ का रहने वाला है जहां उर्दू खासतौर पर पढ़ी और लिखी जाती है.

उन्होंने घंटी बजाई. केबिन के बाहर खड़ा जवान आदेश के लिए तुरंत हाजिर हुआ.

‘‘कैप्टन नूर मुहम्मद से कहिए, मैं ने उन को याद किया है.’’

जवान आदेश ले कर चला गया. थोड़ी देर बाद कैप्टन नूर मुहम्मद ने कर्नल साहब को सैल्यूट किया और सामने की कुरसी पर बैठ गए.

कर्नल साहब ने उन की ओर देखा और पत्र आगे बढ़ा दिया.

‘‘आप तो उर्दू जानते होंगे? आप इसे पढ़ कर बताएं कि पत्र कहां से आया है और किस ने लिखा है?’’

‘‘जी, जरूर. यह पत्र लाहौर, पाकिस्तान से आया है और लिखने वाली हैं कोई बीबी फातिमा.’’

‘‘ओह.’’

‘‘सर, आप तो पाकिस्तान कभी गए नहीं, फिर फातिमा बीबी को आप कैसे जानते हैं?’’

‘‘सब बताऊंगा, पहले पढ़ो कि लिखा क्या है.’’

‘‘जी, जरूर. लिखा है, कर्नल अमरीक सिंह साहब को फातिमा बीबी का सलाम. यहां सब खैरियत है, उम्मीद करती हूं, सारे परिवार के साथ आप भी खैरियत से होंगे. परिवार से मेरी मुराद रैजिमैंट के अफसरों, जूनियर अफसरों और जवानों से है.

‘‘मुझे सब याद है, मैं आप सब को कभी भूल ही नहीं पाई. वह खूनी खेल, चारों तरफ खून ही खून, लाशें ही लाशें, लाशें अपनों की, लाशें बेगानों की, बूढ़े मां, बाप, भाइयों की लाशें, टुकड़ों में बिखरी पड़ी थीं. मैं बहुत डरी हुई थी जब आप के जवानों की टुकड़ी ने मुझे रिकवर किया था. आप ने जिस तरह मेरी हिफाजत की थी, तब से मेरा आप के परिवार से संबंध बन गया था. मैं इस संबंध को कभी भूल नहीं पाई. इस बात को 10 साल होने जा रहे हैं. आज मैं हर तरह से खुश हूं. मेरी खुशहाल जिंदगी है, जो आप की देन है, मैं इसे कभी भूल नहीं पाई और कभी भूल भी नहीं पाऊंगी.

‘‘जब आप को मेरा यह खत मिलेगा, मैं दिल्ली के लिए रवाना हो चुकी होऊंगी. वहां मेरी खाला (मौसी) रहती हैं जिन का पता भी लिख रही हूं. मुझे पता नहीं, आप हिंदुस्तान में कहां हैं पर मैं जानती हूं, आप कुछ ऐसा जरूर करेंगे कि मैं आप से और आप के परिवार से मिल सकूं.

‘‘आप की खैरियत चाहने वाली.

फातिमा.’’

कैप्टन नूर मुहम्मद ने देखा, शेर सा दिल रखने वाले कर्नल साहब, जिन्हें भारत सरकार ने उन की बहादुरी के लिए ‘महावीर चक्र’ से नवाजा है, यह छोटा सा पत्र सुन कर पिघल गए, आंखें नम हो गईं. यह आश्चर्य ही था कि विकट से विकट परिस्थितियों में चट्टान की तरह खड़ा रहने वाला व्यक्ति इस प्रकार भावनाओं में बह जाएगा.

‘‘सर, आप की आंखों में आंसू? और यह फातिमा कौन है?’’

‘‘क्यों भई, मैं भी इंसान हूं. मेरी आंखों में भी आंसू आ सकते हैं. फातिमा की एक लंबी कहानी है. आप रैजिमैंट में 65 की लड़ाई के बाद आए.

‘‘65 की लड़ाई का अभी सीजफायर हुआ ही था. 22 दिन यह लड़ाई चली थी. हमारी रैजिमैंट पाक के सियालकोट सैक्टर के ‘अल्लड़’ गांव में थी. ‘अल्लड़’ रेलवे स्टेशन हमारे कब्जे में था. वही रैजिमैंट का मुख्यालय भी था. सियालकोट से डेराबाबा नानक तक पाकिस्तान की मिलिटरी सप्लाई बिलकुल रोक दी गई थी. रैजिमैंट मोरचाबंदी मजबूत करने और छिपे हुए दुश्मनों को सफाया करने में व्यस्त थी. गांव के एक घर से अस्तव्यस्त और क्षतविक्षत अवस्था में यह फातिमा हमारी एक पैट्रोलिंग पार्टी को मिली जिस की कमांड मेजर रंजीत सिंह के हाथ में थी. फातिमा के परिवार के सारे लोग लड़ाई में मारे गए थे. पाक के फौजी फातिमा के पीछे पड़े हुए थे. शायद उस की इज्जत लूटने के बाद मार देते. पर हमारी टुकड़ी से उन की भिड़ंत हो गई. कुछ मारे गए, कुछ भाग गए. डरी, सहमी और जख्मी फातिमा को रिकवर कर लिया गया. जब उसे मेरे सामने पेश किया गया तो वह डर के मारे थरथर कांप रही थी. कपड़े जगहजगह से फटे हुए थे, शरीर पर जख्म थे जिन से खून बह रहा था. उस की आंखों से भी झलक रहा था कि वह अपने फौजियों से बड़ी मुश्किल से बची है, अब तो वह दुश्मन के खेमे में है.

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