‘‘क्या नहीं कर रहा है. कुछ भी तो नहीं छिपा है आप से. सुनीता को सिरमाथे पर बिठाया जा रहा है. वहीं मेरी तरफ ताकने तक की फुरसत नहीं है किसी के पास.’’
‘‘यह तुम्हारा वहम है.’’
‘‘हकीकत है, मांजी.’’
‘‘हकीकत ही सही. इस के लिए तुम जिम्मेदार हो.’’
‘‘सुनीता को मैं यहां लाई?’’
‘‘बेवजह उसे बीच में मत घसीटो. तुम अच्छी तरह जानती हो कि पतिपत्नी के बीच रिश्तों की डोर औलाद से मजबूत होती है.’’
‘‘तो क्या यह संभावना सुनीता में देखी जा रही है?’’
‘‘बेशर्मी कोई तुम से सीखे.’’
‘‘बेशर्म तो आप हैं जो अपने बेटे को शह दे रही हैं,’’ मैं भी कुछ छिपाने के मूड में नहीं थी.
‘‘ऐसा ही सही. तुम्हें रहना हो तो रहो.’’
‘‘रहूंगी तो मैं यहीं. देखती हूं मुझे कोई मेरे हक से कैसे वंचित करता है,’’ अतिभावुकता के चलते मेरी रुलाई फूट गई. बिस्तर पर लेटेलेटे सोचने लगी, एक मैं थी जो यह जानते हुए भी कि सुधीर विकलांग है उसे अपनाना अपना धर्म समझा. वहीं सुधीर, मेरे बांझपन को इतनी बड़ी विकलांगता समझ रहा है कि मुझ से छुटकारा पाने तक की सोचने लगा है. इतनी जल्दी बदल सकता है सुधीर. यह वही सुधीर है जिस ने सुहागरात वाले दिन मेरे माथे को चूम कर कहा था, ‘यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे तुम जैसे विशाल हृदय वाली जीवनसंगिनी मिली. मैं तुम्हें यकीन दिलाता हूं कि कभी अपनी तरफ से तुम्हें शिकायत का मौका नहीं दूंगा,’ आज सुधीर इतना गिर गया है कि उसे रिश्तों की मर्यादाओं का भी खयाल नहीं रहा. माना कि दूर के रिश्ते की मामी की लड़की है सुनीता, पर जब नाम दे दिया तो उसे निभाने का भी संस्कार हर मांबाप अपने बच्चों को देते हैं. पता नहीं, मेरी सास को क्या हो गया है कि सब जानते हुए भी अनजान बनी हैं.