‘‘बेटियां क्या इतनी सस्ती होती हैं जो किसी के भी हाथ दे दी जाएं. कोई मुझ से पूछे बेटी की कीमत...प्रकृति ने मुझे तो बेटी भी नहीं दी...अगर मेरी भी बेटी होती तो क्या मैं उसे पढ़ालिखा कर, सोचनेसमझने की अक्ल दिला कर किसी कुंए में धकेल देता?’’ रो पड़े थे ताऊजी.
मैं दरवाजे की ओट में खड़ी थी. उधर सोमेश लगातार मुझे फोन कर रहा था, मना रहा था मुझे...गिड़गिड़ा रहा था. क्या उस के पास आत्मसम्मान नाम की कोई चीज नहीं है. मैं सोचने लगी कि इतने अपमान के बाद कोई भी विवेकी पुरुष होता तो मेरी तरफ देखता तक नहीं. कैसा है यह प्यार? प्यार तो एहसास से होता है न. जिस प्यार का दावा सोमेश पहले दिन से कर रहा है वह जरा सा छू भर नहीं गया मुझे. कोई एक पल भी कभी ऐसा नहीं आया जब मुझे लगा हो कोई ऐसा धागा है जो मुझे सोमेश से बांधता है. हर पल यही लगा कि उस के अधिकार में चली गई हूं.
‘‘मैं बदनाम कर दूंगा तुम्हें शुभा, तेजाब डाल दूंगा तुम्हारे चेहरे पर, तुम मेरे सिवा किसी और की नहीं हो सकतीं...’’
मेरे कार्यालय में आ कर जोरजोर से चीखने लगा सोमेश. शादी टूट जाने की जो बात मैं ने अभी किसी से भी नहीं कही थी, उस ने चौराहे का मजाक बना दी. अपना पागलपन स्वयं ही सब को दिखा दिया. हमारे प्रबंधक महोदय ने पुलिस बुला ली और तेजाब की धमकी देने पर सलाखों के पीछे पहुंचा दिया सोमेश को.
उधर जगदीश चाचा भी दुश्मनी पर उतर आए थे. वह कुछ भी करने को तैयार थे, लेकिन अपनी और अपने बेटे की असंतुलित मनोस्थिति को स्वीकारना नहीं चाहते थे. हमारा परिवार परेशान तो था लेकिन डरा हुआ नहीं था. शादी की तारीख धीरेधीरे पास आ रही थी जिस के गुजर जाने का इंतजार तो सभी को था लेकिन उस के पास आने का चाव समाप्त हो चुका था.
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